Tuesday, July 31, 2012

बड़ा फ़र्क है उम्र के बीतने और उम्र को जीतने में !


ज़िन्दगी सचमुच एक पहेली है. जब आप युवा होते हैं तब जो कुछ आप देखते हैं, उस पर यकीन भी करना सीख जाते हैं, किन्तु जब  बुढ़ापा  आता है, तब आप समझ पाते हैं कि पहले जो कुछ देखा और माना था, वह हवा में बने महल या पानी में खींची गयी लकीरों से अधिक और कुछ भी नहीं है. इसके अलावा एक दूसरा चित्र भी संभव है. वह यह कि युवावस्था से ही यदि बढ़ती उम्र के प्रति आप सजग रहें, तब महसूस होगा कि ज़िन्दगी हर मोड़ पर, हर परिवर्तन, हर चुनौती को उसके सही सन्दर्भ में जानने-समझने और देखने का अवसर सुलभ करवा रही है. आपके चेहरे पर आहिस्ता-आहिस्ता सलवटें तो उभरेंगी ज़रूर, परन्तु आपकी आत्मा की ताजगी हमेशा बनी रहेगी.

यहाँ फिर यह सवाल किया जा सकता है कि अगर जोश और जश्न की उम्र में, बढ़ती उम्र का ख्याल न रहा हो, तब ढलती उम्र के प्रहारों का सामना कैसे करें ? ठहरिये, इसका भी हल है कि आप मार्क ट्वेन के इन शब्दों को दिलोदिमाग में बिठा लें कि अगर आप चिंतित हैं कि आप बूढ़े हो गए हैं, केवल तब आप मुश्किल में पड़ेंगे, पर इसके विपरीत आप वृद्धावस्था के मानसिक भार से मुक्त रहते हैं तो उम्र की कोई भी ढलान आपमें थकान पैदा न कर सकेगी.

हमारे बहुतेरे बुज़ुर्ग, अक्सर अपने दौर, अपने ज़माने, बीते हुए दिन या बड़ी मशक्कत के बाद हासिल की गई किसी कामयाबी की कहानी सुनाते थकते नहीं हैं. उन्हें अक्सर अपने 'अनुभव' पर आत्म मुग्ध होकर ये कहते सुना जा सकता है कि  बेटे यह मत भूलो कि हमने धूप में केश सफ़ेद नहीं न किये हैं ! चलिए, मान भी लें कि बढ़ी उम्र के साथ अनुभव भी बढ़ता गया, जानकारी भी बढ़ती गई, भले-बुरे का भेद भी बेहतर समझ में आने लगा. पर क्या इससे यह निष्कर्ष निकाल लेना उचित होगा कि उम्र के साथ चीजों को देखने का नज़रिया भी बदल गया ? उम्र बढ़ी तो परिपक्वता भी बढ़ गयी ? या फिर कुछ ज़्यादा बरस जी लेने से ज़िन्दगी में कुछ ज्यादा खुशियाँ जुड़ गईं ? अगर इस प्रश्नों का उत्तर 'हाँ' है तो कुछ कहने की ज़रुरत ही नहीं है. परन्तु ज़वाब 'नहीं' मिले तो तय मानिये कि उम्र के तज़ुर्बे और तज़ुर्बे की उम्र के बीच अभी बड़ा फासला है।

दरअसल हम बढ़ती उम्र को सम्मान का अनिवार्य अधिकार मान बैठे हैं. जब वह सम्मान न मिले तो शिकायत का सिलसिला शुरू होते देर नहीं लगती कि क्या करें आज की पीढ़ी तो कुछ सुनने या समझने को तैयार ही नहीं है, बुजुर्गों की किसी को कोई परवाह नहीं रह गई, सब अपने में मशगूल हैं वगैरह...वगैरह. परन्तु कभी ये भी तो सोचा जाए कि अब तक क्या जिया, समाज से कितना लिया और  उसे कितना वापस लौटाया ? कितने मित्र बनाए, कितने अपनों को खो दिया ?, कितनी ज़िंदगियों में मुस्कान बिखेरी, कितनों की हँसी छीन ली ? ये कुछ बातें हैं जो दर्पण में अपना अक्स ईमानदारी से देखने आहूत करती हैं कि आप उम्र बीतने और उम्र को जीतने के बीच अंतर की पड़ताल कर सकें संभव है कि समय से उभरे चोट के ऐसे निशान अब भी बाकी हों जो आपको बीती हुई बात को भुला देने से रोकते हों, आपके भीतर एक कभी ख़त्म न होने वाली दर्द भरी दास्तान, आपको हमेशा बेचैन बनाए रखती हो,फिर भी अब्राहम लिंकन के ये शब्द याद रखने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि बुढ़ापे में ये न देखा जाए कि जीवन में कितने बरस जुड़े, बल्कि देखना तो यह चाहिए कि आपने स्वयं उसमें कितने वर्ष जोड़े। यह भी कि उम्र के हर दौर में आपकी ज़िन्दगी आपके चेहरे से बयां हो जाती है. उस पर नाज़ करें न कि उसे झुठलाने की जुगत में आप सिर्फ दूसरों पर नाराज़ होते रहें।

एक और दृष्टिकोण यह भी तो हो सकता है कि आप उम्र खो देने के अफ़सोस से उबरने की हर संभव कोशिश करें और खुशियों के इंतज़ार को नई आरज़ू के उपहार में बदल कर दिखा दें. ऐसे लोग भी हुए हैं जो उम्र जैसी किसी तहकीकात को कभी पसंद नहीं करते. जैसे कि एलिजाबेथ आर्डन के ये शब्द कि "मुझे उम्र में कोई दिलचस्पी नहीं है. जो लोग मुझे अपनी उम्र बताते हैं उनकी नादानी पर मुझे तरस आता है. वास्तव में आप उतने ही बूढ़े हैं, जितने आप खुद को मान बैठे हैं ।"

कुछ बातें हैं जिन्हें बढ़ती उम्र के खाते से बाहर कर देना आसान नहीं है। उदाहरण के लिए शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक परिवर्तन के कारण आप अकेलापन अनुभव करते हों. परिवार का साथ छूट जाने या सहयोग न मिलने या फिर अपनी ही विरासत से हाथ धो बैठने की टीस आपके भीतर हमेशा के लिए घर कर गई हो. पर यदि गहराई में जाएँ तो लगेगा कि जो चीजें आपके हाथ में नहीं हैं, जिन्हें आप न तो बदल सकते हैं, न ही वापस हासिल कर सकते हैं, उनके लिए मन भारी रखना, हर पल 'काश !.... काश !! ऐसा होता' जैसे ख्यालों में डूबे रहना, कोई हल तो नहीं है.

अब वो दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या ये मुमकिन है आप कि आप उसमें अपनी मर्जी के रंग भर सकेंगे ? नहीं न ? तो क्या ये अधिक अच्छा नहीं होगा कि आप हताशा से बचें, बची हुई साँसों को जियें। अपनी सेहत को, उम्र के शेष वर्षों को पूरे धीरज के साथ किसी की अमानत मानकर सहेजकर रखें ?

माना कि उम्र की एक ख़ास दहलीज़ पर समाज में सक्रिय सहभागिता न होने या मानसिक रूप से बदलती परिस्थितियों से ताल-मेल न बिठा पाने के कारण या फिर काम-काज की ज़िन्दगी पर विराम लग जाने की वज़ह से या फिर अपनों के बेगाने-से व्यवहार या उनकी रोजमर्रे की दुत्कार के चलते आप नकारात्मक भावों से ग्रस्त हों, लेकिन यह भी याद रखना अच्छा होगा कि पूरी दुनिया भी अगर ठुकरा दे या दुश्मन बन जाए तब भी यही उम्र परमात्मा से मित्रता करने का, एकाकीपन को भरने का स्वर्णिम काल होता है. यह आपकी आस्था और नज़रिए पर निर्भर है कि आप दुष्कर को सुखकर बना लें. बुढ़ापे को जीना भी एक बड़ी रणनीति की अपेक्षा करता है।

एक समय था कि बच्चे जीवन भर बड़ों के साथ रहते थे. अब वह धारा बदल चुकी है. पहले तीन पीढ़ियाँ एक छत के नीचे रहती थीं. अब 'न्यूक्लियर फेमिली' का ज़माना है. पति-पत्नी दोनों काम पर जा रहे हैं. बच्चे स्कूल में पढ़ते और रहते भी हैं. बड़े-बुजुर्ग, घर पर केवल इंतज़ार में दिन काट रहे हों तो आश्चर्य क्या है ? पहले जीवन धान और धर्म का था, हम और हमारा की भावना सर्वोपरि थी. अब मैं और मेरा का बोलबाला है. समझने की बात ये है कि ऐसे हालात के बीच या इससे अलग और भी परिस्थियाँ हो सकती हैं आप महसूस कर रहे हों कि "तमाम उम्र मैं एक अजनबी के घर में रहा, सफ़र न होते हुए भी किसी सफ़र में रहा"... फिर भी सफ़र तो जारी रहेगा ही. ये सफ़र भी सुहाना हो सकता है...बशर्ते कि आप मानें बुढापा कोई बीमारी नहीं बल्कि एक नया अवसर है।

अंत में बस इतना ही कि -


किसी की चार दिन की ज़िन्दगी में सौ काम होते हैं,

किसी का सौ बरस का जीना भी बेकार होता है।

किसी के एक आँसू पर हजारों दिल तड़पते हैं,

किसी का उम्र भर का रोना भी बेकार होता है।।

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Sunday, July 29, 2012

संबंधों की जड़ता का यथार्थ चित्र है 'कफ़न'




उपन्यास सम्राट के नाम से सुप्रसिद्ध मुंशी प्रेमचन्द उर्दू का संस्कार लेकर हिन्दी में आए और हिन्दी के महान लेखक बने। उन्होंने हिन्दी को अपना खास मुहावरा और खुलापन दिया। कथा लेखन के क्षेत्र में उन्होंने युगान्तरकारी परिवर्तन किए। आम आदमी को उन्होंने अपनी रचनाओं का विषय बनाया और दमन, शोषण और भ्रष्ट चेहरों की गिरफ्त में पिसती उनकी ज़िन्दगी की समस्याओं पर खुलकर कलम चलाते हुए उन्हें समाज के सही नायकों के पद पर आसीन किया।


प्रेमचंद ने साहित्य को कल्पना लोक से सच्चाई के धरातल पर उतारा। वे साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद, पूंजीवाद, सामाजिक विषमता और संवेदना के तिरोभाव  पर आजीवन लिखते रहे। वे आम भारतीय के रचनाकार थे।

 प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक हैं। उन्होंने हिन्दी कहानी में समाज को खोखला करने वाले भ्रष्ट और दोहरे चरित्रों का खुलासा करते हुए ज़मीनी सच्चाई को स्वर देने की एक नई परम्परा शुरू की। आज भी प्रेमचंद के ज़िक्र के बगैर हिन्दी भाषा और  साहित्य की विरासत या भारत के भविष्य का कोई भी विमर्श यदि अधूरा माना जाता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

प्रेमचंद ने लगभग तीन सौ कहानियां लिखकर राष्ट्र भारती के कोष को समृद्ध किया है। उनकी कहानियों में जगह-जगह पर वंचितों के लिए संवेदना और सोये हुए लोगों के लिए झकझोर कर जगा देने वाली भाषा का रूप सहज देखा जा सकता  है। भाषा को संवेदना और संवेदना को भाषा बना देने वाली कला का अनोखा उदाहरण है मुंशी प्रेमचंद की विश्व प्रसिद्द कहानी कफ़न। हिन्दी में इसे प्रगतिशीलता और नई कहानी की ज़मीन पर बार-बार देखने और समझने-समझाने का दौर चला, वह आज भी निरंतर है।

कफ़न में कहानीकार ने तीन दृश्य उपस्थित किये हैं। पहले में घीसू और माधव के आलू खाकर अजगर की तरह पड़  जाने और बुधिया के प्रसव पीड़ा से कराहते रहने का है। दूसरे  में बुधिया की मृत्यु और बाप-बेटे द्वारा कफ़न के लिए पैसे माँग  लाने का है। तीसरा दृश्य कफ़न खरीदते हुए 'दैव कृपा'  से मधुशाला में पहुँचने और नशे में मदमस्त होकर डूब जाने का है।

कहानी के पहले और तीसरे दृश्य में विरोधी रंगों का प्रयोग कर कहानीकार ने जिस तल्ख़ अंदाज़ में व्यंग्य का सहारा लेकर समाज की विसंगत और दोमुंही व्यवस्था का रेशा-रेशा उदघाटन किया है, उससे कफ़न कहानी को बेजोड़ होने का दर्ज़ा स्वाभाविक रूप से मिल गया है।

पहले दृश्य में लेखक ने ठाकुर की बारात का स्मृति-दृश्य उपस्थित  किया है। जीवन की एक मात्र लालसा वह भोजन ही है, किन्तु वास्तविक धरातल पर पिता-पुत्र में चोरी के भुने हुए आलुओं पर टूट पड़ने की प्रतिस्पर्धा है। भूख को बेसब्र कर देने वाला वातावरण स्वादिष्ट भोजन के सौभाग्य की लालसा को चरम तक पहुंचा देता है। यही कारण है कि कहानी के अंत में घीसू और माधव मधुशाला पहुंचकर अपने 'अनपेक्षित सौभाग्य' पर खूब खुश होते हैं और बुधिया की तरफ संकेत कर कहते हैं कि  मरते-मरते हमारी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गई। इस तरह कफ़न कहानी का पहला दृश्य ही कहानी के अंत की आधार  बन जाता है।

विडंबना देखिये कि बाप-बेटे दोनों अपनी ही बहू या पत्नी के मानवीय संबंधों को ताक़  पर रखकर ज़बान जल जाने की परवाह न करते हुए भुने हुए आलू खाने की स्पर्धा में जुटे हैं। यहाँ ठाकुर की बारात  के व्यंजनों की तुलना में घीसू और माधव की भूख को मापा जा सकता है।भूख और पचास पूरी के बीच अंतर समाज की वषमता का ही एक रूप है। इस अंतर को दोनों जैसे एक ही दिन में मिटा देने के लिए टूट पड़ते हैं।

घीसू के लिए ठाकुर का भोज परम मुक्ति का मार्ग है। माधव उसकी प्रत्याशा में बेचैन है। यहाँ मानवीय रिश्ते जड़ हो जाते हैं। आलू खाकर पिता-पुत्र पानी पीते हैं और पाँव पेट में डालकर सो जाते हैं।
उधर बुधिया कराह रही है। पर दोनों बेखर जैसे हैं। भूख के आगे उनकी चेतना जड़ हो गई है। कहानी के आरम्भ में मुंशी जी ने जिस बुझे हुए अलाव का उल्लेख किया है, वह वास्तव में मानवीय संबंधों के बुझते जाने का प्रतीक है .

कहानी के प्रारम्भ में  पाठक का आक्रोश  घीसू और माधव की बेदर्दी पर हो सकता है, पर लेखक की दूरदृष्टि इस आक्रोश को सामाजिक व्यवस्था की कमजोरियों  की तरफ स्थानांतरित कर देती है। घीसू ने भली भांति  जान लिया है की जब सब कुछ झोंक देने का परिणाम भी कुछ नहीं है तो इतनी मेहनत  करने का क्या फायदा ? कहानी के दूसरे  दृश्य में चरित्र के दुहरे रंगों को उजागर किया गया है। घीसू और माधव को संवेदना का मुखौटा पहनाकर कहानीकार ने गहरा व्यंग्य किया है। जीवन भर यह दिल कठोर बना रहता है किन्तु मृत्यु के समय औपचारिक संवेदना व्यक्त कर कर्तव्यों की इति  श्री समझ लेते हैं।

तीसरे दृश्य में बाप-बेटे कफ़न खरीदने बाज़ार जाते हैं। कफ़न पसंद नहीं आता और शाम ढल जाती है। दोनों समाज की व्यवस्था को जली-कटी सुनाते हुए दैवी  प्रेरणा  से मधुशाला पहुँच जाते हैं। उधर लोग बुधिया की मिट्टी को उठाने के लिए बांस-वांस की तैयारी करते हैं और उनके निकटतम जो लोग हैं वे इस वक्त शान से पूरियों पर टूटे हुए हैं। यद्यपि इस हालात में भी उन्हें लोक निंदा का ख़याल आता है पर दोनों दार्शनिकों वाले अंदाज़ में अपने मन को समझा लेते हैं। इस तरह चेतना का अलाव पूरी तरह बुझ जाता है। दोनों गाते हैं, नाचते हैं और मदमस्त होकर गिर पड़ते हैं और मानवीय संबंधों की जड़ता को सामाजिक यथार्थ के स्तर  पर उद्घाटित करने वाली इस कहानी का अंत हो जाता है। व्यवस्था की विषम चट्टान पर मानवीय चेतना खुद पथरा जाती है।

कहानी के अंत में यद्यपि  लगता है कि कोई समाधान नहीं मिलता किन्तु प्रेमचंद जी जैसे कथा लेखक समाधान से अधिक सवाल छोड़ जाने में यकीन करते थे शायद, यही कारण है कि  वे और उनके सवाल आज भी प्रासंगिक हैं. कफ़न... कहानी की शक्ति का परिचायक तो बना ही, वह भविष्य की कहानी का संकेत भी बन गया।

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ज़िन्दगी की मांग बस इतनी !


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बहुत विचित्र है मानव मन. कभी यह मन अपने अदृश्य पंखों से हिमालय की ऊँचाइयों तक पहुँचना चाहता है, कभी उन्हीं पंखों को समेटकर सागर की गहराइयाँ नापना चाहता है. कभी धूमिल अतीत  को याद करता है, तो कभी स्वप्निल भविष्य में खो जाता है हमारा मन.सिर्फ़ वर्तमान को छोड़कर काल के सभी खण्डों में भटकने का आदी हो जाता है मानव मन.

परन्तु, जीवन इतना भोला भी नहीं है की मन की यायावरी के खाते में,मनचाही सारी चीज़ें डाल दे. न ही जीवन इतना क्रूर है कि जो मन आज की सच्चाई को जिए, हक़ीकत के रूबरू हो उसे बरबस बिसार दे. इसलिए स्मरण रखना होगा कि जीवन का एक ही अर्थ है वह जो है आज और अभी. कहीं और नहीं, बस यहीं.

आप इस क्षण में जहाँ हैं, वहाँ जो हैं, जैसे भी हैं, जीवन की संभावना जीवित है. जीवन. वर्तमान का दूसरा नाम है. गहराई में पहुँचकर देखें तो मन के हटते ही जीवन का सूर्य चमक उठता है. इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि मन को लेकर मन भर बोझ लिए चलने वाले के हाथों ज़िन्दगी के संगीत का सितार कभी झंकृत नहीं हो सकता.

जहाँ जीवन है वहाँ यह चंचल मन पल भर भी ठहर नहीं सकता. आप जो घट चुका है,उसमें कण भर भी न तो कुछ घटा सकते हैं और न ही उसमें रत्ती भर कुछ जोड़ना संभव है. दरअसल जो घट चुका वह अब है ही नहीं. और जो अभी घटा ही नहीं है वह भी आपकी पहुँच से बाहर है. फिर वह क्या है जिसे कहीं और खोजने की कोई ज़रुरत नहीं है ?

ज़ाहिर है कि है तो केवल वही जो अभी है, यहीं है. इस क्षण है. वह जो न तो घटा है और न घटेगा बल्कि वह जो घट रहा है. यहाँ अगर थोड़ी सी भी चूक हुई कि आप भटक जायेंगे. क्योंकि हाथों में आया एक पल, पलक झपकते ही फिसल जाता है. वह क्षण जो आपको अनंत के द्वार तक ले जाने की शक्ति रखता है. आपकी ज़रा सी चूक या भूल हुई कि वही क्षण सिमटकर विगत बन जाएगा. फिर वह आपके चेतन का नहीं,, मन का हिस्सा बन जाएगा. मीरा ने यदि कहा है कि 'प्रेम गली अति सांकरी' और जीसस ने भी पुकारा है कि समझो 'द्वार बहुत संकरा है' तो उसके पीछे शास्वत की लय है. अनंत का स्वर है.

जीवन का जो क्षण हाथ में है उसमें जी लेने का सीधा अर्थ है भटकाव की समाप्ति. वहाँ न अतीत का दुःख-द्वंद्व है, न भविष्य की चिंता. यही वह बिंदु है जहाँ आप विचलित हुए कि जीवन आपसे दूर जाने तैयार रहता है. हाथ में आए जीवन के किसी भी क्षण की उपेक्षा, क्षण-क्षण की गयी शास्वत की उपेक्षा है. यह भी याद रखना होगा कि क्षण को नज़रंदाज़ करने पर वही मिल सकता है जो क्षणभंगुर है. वहाँ अनंत या शांत चित्त का आलोक ठहर नहीं सकता.

शायद वर्तमान छोटा होने कारण भी आपके समीप अधिक टिक न पाता हो. क्योंकि बीता हुआ समय बहुत लंबा है और जो आने वाला है उसकी भी सीमा तय करना आसान नहीं है. इसलिए, मन उसके पक्ष में चला जाता है जिसमें ऊपर का विस्तार हो. वह अतीत में जीता है या भविष्य में खो जाता है. सोचता है मन कि अभी तो बरसों जीना है. आज और अभी ऐसी क्या जल्दी है कि बेबस और बेचैन रहा जाए ?

पर भूलना नहीं चाहिए कि अपने वर्तमान को भुलाकर कुछ भी हासिल किया जा सके यह मुमकिन नहीं है. द्वार तक पहुँचकर स्वयं द्वार बंद कर देना समझदारी तो नहीं है न ? अतीत की अति से बचने और भविष्य को भ्रान्ति से बचाने का एक ही उपाय है कि अपने आज का निर्माण किया जाए. जिसने यह कर लिया समझिये वह मन के भरोसे जीने की जगह पर मन को जीतने में सफल हो गया. प्रकृति अभी है, यहीं है. जाने या आने वाले की फ़िक्र नहीं, जो है उसका ज़िक्र ही ज़िन्दगी है... ज़िन्दगी जिसकी मांग बस इतनी है कि आप हर क्षण को सिर आँखों पर बिठाएँ, जीवन का क़र्ज़ चुकाएँ.

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