अंग्रेजों के मानस पुत्रों को 'संस्कृत' की चुनौती
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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फ़ोर्ब्स पत्रिका की एक रिपोर्ट में संस्कृत को सभी उच्च भाषाओं की जननी माना गया है। इसका कारण हैं इसकी सर्वाधिक शुद्धता और इसीलिए यह कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर के लिए एक उपयुक्त भाषा है मीठी और दैवी संस्कृत भाषा का काव्य बहुत ही मीठा है एवं उससे भी अधिक मीठा,प्रभावशाली नैतिक शिक्षा देने वाला सुभाषित है. संस्कृत को देववाणी भी कहते हैं। इस दृष्टि से यह देवों के समान स्वातंत्र्य की भाषा है.यह बंधन काटने वाली दैवीय भाषा है. 1857 की क्रान्ति का अग्रदूत प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द संस्कृत का उद्भट विद्वान थे लोकमान्य तिलक, लाला लाजपतराय, पंडित मदन मोहन मालवीय पर भी संस्कृत की अमिट छाप थी.
संस्कृत भाषा आज भी करोड़ों मनुष्यों के जीवन से एकमेक है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक समस्त जनता के धार्मिक कृत्य संस्कृत में होते हैं। प्रातः जागरण से ही अपने इष्टदेव को संस्कृत भाषा में स्मरण करते हैं। गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त सोलह संस्कार संस्कृत में होते हैं। जैन और महायानी बौद्धों का समस्त विशाल साहित्य संस्कृत और प्राकृत में भी है। विचार-विस्तार, भाषण का माध्यम संस्कृत है। आज भी हजारों विद्वान नानाविध विषयों में साहित्य से इसकी गरिमा को निरन्तर बढ़ाकर अपनी और संस्कृत की महिमा से अलंकृत हो रहे हैं। अतः संस्कृत एक जीवन्त और सशक्त भाषा है।
यह सुखद आश्चर्य की बात है कि अमेरिका विशाल देश है। उत्तरी अमेरिका के दक्षिणी भाग मैक्सिको और पनामा राज्य की सीमा का लगभग 20-22 वर्ष पूर्व अनुसन्धान किया गया। वहॉं अन्वेषण में एक मनुष्य समुदाय मिला। जाति विशारद विद्वानों ने उनके शरीर के श्वेत वर्ण के कारण उनका नाम व्हाईट इंडियन रखा और उनकी भाषा का नाम भाषा विशेषज्ञों ने ब्रोन संस्कृत रखा। इस अन्वेषण से यह सिद्ध होता है कि किसी जमाने में संस्कृत भाषा का अखण्ड राज्य था। हम सब बाली द्वीप का नाम जानते हैं। उसकी जनसंख्या लगभग पच्चीस लाख बताई जाती है। बाली द्वीप के लोगों की मातृभाषा संस्कृत है।
इतने सबल प्रमाणों के होते हुए भी अंग्रेजों के मानस पुत्र संस्कृत को मृत भाषा कहने में नहीं चूकते। यह तो किसी को सूर्य के प्रकाश में न दिखाई देने के समान है। इसमें सूर्य का क्या दोष है! यह सरासर अन्याय और संस्कृत भाषा के साथ जानबूझकर खिलवाड़ है। संस्कृत तो स्वयं समर्थ, विपुल साहित्य की वाहिनी, सरस, सरल और अमर भाषा है।
मनुस्मृति जब जर्मनी में पहुँची तो वहॉं के विद्वानों ने इसका और जैमिनी के पूर्व मीमांसा दर्शन का अध्ययन करके कहा- हन्त! यदि ये ग्रन्थ हमें दो वर्ष पूर्व मिल गये होते तो हमें विधान बनाने में इतना श्रम न करना पड़ता। काव्य नाटक आदि के क्षेत्र में कोई भी भाषा संस्कृत की समानता नहीं कर सकती। वाल्मीकि तथा व्यास की बात ही कुछ और है। भवभूति, भास, कालिदास की टक्कर के कवि तो भारत के ही साहित्य में हैं। विश्व के किसी और देश में ऐसे साहित्यकार कहॉं हैं? भाषा का परिष्कार अलंकार शास्त्र से भारत में ही हुआ, अन्यत्र नहीं। अभिघा, लक्षणा, व्यंजना का मार्मिक विवेचन भारतीय मनीषियों की संस्कृत साहित्य में उपलब्धि है।
लॉर्ड मेकॉले ने जब कलकत्ता में एक विद्यालय की स्थापना की तब उसने भारत के सभी भाषा विद्वानों को आमन्त्रित किया एवं उनसे पूछा कि “आप लोगों को शिक्षा किस भाषा में दी जाना चाहिये तब सब विद्वानों ने एकमत से कहा - संस्कृत भाषा में दी जाना चाहिये। परंतु लॉर्ड मेकॉले ने कहा - संस्कृत तो मृत भाषा है उसमें शिक्षा नही दी जा सकती। आप को उन्नति के शिखर पर पहुँचना है तो अंग्रेजी भाषा में शिक्षा ग्रहण करो। आपको ऊंचे पद और नौकरियाँ मिलेगी। इस प्रकार लॉर्ड मेकॉले ने अपनी शिक्षा पद्धति भारतीयों को मानसिक रूप से पूर्ण दास बनाने के लिये प्रारम्भ की और अफ़सोस है उसी का अनुसरण आज तक किया जा रहा है और हम अपनी भाषा, अपनी संस्कृति को भुलाए बैठे हैं।