Thursday, July 31, 2008
जलने वाला कोई नहीं....!
जब वक़्त पड़ा तब कोई नहीं
मतलब के हैं सब लोग यहाँ
दुनिया में किसी का कोई नहीं
जब बारी आई जाने की
और डेरा किया मसानों में
तब जाने वाले लाख मिले
पर जलने वाला कोई नहीं
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Tuesday, July 29, 2008
भगवान आ जाते हैं घर...!
Saturday, July 26, 2008
ये कैसा समझौता....!
Monday, July 21, 2008
मेरी पहली कविता...!
टीप : यह कविता मैंने
१७ जुलाई १९७९ को लिखी थी।
मेरी पहली प्रकाशित रचना।
तब मैं मात्र १९ बरस का था।
पढ़कर क्या सोचते हैं आप ?
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चीखती है लेखनी जब
वेदना और आह सुनकर
लोग कहते हैं कि मैं अब
गीत लिखने लग गया हूँ
अश्क आँखों से बहे
और होंठ मेरे खुल गए तो
लोग कहते हैं कि मैं अब
गीत गाने लग गया हूँ
देखकर नीरव ये आलम
तार दिल के झनझनाए
लोग कहते हैं कि मैं
संगीत में अब खो गया हूँ
बरसते नयनों को लखकर
बंद कर लीं मैंने पलकें
लोग कहते हैं कि मैं अब
खो गया हूँ, खो गया हूँ !
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Sunday, July 20, 2008
सूक्ति-कविता...!
छोड़िए रोना व्यथा का
वेदना में चीखना
दुश्मनी इनसे न करना
बेहतर है सीखना
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Thursday, July 17, 2008
मेरी सल्तनत....मेरी फ़ितरत !
आज मैं वैसा ही हूँ, जैसा मैं हूँ
कल मैं वैसा ही रहूँगा,जैसा मैं आज हूँ
मेरे पहले और आख़िरी प्रभाव में
नहीं देख पाओगे तुम फ़र्क
क्योंकि मैं आरम्भ और अंत के बीच
राह के काँटे चुन रहा हूँ
बाद के काफ़िलों के लिए
सफर की आसानी बुन रहा हूँ
सब के बीच
अकेला रहना मेरी सल्तनत है
अकेला होकर भी सब का होना
मेरी फ़ितरत है
जो है उसे मैं वैसा ही जीना चाहता हूँ
रस जीवन का मैं भरपूर पीना चाहता हूँ.
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Saturday, July 12, 2008
दौड़ रहा बाहर पर भीतर है हीन...!
दौड़ रहा बाहर पर भीतर है हीन
दंभ आसमां पर है लेकिन तू दीन
सबसे आगे रहने में है मशगूल
सुन भाई जाए न सारा सुख छीन
माना कि सबको है अपनी ही फिक्र
पर तू मत इतना हो अपने में लीन
सुन तो तू मिट्टी की, फूलों की भाषा
जल में क्यों प्यासी है सोच जरा मीन
सुख का हर पल जी ले हँसकर तू मीत
दुःख की रातों से तू मत हो ग़मगीन
सीमा हो धुंधली तब तय है तुम मानो
किरणों की होती है बारिश रंगीन.
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Thursday, July 10, 2008
उठे कहाँ....बरसे कहाँ !
जितनी गहरी वेदना, उतने गहरे गीत
मेघ तभी हैं बरसते, जब हो गहरी प्रीत
=================उठे कहाँ से देखिए, बरसे कहाँ वो मेघ
गरज-गरज कर कह गए, देख हमारा वेग
=================कजरारे चाहे दिखें, मन के हैं पर साफ़
प्यासी आँखें देखकर, करते हैं इन्साफ़
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बादल-बादल गीत पर, बदली-बदली चाल
गोरी पनघट जा रही, देखो मचा बवाल
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झूम-झूम कर बो रहा, वह धरती में धान
बरस-बरस बादल कहे, जय हो धन्य किसान
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बदला मौसम बदल गया, बादल का बर्ताव
मन आया तब बरसना, बन गया देख स्वभाव
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Tuesday, July 8, 2008
माटी वंदना....
Monday, July 7, 2008
स्वप्न की ज़िंदगी....!
अपने ही स्वप्न की आहट को
बार-बार, लगातार सुनना
और स्वप्न की आहट को
सुनने से ज़्यादा ज़रूरी है
सुने हुए स्वप्न को साधार बुनना
यानी
बुने हुए सपने को सुनना
और सुने हुए को बुनना हो
तो समझो हुआ
अपने ही स्वप्न को अपने लिए चुनना
और...
चुने हुए सपने को जिया भी जा सके
तो फिर क्या कहना !
स्वप्न को भी जीवन मिल जाएगा
हर बार वह सपना ज़िंदगी दे जाएगा
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