डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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राजनांदगांव. 9301054300
भारत न केवल क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृष्टि से विशाल देश हैं अपितु हमें इस बात पर भी गर्व हैं कि हमारे देश में लगभग 1652 विकसित एवं समृद्ध बोलियाँ प्रचलित हैं। इन बोलियों का प्रयोग करने वाले विभिन्न समुदाय अपनी-अपनी बोली को महत्त्वपूर्ण मानने के साथ-साथ उसे बोली के स्थान पर भाषा कह कर पुकारते हैं और समझते हैं कि उनकी बोली में वे सभी गुण विद्यमान हैं जो किसी भी समर्थ भाषा में होने चाहिये। यही बात हमारी छत्तीसगढ़ी के सन्दर्भ में भी सटीक बैठती है. बोलियों की ऎसी विशेषता वाले भारत देश में हिन्दी की अपनी अलग गरिमा और महिमा है. वास्तव में यदि गौर करें तो हिन्दी में देश की आत्मा बोलती है.
सुखद आश्चर्य की बात है देश में सबसे पहले हिंदी में एम.ए.कक्षा के अध्ययन- अध्यापन की व्यवस्था कोलकाता विश्व विद्यालय में हुई,जिसकी स्थापना श्री आशुतोष मुखर्जी ने की थी. देश में सबसे पहले व्यक्ति जिन्होंने हिंदी में एम.ए. की परीक्षा पास की, श्री नलिनी कान्त सान्याल महोदय थे जो बंगाल के थे। हिंदी को बेचारी और असहाय कहने की परम्परा अब टूट चुकी है। हिंदी एक सशक्त भाषा के रूप में उभर कर सामने आई है हिंदी आज भारत की ही नहीं बल्कि विश्व की एक महत्वपूर्ण भाषा के रूप में अपने आपको स्थापित करने में सफल रही है।
जहाँ तक हिंदी में उपलब्ध साहित्य का प्रश्न है, हिंदी का साहित्य किसी भी भाषा के साहित्य की तुलना में कम नहीं है। कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, बिहारी, देव, घनानंद, गुरु गोबिंदसिंह, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रसाद, पन्त, निराला, महादेवी वर्मा, धर्मवीर भारती, मुक्तिबोध, अज्ञेय आदि कवियों की रचनाओं ने यह सिद्ध कर दिया है हिंदी में अपने भावों और विचारों को अभिव्यक्त करने की अद्भुत शक्ति है। आज तो स्थिति यह है की कविता, नाटक, एकांकी, उपन्यास, कहानी, निबंध, आलोचना, जीवनी, डायरी, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि साहित्यिक विधायों के माध्यम से हिंदी भाषा समृद्ध हो चुकी है और हो रही है। इधर अंतरजाल पर हिन्दी की बढ़ती पैठ ने उसकी वैश्विक क्षमता का एक बिलकुल नया परिवेश निर्मित कर दिया है. हिंदी साहित्य को सम्पूर्ण विश्व में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।
अमेरिका के लगभग 100 महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। लगभग सात वर्ष पूर्व अमेरिका सरकार ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ टेक्सस (ऑस्टन नगर) को हिन्दी की शिक्षा को अमेरिका में बढ़ाने के लिये एक विशाल हिन्दी कार्यक्रम के लिये एक बहुत बड़ी राशि का अनुदान दिया। यह हिन्दी उर्दू फ़्लैगशिप नामक कार्यक्रम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडियन स्टडीज़, जो लगभग 60 विश्वविद्यालयों की छात्र-संस्था है, विभिन्न भारतीय भाषाओं के लिये पिछले लगभग 50 वर्षों से अमरीकी विद्यार्थियों के लिये विशेष भाषा-कार्यक्रम भारत में चला रही है।
यूनिकोड नामक एनकोडिंग सिस्टम ने हिंदी को इंग्लिश के समान ही सक्षम बना दिया है और लगभग इसी समय भारतीय बाज़ार में ज़बर्दस्त विस्तार आया है। कंपनियों के व्यापारिक हितों और हिंदी की ताक़त का मेल ऐसे में अपना चमत्कार दिखा रहा है। इसमें कंपनियों का भला है और हिंदी का भी। फिर भी चुनौतियों की कमी नहीं है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में मानकीकरण (स्टैंडर्डाइजेशन) आज भी एक बहुत बड़ी समस्या है। यूनिकोड के ज़रिए हम मानकीकरण की दिशा में एक बहुत बड़ी छलाँग लगा चुके हैं। उसने हमारी बहुत सारी समस्याओं को हल कर दिया है।
भारत का आधिकारिक की-बोर्ड मानक इनस्क्रिप्ट है। यह एक बेहद स्मार्ट किस्म की, अत्यंत सरल और बहुत तेज़ी से टाइप करने वाली की-बोर्ड प्रणाली है। लेकिन मैंने जब पिछली गिनती की थी तो हिंदी में टाइपिंग करने के कोई डेढ़ सौ तरीके, जिन्हें तकनीकी भाषा में की-बोर्ड लेआउट्स कहते हैं, मौजूद थे। फ़ॉटों की असमानता की समस्या का समाधान तो पास दिख रहा है, लेकिन की-बोर्डों की अराजकता का मामला उलझा हुआ है। ट्रांसलिटरेशन जैसी तकनीकों से हम लोगों को हिंदी के क़रीब तो ला रहे हैं, लेकिन की-बोर्ड के मानकीकरण को उतना ही मुश्किल बनाते जा रहे हैं। यूनिकोड को अपनाकर भी हम अर्ध मानकीकरण तक ही पहुँच पाए हैं। हिंदी में आईटी को और गति देने के लिए हिंदी कंप्यूटर टाइपिंग की ट्रेनिंग की ओर भी अब तक ध्यान नहीं दिया गया है।
आज़ादी आई और हमने संविधान बनाने का उपक्रम शुरू किया। संविधान का प्रारूप अंग्रेज़ी में बना, संविधान की बहस अधिकांशतः अंग्रेज़ी में हुई। यहाँ तक कि हिंदी के अधिकांश पक्षधर भी अंग्रेज़ी भाषा में ही बोले। यह बहस 12 सितंबर, 1949 को 4 बजे दोपहर में शुरू हुई और 14 सितंबर, 1949 के दिन समाप्त हुई। प्रारंभ में संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अंग्रेज़ी में ही एक संक्षिप्त भाषण दिया। उन्होंने कहा कि भाषा के विषय में आवेश उत्पन्न करने या भावनाओं को उत्तेजित करने के लिए कोई अपील नहीं होनी चाहिए और भाषा के प्रश्न पर संविधान सभा का विनिश्चय समूचे देश को मान्य होना चाहिए। उन्होंने बताया कि भाषा संबंधी अनुच्छेदों पर लगभग तीन सौ या उससे भी अधिक संशोधन प्रस्तुत हुए।
14 सितंबर की शाम बहस के समापन के बाद जब भाषा संबंधी संविधान का तत्कालीन भाग 14 क और वर्तमान भाग 17, संविधान का भाग बन गया तब डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपने भाषण में बधाई के कुछ शब्द कहे। वे शब्द आज भी प्रतिध्वनित होते हैं। उन्होंने तब कहा था, ''आज पहली ही बार ऐसा संविधान बना है जब कि हमने अपने संविधान में एक भाषा रखी है, जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी।'' उन्होंने कहा, ''इस अपूर्व अध्याय का देश के निर्माण पर बहुत प्रभाव पड़ेगा।'' उन्होंने इस बात पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की कि संविधान सभा ने अत्यधिक बहुमत से भाषा-विषयक प्रावधानों को स्वीकार किया। अपने वक्तव्य के उपसंहार में उन्होंने जो कहा वह अविस्मरणीय है। उन्होंने कहा, ''यह मानसिक दशा का भी प्रश्न है जिसका हमारे समस्त जीवन पर प्रभाव पड़ेगा। हम केंद्र में जिस भाषा का प्रयोग करेंगे उससे हम एक-दूसरे के निकटतर आते जाएँगे। आख़िर अंग्रेज़ी से हम निकटतर आए हैं, क्यों कि वह एक भाषा थी। अंग्रेज़ी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया है। इससे अवश्यमेव हमारे संबंध घनिष्ठतर होंगे, विशेषतः इसलिए कि हमारी परंपराएँ एक ही हैं, हमारी संस्कृति एक ही है और हमारी सभ्यता में सब बातें एक ही हैं। अतएव यदि हम इस सूत्र को स्वीकार नहीं करते तो परिणाम यह होता कि या तो इस देश में बहुत-सी भाषाओं का प्रयोग होता या वे प्रांत पृथक हो जाते जो बाध्य होकर किसी भाषा विशेष को स्वीकार करना नहीं चाहते थे। हमने यथासंभव बुद्धिमानी का कार्य किया है और मुझे हर्ष है, मुझे प्रसन्नता है और मुझे आशा है कि भावी संतति इसके लिए हमारी सराहना करेगी।''
हिंदी के प्रचार-प्रसार में हिंदी सिनेमा का योगदान सबसे अधिक है। फ़िल्म 'शोले' और 'दीवार' के वाक्य कई विज्ञापनों में प्रयोग किए गए। हिंदी फ़िल्मों का तो ब्रिटेन में एक फ़ैशन-सा चल पड़ा है। भारत से तो फ़िल्में इंपोर्ट की ही गई पर ब्रिटेन में भी हिंदी फ़िल्में बनी और दिखाई गई। यद्यपि अधिकांश फ़िल्में सब टाइटल्ड या डब होती हैं फिर भी भाषा और संस्कृति का प्रभाव तो लोगों पर पड़ता ही है। महाभारत और रामायण के विडियो टेप शिक्षित अंग्रेज़ और अधिकांश भारतीयों के घरों में संग्रहीत हैं।
हिंदी के प्रचार एवं प्रसार कार्य में भारत सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों डॉलर व्यय करती रही है अब तक के सारे ही छै सम्मेलनों में भारत सरकार ने करोड़ों डॉलर व्यय किए हैं, तब ही ये विश्व हिंदी सम्मेलन सफल हो सके किंतु इस नई शताब्दी में समय नहीं है कि हम परछिद्रान्वेषण एवं अन्यों की टीका-टिप्पणी करने में अधिक समय नष्ट कर सकें समय आ गया है कि हम सरकार की बैसाखी पकड़कर चलने तथा आलोचना करने के स्थान पर उसकी वरद छत्र-छाया में स्वावलंबी बनकर प्राण-प्रण से हिंदी का प्रचार एवं प्रसार करें हमें समय की पुकार सुनकर जागरूक हो जाना चाहिए और हिंदी के वर्तमान को सुधार कर सुरक्षित स्वर्णिम भविष्य की नींव डालना चाहिए हमें इन देशों की स्वतः चरमराती हुई जाति-पाति, प्रांत तथा प्रांतीय मातृभाषा की सीमाओं से बाहर निकलकर भारतीय संस्कृति की संवाहिका भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी को समुचित स्थान एवं सम्मान देना चाहिए.
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