Wednesday, April 21, 2010

आइए! धरती बचाएँ....

बड़ी-बड़ी बातों से
नहीं बचेगी धरती
वह बचेगी
छोटी-छोटी कोशिशों से
हम
नहीं फेकें कचरा
इधर-उधर
स्वच्छ रहेगी धरती
हम
नहीं खोदें गड्ढा
स्वस्थ रहेगी धरती
हम
नहीं होने दें उत्सर्जित
विषैली गैसें
प्रदूषण मुक्त रहेगी धरती
हम
नहीं काटें जंगल
पानीदार रहेगी धरती
धरती को पानीदार बनाएँ
आइए! धरती बचाएँ।
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विश्व पृथ्वी दिवस पर...
अजहर हाशमी की रचना
'नई दुनिया' से साभार प्रस्तुत.

Saturday, April 17, 2010

है जान वहीं अफ़साने में...!

चर्चा है दो ही बातों का, मेरी उम्र के सारे फ़साने में
कुछ दिन तेरी राहों में गुजरे, कुछ बीत गए मयखाने में
दुखड़ों का ज़िक्र बयां ग़म का, दिलचस्प है यूं तो किस्सा मेरा
आया है जब भी नाम तेरा, है जान वहीं अफ़साने में।
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नसीम नारवी के अशआर साभार.

हम पृथ्वी के नमक नहीं....!

हम पृथ्वी के नमक नहीं
इंसानियत के खमीर हैं
हमारी हथेलियों पर
भाग्य की रेखाएँ नहीं
अभिशाप के नक़्शे हैं
हमारे ह्रदय
हमारे मस्तिष्क का अस्तित्व नहीं
हम
केवल रस ग्रंथियों के समूह नहीं हैं।
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गुरुदेव कश्यप की रचना साभार प्रस्तुत.

Wednesday, April 14, 2010

बस एक काम यही.....!

बस एक काम यही बार-बार करता था
भंवर के बीच से दरिया को पार करता था
उसी की पीठ पर उभरे निशान ज़ख्मों के
जो हर लड़ाई में पीछे से वार करता था
अजीब शख्स था ख़ुद अलविदा कहा, लेकिन
हरेक शाम मेरा इंतज़ार करता था
हवा ने छीन लिया अब जो धूप का जादू
नहीं तो पेड़ भी पत्तों से प्यार करता था
सुना है वक़्त ने उसको बना दिया पत्थर
जो रोज़ वक़्त को भी संगसार करता था
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माधव कौशिक की ग़ज़ल साभार प्रस्तुत.

Sunday, April 11, 2010

प्रतिज्ञा हूँ मैं.....!

समय की वर्तुल अंगूठी से पृथक
एक विस्तृत प्रतिज्ञा हूँ मैं

ओ, परित्यक्ता पृथ्वी
भविष्य की कोख में
मैं ही भरत हूँ सुबकियाँ लेता

मेरी ही नसों में
अतीत की
सम्पूर्ण विस्मृत असंपादित
प्रतिज्ञाओं का
लहू उफनता है।
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गुरुदेव कश्यप की रचना साभार.

Thursday, April 8, 2010

रंग......बकलम इमरोज़

काले रंग को

कोई भी रंग

नहीं रंगता

काली सोच को भी

ज़िंदगी का कोई रंग

नहीं रंगता।
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साभार प्रस्तुत

Wednesday, April 7, 2010

मेरी पसंद....इमरोज़

जीने लगो तो करना

फूल

ज़िन्दगी के हवाले।

जाने लगो तो करना

बीज

धरती के हवाले।
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साभार प्रस्तुत...



Monday, April 5, 2010

समय और समझ...!

समय है
लोग हैं
चीजें हैं
नहीं है तो
समय की
लोगों की
चीजों की समझ

हवा है
पृथ्वी है
जल है
नहीं है तो
हवा को
पृथ्वी को
जल को
सहेज कर रखने की
समझ

समय रहते जरूरी है
सबकी परख
और
सहेजकर रखने की जिद.....!
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हृदयेश मयंक की रचना साभार प्रस्तुत.

Saturday, April 3, 2010

बहती रहे नदी.....!

पेड़ों को
सींचते रहना
पानी से
ताकि बची रहे
हरियाली
धरती की।

चिड़ियों को
डालते रहना दाना
ताकि बचा रहे
संगीत
हवाओं में।

ह्रदय में
उगने देना
छंद करुणा के
ताकि बची रहे
नमी
तुम्हारी आँखों की।

शिशुओं को
सुनाते रहना लोरी
ताकि बचे रहें
ख़्वाब आँखों के पन्नों पर।

भूखे को
खिलाते रहना रोटी
ताकि बना रहे
सामंजस्य
भूख और रोटी के बीच।

प्यासों को
पिलाते रहना पानी
ताकि बहती रहे
नदी
तुम्हारे भीतर की।

और तभी तो
बची रहेगी कविता
सबके जीवन में।
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डॉ.पुष्पारानी गर्ग की रचना साभार प्रस्तुत.