बिखरते टूटते लम्हों को अपना हमसफ़र जाना
था इस राह में आखिर हमें ख़ुद ही बिखर जाना
हवा के दोश पर बादल के टुकड़े की तरह हम हैं
किसी झोंके से पूछेंगे कि है हमको किधर जाना
मेरे जलते हुए घर की निशानी बस यही होगी
जहाँ इस शहर में तुम रोशनी देखो ठहर जाना
पस-ए-ज़ुल्मत कोई सूरज हमारा मुन्तज़िर होगा
इसी एक वहम को हमने चिराग़-ए-रहगुज़र जाना
दयार-ए-ख़ामोशी से कोई रह-रहकर बुलाता है
हमें मख्मूर एक दिन है इसी आवाज़ पर जाना
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दयार-ए-खामोशी=मौत का घर, दोश=कंधे
पस-ए-ज़ुल्मत=अँधेरे के आगे,
मुन्तज़िर =इंतज़ार करता हुआ
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मख्मूर सईदी की ग़ज़ल साभार प्रस्तुत.
Monday, May 3, 2010
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