Sunday, August 19, 2018

आज़ादी के ये संकल्प कि बात बन जाए !

डॉ. चन्द्रकुमार जैन 



क्यों न हम इस आजाद भारत को 
और बेहतर बनाने के लिए 
छोटी छोटी बातों को 
अपने जीवन में अमल लाएं 
और इस भारत भूमि को 
स्वर्ग से भी सुंदर बनायें 
 

चलिए इस आजादी के पर्व पर हम सभी प्रण लेते हैं कि हम सभी वो सभी कार्य करेंगे जिससे हमारा देश भारत पूरे विश्व में ज्यादा महान बने और हम भारतीयों की तरफ से इस आजादी के पर्व के जरिये पूरे विश्व को नया जीवन जीने का एक नया संदेश मिले।बड़ी-बड़ी बातों और बड़े-बड़े वादों के बदले हम छोटी-छोटी कोशिशें अपने स्तर पर कर सकें तो फ़िज़ा बदलते देर न लगेगी। 

कुछ सुझाव और सन्देश यहाँ साझा कर लें कि हम वास्तव में आज़ाद होने का परिचय दे सकें और आज़ादी के सही हकदार बन सकें -


हम स्वच्छता बनाये रखेंगे 
स्वच्छ रहेंगे। 
स्वच्छ भारत बनाएँगे। 


कूड़ा करकट इधर-उधर नही फेंकेंगे।  
निश्चित तय स्थान पर ही कचरा फेंकेंगे। 
स्वच्छता मित्रों का सम्मान करेंगे, उन्हें सहयोग देंगे। 


धरती की हरियाली बचाये रखेंगे। 
अपने आस-पास पेड़-पौधे लगाएंगे। 
और लोगों को भी जगायेंगे। 
धरती माता का कर्ज़ चुकाएंगे। 


देश की धड़कन रेलवे को 
यात्रियों की अधिक सुविधा के काबिल 
और उनके ज्यादा भरोसे के साथ 
उनके दिलों की धड़कन भी बनाएंगे। 


टालमटोल की आदत अगर हो तो छोड़ कर दिखाएंगे। 


किसी को बेवजह परेशान नहीं करेंगे । न ही बेवजह परेशान होंगे। 

 
किसी गरीब या ज़रूरतमंद का अनादर नहीं करेंगे  । 
और ना ही उसके हाल पर कभी हँसेगे। 


कठिन काम भी सरल रहकर करने की आदत विकसित करेंगे। 
और जो सरल हैं उनकी राह कठिन बनाने की कुचेष्टा नहीं करेंगे। 


सकरात्मक सोच के साथ ऊर्जावान माहौल बनाएँगे। 


किसी की आंख के आंसू का कारण नहीं बनेंगे । 
किसी की खुशी से मायूस नहीं होंगे। 

किसी के पाँव का कांटा भले ही न निकाल सकें,
किसी की राह की बाधा कतई नहीं बनेंगे। 


काम कितना कठिन ही क्यों न हो कभी हार नहीं मानेंगे। 
कोशिश ही हमारा लक्ष्य होगा। 

बूढ़े माता-पिता, बुजुर्गों का सम्मान करेंगे। 


अक्सर हम खुद को हर हाल में सही साबित करने के लिए 
गलत को भी सही करना चाहते हैं। 
हम इस बार स्वतंत्रता दिवस पर संकल्प करें 
कि ऐसा करने से बचेंगे। 


हम विश्व गुरू भारत की दुनिया का सिरमौर बनाने की 
हर कोशिश में अपने स्तर पर सहभागी बनेंगे। 

हार को जीत में और गीत में बदलने की कला सीखेंगे। 

हमारी खुशी और हमरे इत्मीनान के लिए बड़े और कड़े जोखिम उठाने वाले और 
देश की सीमा की रक्षा करने वाले सैनिकों और जांबाजों पर गर्व करेंगे। 

राष्ट्र प्रथम की उच्च भावना के साथ सच्चे भारतीय होने का परिचय देंगे। 
और विश्व मंगल की कामना के साथ विश्व के भी नागरिक होने का प्रमाण देंगे। 
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MO.9301054300

Sunday, August 5, 2018

आबाद रहेगा बाबू जी के 
अक्षर-संसार का 'सबेरा'

डॉ. चन्द्रकुमार जैन 

पत्रकारिता एक कला है। वह जनता को सत्यम, शिवम् ,सुंदरम की ओर प्रेरित करती है। पत्रकारिता समाज का प्रतिबिम्ब ही नहीं, जैसा कि साहित्य को माना गया है, बल्कि वह समाज की प्रतिकृति है। इस कसौटी पर यदि देखें तो स्मृतिशेष बाबू जी ( श्री शरद कोठरी जी ) पत्रकारिता के अक्षय-वैभव के प्रतिमान और पत्र-जगत की विशिष्ट पहचान भी थे। बाबू जी ने पत्रकारिता और साहित्य के अंतरजगत की पीठिका पर लेखनी के तेज और प्रताप का संसार रचा। वे साहित्य अनुरागी चिंतक, सम्पादक और पत्रकार थे। 

अंग्रेजी के भी निष्णात विद्वान होने के बावजूद बाबू जी ने आजीवन हिंदी भाषा को अपनी लेखनी के दम पर अधिक रुचिकर और समाजोपयोगी बनाने का सारस्वत अनुष्ठान किया। पत्रकारीय सामर्थ्य से समृद्ध अक्षर संसार का 'सबेरा' पाठकों और  शब्द साधकों को सौंपकर वे इस जीवन के पार चले गए। किन्तु, मेरा अडिग विश्वास है कि उनका यशः शरीर, आज प्रायः पूरी तरह से व्यावसायिक रंग में ढलने को आतुर शब्द-संसार में भी पत्रकारिता की मानवीय प्रवृत्ति को बचाये रखने की प्रेरणा देता रहेगा। 

लगभग चार दशक से सबेरा संकेत परिवार से किसी न किसी रूप में जुड़े होने के नाते मैं पूरी विनम्रता के साथ कहना चाहता हूँ कि बाबू जी को अपनी कलम की ताकत पर जितना भरोसा था, उसके प्रभाव को लेकर भी वे उतने ही आश्वस्त रहते थे। उनके यहाँ जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव, संकल्प और सपनों को अभिव्यक्त करने के लिए, लेखन सर्वश्रेष्ठ माध्यम था। पर बकौल बाबू जी,वह लेखन ऐसा हो जो पाठक को कुछ नया सोचने, नए कोण से चीज़ों और मुद्दों को समझने की दिशा बताए। तभी उसकी सार्थकता होगी। वे कहते थे कलम का काम पाठक को आतंकित करना नहीं, आश्वस्त करना है। 

अपने दिग्विजय महाविद्यालय में विभागीय आयोजनों, जन-जीवन के शताधिक विविध प्रसंगों और मुक्तिबोध स्मारक की स्थापना के काल-खंड में कई ऐसे मौकों का मैं गवाह हूँ जब उन्होंने बार-बार कहा कि साहित्य के हर विद्यार्थी को प्रतिदिन डायरी लिखना चाहिए। कलमकारों के सीधे संपर्क में रहना चाहिए। नोट्स लेने की आदत डालना चाहिए। अपने भीतर बहुरंगी मानव समाज को गहराई से समझने की विवशता पैदा करनी चाहिए। और फिर वे स्पष्ट करते कि इन गुणों के बगैर अच्छा लेखक या पत्रकार बनना संभव नहीं है। संचार-विचार के आज के तेज रफ़्तार दौर में भी मैं सोचता हूँ कि ये विचार कितने उपयोगी हैं  ! नए कलमकारों को इस पर ध्यान देना चाहिए। 

बाबू की अपनी लेखनी से जनमानस में छाए रहे और पत्रकारिता के तो 'लीजेंड' ही बन गए। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आज भी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कई वरिष्ठ पत्रकार बाबू जी को अपना गुरु मानते हैं। अंत में बंगला के एक गीत की दो पंक्तियाँ - 

लक्ष प्राणेक दुःख यदि वक्षे तोर बाजे।
मूर्त करे तोल रे नारे, सकल काज माझे।।

अर्थात यदि लाखों प्राणों की पीड़ा तेरे ह्रदय में प्रतिध्वनित होती है तो इस का मूर्त प्रमाण अपने कार्यों से दे। ... और बाबू जी, अपने अंदाज़ में ऐसा प्रमाण दे गए हैं। उनका अक्षर व्यक्तित्व प्रेरणा का अक्षय स्रोत बना रहेगा। 
सत्य की खोज है मुक्तिबोध की डायरी

डॉ. चन्द्रकुमार जैन 

दुनिया भर में मशहूर गजानन माधव मुक्तिबोध कवि मात्र नहीं, मुखर समीक्षक, मर्मभेदी कहानीकार और बीसवीं सदी के प्रखर बौद्धिक व्यक्तित्व थे, जिनके मानसिक संगठन और अंतहीन उधेड़बुन को समझना अब भी शेष है। सब जानते हैं कि मुक्तिबोध की डायरी का अपना अलग अंदाज़ और वार्तालाप की शैली में अपने विचारों की परतें अनावृत्त करने का उनका अपना मिज़ाज़ था। उसी डायरी पर रस्तोगी जी के नज़रिए पर एक नज़र -

गजानन माधव मुक्तिबोध को न साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और न ही ज्ञानपीठ पुरस्कार। जो मुक्तिबोध उत्तर शती के हिन्दी संसार में चर्चा के केंद्र में हैं, यह एक कटु सत्य है कि जीते जी उनका एक भी कविता-संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ था। यह तो 1980 में उनका संपूर्ण साहित्य ‘मुक्तिबोध रचनावली’ के रूप में छह खंडों में प्रकाशित हुआ है। मुक्तिबोध जितने बड़े कवि हैं, उतने ही बड़े आलोचक, कथाकार और उपन्यासकार भी हैं। उनका समग्र कृतित्व हमारे समय की अनुपम धरोहर इसलिए है क्योंकि उसमें हमारे समय का जीवंत इतिहास दर्ज है।

मुक्तिबोध की आलोचना की कोई परम्परा नहीं है। उन्हें उस समय हिन्दी आलोचना के जो मॉडल सुलभ थे, वे उस राह के अनुगामी नहीं बने। इसलिए उन्होंने अपनी आलोचना के लिए बिल्कुल एक नया मुहावरा गढ़ा। खासतौर से ‘एक साहित्यिक की डायरी’ (साहित्यालोचना) की तो दूसरी मिसाल अभी तक भी हिन्दी आलोचना में उपलब्ध नहीं है। इसकी वजह यह है जिसकी ओर श्री अदीब ने इशारा किया है, ‘मुक्तिबोध की डायरी उस सत्य की खोज है जिसके आलोक में वे अपने अनुभव को सार्वभौमिक अर्थ देते हैं।’ (एक साहित्यिक की डायरी, फ्लैप पर छपी टिप्पणी)।

‘एक साहित्यिक की डायरी’ के प्रकाशन का भी एक दिलचस्प इतिहास है। इसके पहले संस्करण की पांडुलिपि मार्च, 1964 में मुक्तिबोध ने भोपाल में श्रीकांत वर्मा को सौंपी थी और वह जिस रूप में चाहते थे, उसी रूप में वह छपी भी।ये सारी डायरियां जबलपुर में प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘वसुधा’ में, ’57, ’58 और ’60 में प्रकाशित हुई थीं। इस कृति के स्थापत्य और इतिहास के बारे में श्रीकांत वर्मा से ही जानें। वास्तविकता यह है कि ‘एक साहित्यिक की डायरी’ केवल उस स्तंभ का नाम था जिसके अंतर्गत समय-समय पर मुक्तिबोध को अनेक प्रश्नों पर विचार करने की छूट न केवल सम्पादक की ओर से, बल्कि स्वयं अपनी ओर से भी होती थी।’ (फ्लैप पर छपी टिप्पणी)। वास्तव में यह सभी निबंध ‘काव्य’ या ‘साहित्य’ के सत्यान्वेषण के रूप में सामने आये हैं। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में संगृहीत निबंधों की मार्फत मुक्तिबोध ने आधुनिक सृजन समीक्षा को नये प्रतिमान दिये हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस संग्रह के सभी निबंध साहित्यालोचना की कलात्मक प्रौढ़ता के निकट हैं।

गजानन माधव मुक्तिबाेध की कालजयी कृति ‘एक साहित्यिक की डायरी में’ 13 निबंध संगृहीत हैं जो इस प्रकार से हैं—‘तीसरा क्षण’, ‘एक लंबी कविता का अंत’, ‘डबरे पर सूरज का बिम्ब’, ‘हाशिये पर कुछ नोट्स’, ‘सड़क को लेकर एक बातचीत’, ‘एक मित्र की पत्नी का प्रश्न-चिन्ह, नये की जन्म-कुण्डली : एक’, ‘नये की जन्म-कुण्डली : दो’, ‘वीरकर’, ‘विशिष्ट और अद्वितीय’, ‘कुटुयान और काव्य सत्य’, ‘कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी : एक’, व ‘कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी : दो’। साहित्यालोचना पर केंद्रित इन निबंधों में वे चीजों को वैसे ही मार्क्सवादी तरीके से पड़तालते हैं, जैसे मुक्तिबोध अपनी कविता में चीजों को देखते हैं। इन निबंधों की अनेक अर्थछवियां हैं, अनन्त व्यंजनागत अर्थ हैं, लेकिन वे सभी उनके जीवन के अनुभवों की धूप में से छन कर सामने आए हैं। मुक्तिबोध के अनुसार कला के तीन क्षण हैं। उनसे ही जानें वे तीन क्षण कौन से हैं—‘कला का पहला क्षण है जीवन का तीव्र उत्कट अनुभव। दूसरा क्षण है इस अनुभव का अपने कसकते-दुखते हुए मूलों से पृथक हो जाना और एक ऐसी फैंटेसी का रूप धारण कर लेना मानो वह फैंटेसी अपनी आंखों के सामने ही खड़ी हो। तीसरा और अंतिम क्षण है इस फैंटेसी के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णावस्था तक की गतिमानता। …फैंटेसी अनुभव की कन्या है और उस कन्या का अपना स्वतंत्र विकास-मान व्यक्तित्व है। वह अनुभव से प्रसूत है इसलिए वह उससे स्वतंत्र है।’ (तीसरा क्षण, पृ. 20-21)।

मुक्तिबोध ने सातवें दशक के शुरुआती वर्ष में साहित्यकार की ईमानदारी पर जो सवाल उठाया था, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है, ‘आज के साहित्यकार का आयुष्य क्रम क्या है? विद्यार्जन, डिग्री और इसी बीच साहित्यिक प्रयास, विवाह, घर, सोफासेट, एरिस्ट्रोक्रैटिक लिविंग, गहनों से व्यक्तिगत संपर्क, श्रेष्ठ प्रकाशकों द्वारा अपनी पुस्तकों का प्रकाशन, सरकारी पुरस्कार… और चालीसवें वर्ष के आसपास अमेरिका या रूस जाने की तैयारी, किसी व्यक्ति या संस्था की सहायता से अपनी कृतियों का अंग्रेजी या रूसी में अनुवाद, किसी बड़े भारी सेठ के यहां या सरकार के यहां ऊंचे किस्म की नौकरी। अब मुझे बताइए यह वर्ग क्या तो यथार्थवाद प्रस्तुत करेगा और क्या आदर्शवाद।’ (पृ. 34, एक लंबी कविता का अंत)। यहीं मुक्तिबोध छोटी कविता में मन न रमने का कारण भी बताते हैं देखें, ‘यथार्थ के तत्व परस्पर गुम्फित होते हैं, साथ ही पूरा यथार्थ गतिशील होता है। अभिव्यक्ति का विषय बनकर जो यथार्थ प्रस्तुत होता है वह भी ऐसा ही गतिशील है और उसके तत्व भी परस्पर गुम्फित हैं। यही कारण है कि मैं छोटी कविताएं लिख नहीं पाता और जो छोटी होती हैं वे वस्तुत: छोटी न होकर अधूरी होती है।’ (पृष्ठ 30)। साहित्यालोचना का असल कार्य क्या है यह भी जानें, ‘आलोचना करते वक्त हम गलतियों के लिए कम से कम पच्चीस-तीस प्रतिशत हाशिया छोड़ दें तो बहुतेरे के हृदय-दाह समाप्त हो जायें और हार्दिक तथा वैचारिक आदान-प्रदान अधिक सुगम या सहज हों।’ (हाशिए पर कुछ नोट्स, पृ. 50)।

मुक्तिबोध ने कलाकार की ईमानदारी का प्रश्न बार-बार उठाया है। उनसे ही जानें कि काव्य रचना का सच्चा नेपथ्य है क्या, भले ही काव्य-रचना हाथ में कलम लेकर टेबल पर की जाती रही हो, किन्तु रचना की सच्ची मनो भूमिका काव्य रचना के क्षणों के बाहर निरंतर तैयार होती रहती है। (कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी : दो, पृ. 118)।
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चार में अहिंसा,विचार में अनेकांत और जीवन में अपरिग्रह की महिमा  
 डॉ.चन्द्रकुमार जैन 


सत्य के सदन में अहिंसा के अवतरण का नाम है तीर्थकर महावीर स्वामी। अचौर्य के आचरण और अपरिग्रह के अनुकरण का नाम है महावीर स्वामी। अनेकान्तवाद के आकाश में उत्सर्ग की उड़ान का नाम है महावीर स्वामी। अवैर की अभिव्यक्ति और क्षमा की शक्ति का नाम है महावीर स्वामी। सहिष्णुता की सात्विकता और संयम के सामर्थ्य का नाम है महावीर स्वामी। सद्भाव से सरोकार और समता के सूत्रधार का नाम है महावीर स्वामी।

जैनधर्म के इस युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ ऋषभदेव के पौत्र मारीचि से लेकर अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के भव तक की जीवन यात्रा किसी आत्मा के संसार परिभ्रमण की तथा उससे मुक्ति की अनोखी कथा है। अन्तिम भव में वैशाली गणतन्त्र के कुण्डग्राम में राजा सिद्धार्थ और महारानी त्रिशला के घर में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन बालक वर्धमान के रूप में उस पवित्र आत्मा ने जन्म लिया। जैसा कि सभी तीर्थंकरों के जीवन में होता है उनके भी गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष कल्याणक, देवों व मानवों के द्वारा अति उत्साह व भक्ति से मनाये गये। 

सभी जानते हैं कि 30 वर्ष की आयु में वर्धमान महावीर ने राजपाट त्याग कर श्रमण साधना का मार्ग अपना लिया। 12 वर्ष तक मौन तपस्या के बाद 42 वर्ष की आयु में उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और इस प्रकार वे अपने सम्पूर्ण विकारों से मुक्त हो कर कर अर्हन्त परमात्मा बन गये। उनके उपदेशों का क्रम उसके बाद अनवरत 30 वर्ष तक चलता रहा और कार्तिक कृष्ण अमावस्या के दिन की प्रात: बेला में उन्होंने संसार चक्र से मुक्ति प्राप्त की और सिद्ध हो गये। 

भगवान महावीर का यह जीवन और उनकी शिक्षाएं अत्यन्त प्रेरणादायक और सर्व कल्याण कारी हैं, सर्वोदयी हैं। उनके अनुपालन से न केवल जीवों का मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है वरन् सामान्य लोक जीवन भी सुन्दर हो जाता है। उनके उपदेशों में अहिंसा,अनेकान्त और अपरिग्रह की विशेष चर्चा की जाती है। परन्तु उनके उपदेशों का जो सबसे सघन पक्ष है वह है प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति व सामर्थ्य की घोषणा। प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्रता की उद्घोषणा और इस विश्वास की स्थापना कि मनुष्य जन्म से नहीं, कर्म से महान बनता है। 

आचार में अहिंसा, विचारों में अनेकांत, वाणी में स्याद्वाद और जीवन में अपरिग्रह महावीर के मूल सन्देश हैं। सामान्यतः कहा जाता है हिंसा का न होना अहिंसा है। परन्तु जैन दर्शन में अहिंसा रूप बहुत विस्तृत है। निश्चय से आत्मा में राग-द्वेष की उत्पत्ति न होना ही अहिंसा है। और व्यवहार से मन-वचन-काय से अनुमोदना किसी भी रूप में किसी भी जीव को पीड़ा या दुख न पहुँचाना अहिंसा है। वहाँ केवल पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा की बात नहीं कही वरन् सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव की रक्षा का भी उपदेश दिया। 

सुबह से शाम तक होने वाली क्रियाओं में हिंसा, अभक्ष्य भक्षण में हिंसा, अनछने जल के उपयोग में हिंसा - यदि आज हम इन हिंसाओं से बचे हैं तो वो अहिंसा का सिद्धांत ही है जिसने जीव मात्र के प्रति दया का भाव सिखाया। भगवान महावीर ने न केवल आचार में अहिंसा की बात कही बल्कि भावों में भी अहिंसा का प्रतिपादन किया। आचार में और भावों में अहिंसा का प्रवर्तन होने से मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है।

प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक है। एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मों या शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकांत है। अर्थात् जो वस्तु एक है वही अनेक भी है, जो नित्य है वही अनित्य भी है, जो सत् है वही असत् भी है।अनेकांत के बिना वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती। जब हम वस्तु के एक धर्म को स्वीकार करते है, तो विवाद खड़ा होता है। कैसे ? यदि हम वस्तु को हमेशा सत् रूप से मानेगें तो उसका कभी विनाश नहीं होगा, और असत् रूप में मानेगें तो उसका कभी जन्म नहीं होगा। जैसे दीपक बुझने के बाद भी नष्ट नहीं होता बल्कि अंधकार रूप पर्याय को धारण करते हुये अपना अस्तित्व रखता है। यदि नष्ट हो जाता तो पुनः प्रकाश कैसे होता ? ऐसे ही परस्पर विरुद्ध दोनों धर्मों का कथन करना ही अनेकांत है। यदि हमारे विचारों में अनेकांत होगा तो वस्तु का सत्य स्वरूप समझने में आसानी होगी।

अनेकांतमयी वस्तु को कथन करने की पद्धति का नाम स्याद्वाद है। किसी भी एक शब्द या वाक्य के द्वारा वस्तु का समग्र कथन करना संभव नहीं है, प्रयोजन की मुख्यता से अन्य धर्मों को गौण करते हुये एक धर्म का कथन करना स्याद्वाद है। वस्तु के अन्य धर्मों का निषेध न हो जाये इसलिये अनेकांत वादी स्यात् यानि कथंचित् शब्द का प्रयोग करते हैं। जैसे वस्तु कथंचित् सत् और कथंचित् असत्, कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य है। जैसे द्रव्य रूप से वस्तु नित्य है और पर्याय रूप से अनित्य । वाणी में स्याद्वाद होने से कभी कोई विवाद खड़ा नहीं होगा। 

ये मेरा है, ऐसा भाव परिग्रह है, और ऐसा भाव न होना ही अपरिग्रह है। परिग्रह 24 प्रकार के हैं। चौदह अंतरंग और दस बहिरंग परिग्रह बताये गए हैं। जैन दर्शन में अंतरंग परिग्रह के त्याग को ही श्रेष्ठ माना गया है। अंतरंग परिग्रह के त्याग बिना बाह्य परिग्रह के त्याग का कोई मूल्य नहीं है।
जीवन में अपरिग्रह का होना बहुत जरूरी है। क्यों कि व्यक्ति की इच्छायें असीम व अनंत है, उन पर नियंत्रण रखने के लिये और शांति पूर्वक जीवन जीने के लिये अपरिग्रह का होना अति अावश्यक है।

जिस प्रकार खान से निकले हुये कोयले से आवृत्त हीरे में बाहर से काला दिखने पर भी आन्तरिक सौंदर्य एवं चमक पूरी की पूरी विद्यमान होती है। जरूरत केवल बाहृय कालिमा को हटाने की है। सर्वांगसुन्दर हीरा अपने दैदीप्यमान रूप में स्वत: ही प्रगट हो जाता है। खान से निकली पत्थर की शिला में प्रतिमा छिपी होती है जिसे पारखी व कुशल कारीगर पहचान लेता है और बाहरी आवरण -अतिरिक्त पत्थर हटा देने पर वह सर्वांगसुन्दर प्रतिमा प्रगट हो जाती है जो प्रतिष्ठित होने पर जगत पूज्य बन जाती है। भगवान महावीर कहते हैं कि इसी प्रकार हीरे के पत्थर में हीरा तथा पत्थर की शिला में देव प्रतिमा स्वाभाविक रूप से ही विद्यमान है, उसी प्रकार इस आत्मा में भी परमात्मा विद्यमान रहते हैं। विकारों को हटाकर परमात्म स्वरूप का दर्शन किया जा सकता है। 

हमारी अभी के दौर में आर्थिक शब्दावली कुछ ज्यादा ही चलन में है, लिहाजा जीवन मूल्यों को भी आयात-निर्यात की नजर से देखा जाने लगा है। लेकिन भारत ने अपने मूल्य न तो अभी तक किसी पर थोपे हैं, न ही उनका निर्यात किया है। इनमें से जो भी दुनिया को अपने काम का लगता है, उसे वह ग्रहण करती है, ठीक वैसे ही, जैसे अन्य समाजों से हम ग्रहण करते हैं। जिस दौर में दुनिया अहिंसा को एक भारतीय मूल्य के रूप में अनुकरणीय मानती थी, भारत की धरती पर उस दौर में संसार का सबसे बड़ा साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन अहिंसा के सिद्धांत पर ही संचालित हो रहा था।

दूसरों को दुख देना या दूसरों के अधिकार छीनना ही हिंसा है, यह कौन समझेगा। दूसरों के अधिकार छीनना हमें ही दुख पहुंचाएगा, जब तक हम यह नहीं समझेंगे तब तक न्याय नहीं कर सकते। महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में ग्राम स्वतंत्रता की बात की थी और कहा था कि बगैर उसके समानता नहीं आ सकती। आज दुनिया के अनेक देशों में स्वायत्तता निचली इकाइयों तक पहुंची हुई है, लेकिन हमारे देश में जब तक हम इस बारे में मूल रूप से सोचना शुरू नहीं करेंगे, तब तक देश में हिंसा होती रहेगी। हमें दूसरों के दुख के बारे में सोचना होगा। श्री दलाई लामा ने ठीक ही कहा है कि हमारे पास आयात करने के लिए तो बहुत कुछ है, लेकिन निर्यात करने के लिए अहिंसा के अलावा कुछ नहीं। लेकिन सबसे बड़ी शर्त यह हो कि जो निर्यात करते हैं, उसे अपने लिए भी तो उपयोगी मानें। महावीर की अहिंसा को जीवन की मूलधारा से जोड़ें। सर्वपल्ली डॉ.राधाकृष्णन ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि यदि संसार को तबाही से बचाना है और कल्याण के मार्ग पर चलाना है तो भगवान महावीर के अहिंसा के महान सन्देश और उनके बताये हुए रास्ते को ग्रहण किये बिना और कोई रास्ता नहीं है।

मानवीय सभ्यता और संस्कृति का उच्चतम बिंदु है अहिंसा। हिंसा जीवन यात्रा के साथ जुड़ी हुई है पर वह जीवन के विकास का अंग नहीं है। मनुष्य चिंतनशील प्राणी है, इसलिए वह हर क्षेत्र में विकास की यात्रा करता है। सामाजिक स्तर पर भी अहिंसा एक विचार है। अध्यात्म के स्तर पर वह सर्वोच्च विकास है। समाज की आचार-संहिता अहिंसा के बिना पल्लवित नहीं हो सकती। अध्यात्म की आचार-संहिता उसके बिना बन नहीं सकती। अध्यात्म का पहला बिंदु अहिंसा है और चरम बिंदु भी अहिंसा है। वर्तमान युग में हिंसा बढ़ रही है। अपरिमित आण्विक अस्त्रों से भय का वातावरण निर्मित हो रहा है। हिंसक प्रशिक्षण के कारण आतंकवाद, उग्रवाद और नक्सलवाद के साये में अशांति पनप रही है। इस स्थिति में महावीर की अहिंसा, अभय, अनेकांत के विषय में चिंतन करना, सही और स्थायी समाधान खोजना समय की सबसे बड़ी मांग है। 

आज हाईटेक युग में व्यक्ति लोभ, हिंसा, परिग्रह, तनाव, विषमता, भ्रष्टाचार, दहेज, कन्या भू्रण हत्या आदि शारीरिक पीड़ाओं और सामाजिक समस्याओं से ग्रस्त और त्रस्त है। इन तमाम समस्याओं के समाधान में भगवान महावीर के अनेकान्त दर्शन की महती भूमिका है। जहाँ अनेक अंत अर्थात् धर्म, विशेष, गुण और पर्याय पाये जाते हैं, उसे अनेकांत कहते हैं। 

जन साधारण को जीव हिंसा से बचाने के लिए महावीर ने अहिंसा का उपदेश दिया और वैचारिक मतभेदों, उलझानों, झगड़ों आदि से बचने के लिए, शांति की स्थापना के लिए अनेकान्तवाद का सिद्धान्त दिया। अनेकांत भारत की अहिंसा का चरम उत्कर्ष है। इसे संसार जितना अधिक अपनाएगा , विश्व शान्ति उतनी ही जल्दी संभव है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानने की सही दृष्टि ही अनेकान्त है। चिंतन की अहिंसामयी प्रक्रिया का नाम अनेकांत है और चिंतन की अभिव्यक्ति की शैली या कथन स्याद्वाद है। अनेकांत एक वस्तु में परस्पर विरोधी और अविरोधी धर्मों का विधाता है। अनेकान्तवाद हमारी बुद्धि को वस्तु के समस्त आयामों की ओर समग्र रूप से खींचता है।

अनेकांत दृष्टि का अर्थ है - प्रत्येक वस्तु में सामान्य रूप से, विशेष रूप से, प्रिय और अप्रिय की दृष्टि से, नित्यत्व की अपेक्षा से, अनित्य की अपेक्षा से सद्रूप से और असद्रूप से अनंत धर्म होते हैं। समाज में विभिन्नता एवं साम्प्रदायिकता का विवाद भी अनेकांत से मिटाया जा सकता है। जब एकांगी दृष्टिकोण विवाद और आग्रह से मुक्त होंगे तभी भिन्नता में समन्वय के सूत्र परिलक्षित हो सकेगें। महावीर का अनेकांत हमें अनेकता में एकता के विधान का सम्मान करने की सीख देता है। 

यदि गहराई में जा कर देखें तो भगवान् महावीर का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त अनेकान्तवाद और स्यादवाद है। महावीर ने कहा है कि सभी मत और सिद्धान्त पूर्ण सत्य या पूर्ण असत्य नहीं हैं। सापेक्ष दृष्टि से विचार करने पर सभी दृष्टिकोण सत्य ही प्रतीत होते हैं। इसलिए, अपने-अपने मत या सिद्धान्त पर अड़े रहने से संघर्ष बढ़ता है। आज जो वर्ग-संघर्ष, अशान्ति और शस्त्रों का अन्धानुकरण बढ़ रहा है, उसे रोकने में अनेकान्त की दृष्टि, सहअस्तित्व की भावना महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। 

समाज में एक ही प्रकार की जीवन प्रणाली, एक ही प्रकार के आचार-विचार की साधना न तो व्यवहार्य है और न संभव ही। वैचारिक सहिष्णुता के लिए अनेकान्तवाद के अवलम्बन की आवश्यकता है। सच्चा अनेकांतवादी किसी भी समाज या व्यक्ति के द्वेष नहीं करता। मानव की यह विचित्र मनोवृति हैं कि वह समझता है कि जो वह कहता है वही सत्य है और जो वह जानता है वही ज्ञान है क्योंकि इसके भीतर अहंकार छिपा हुआ है। अनेकान्तवाद से यही संकेत किया जाता है कि आचार के लिए और विचार के लिए सद्विचार, सहिष्णुता एवं सत्प्रवृति का सहयोग आवश्यक है। पर-पक्ष को सुनो उसकी बातों में भी सत्य समाया हुआ है। अनेकान्तवाद सिर्फ विचार नहीं है आचार-व्यवहार भी है जो अहिंसा, अपरिग्रह के रूप में विकसित हुआ है। इस प्रकार अनेकान्तवाद जीवन की जटिल समस्याओं के समाधान का मूल मंत्र है। यह सह अस्तित्व, वसुधैव कुटुम्बकम, जीओ और जीने दो की भावना का विकास करता है जिससे मानवीय गुणों की वृद्धि होती है. जीवन का सम्पूर्ण विकास इसी से संभव है। 

अगर गौर करें तो अनेकता और एकता का सामंजस्य किये बिना लोकतंत्र की प्रतिमा प्रतिष्ठित नहीं हो सकती। इस सामंजस्य की प्रणाली का दार्शनिक आधार है अनेकांत। अनेकांत की चार प्रमुख दृष्टियाँ हैं - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। किसी भी वास्तु का मूल्यांकन द्रव्य सापेक्ष, क्षेत्र सापेक्ष, काल सापेक्ष और भाव सापेक्ष होना चाहिए। निरपेक्ष मूल्यांकन उलझनें पैदा करता है। आर्थिक विकास के लिए शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शान्ति, भावनात्मक संतुलन पर्यावरण संरक्षण गौण हो जाएँ तो इसे अर्थनीति की विडम्बना ही कहा जाएगा। इसका समाधान भी महावीर के अनेकांत में निहित है। 

भगवान महावीर का संदेश प्राणी मात्र के कल्‍याण के लिए है। उन्‍होंने मनुय-मनुष्‍य के बीच भेदभाव की सभी दीवारों को ध्‍वस्‍त किया। उन्होंने कहा इस विश्‍व में न कोई प्राणी बड़ा है और न कोई छोटा। उन्होंने गुण-कर्म के आधार पर मनुष्‍य के महत्‍व का प्रतिपादन किया। ऊँच-नीच, उन्‍नत-अवनत, छोटे-बड़े सभी अपने कर्मों से बनते हैं। सभी समान हैं। न कोई छोटा, न कोई बड़ा। भगवान की दृष्‍टि समभावी थी - सर्वत्र समता-भाव। वे सम्‍पूर्ण विश्‍व को समभाव से देखने वाले साधक थे, समता का आचरण करने वाले साधक थे। उनका प्रतिमान था - जो व्‍यक्‍ति अपने संस्‍कारों का निर्माण करता है, वही साधना का अधिकारी है।

महावीर की साधना विश्व शान्ति की प्रयोगभूमि है। महावीर ने कहा था - 'अप्पणा सच्च मेसेज्जां मेत्ति भूएसु कप्पए', स्वयं सत्य को खोजें एवं सबके साथ मैत्री करें। महावीर ने कहा था, जीओ और जीने दो। इस प्रकार महावीर के संदेशों की आज भी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी उस समय थी। आवश्कता सिर्फ उन्हें गहराई से समझकर अपनाने की है। उनकी वाणी ने प्राणी मात्र के जीवन में मंगल प्रभात का उदय किया। अब यह हम सबकी जिम्मेदारी है कि उस वाणी के तेज और आलोक को हम सर्वव्यापी, सर्वहितकारी, सर्वमंगलकारी बनाएं। 

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राजनांदगांव,छत्तीसगढ़
मो.9301054300

स्मरण अंतस्तल से 
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श्रेयांस  : जीवंत रहेंगी अदम्य लगन की अनंत यादें 

डॉ. चन्द्रकुमार जैन 

प्रभावित होना और प्रभावित करना जीवंतता का लक्षण है । कुछ लोग हैं जो प्रभावित होने को दुर्बलता मानते हैं । मैं इससे सहमत नहीं हूँ क्योंकि जो सहज से, सुंदर से, शालीन से, साधारण में छुपे निश्छल और निर्दम्भ असाधारण से प्रभावित नहीं होते, उन्हें संवेदनहीन कहना उचित है । जो जाग रहा है, वह जगत के भाव-प्रभाव से आदान-प्रदान का संबंध बनाकर ही जीवन-पथ पर आगे बढ़ता है । यही कारण है कि जिस व्यक्ति के स्वभाव और व्यवहार से अंतर समृद्ध हुआ हो, उसे बार-बार मन याद करता है । जब कभी कोई रिक्तता सताती हो, तब ऐसे व्यक्ति की यादें भी संबल व ताज़गी दे जाती हैं । 

सितारों के घराने से बहुत कम समय में ऊपर उठने वाले सूरज की तरह ऐसे ही युवा व्यक्तित्व श्रेयांस कोठारी की यादें भी गहन पीड़ा के बावजूद ऐसी मनः स्थिति को अभिव्यक्त करने का बल प्रदान कर रही हैं । सबेरा संकेत के अक्षर-पुरुष और पितामह श्री शरद कोठारी जी के पौत्र और संपादक भैया सुशील कोठारी जी और ज्योति भाभी के सुपुत्र, सी.ए. श्रीमती निकिता के जीवन साथी और मात्र डेढ़ वर्ष के नन्हें लाड़ले श्रेणिक के पिता श्रेयांस ने युवावस्था में ही 17 मई, गुरूवार को हृदय गति रुक जाने से फ़ानी दुनिया को अलविदा कह दिया । लोग मानने तैयार नहीं थे।  सब उदास, अनमने और जड़वत हो गए थे । अवसन्न हो कर बस यही कहते  रह गए सब कि वक़्त से पहले ये कैसा वक़्त देखने की मज़बूरी आन पड़ी ! 

स्नेह वत्सला दादी माँ शीला जी कोठारी, बड़े पिता शैलेन्द्र जी कोठारी, बड़ी माँ उर्मिला जी, चाचा सुभाष जी कोठारी, चाची मधुजी, बुआ सुनीता, फूफा जी डॉ. अजय जी भंडारी सहित कोठारी और रायसोनी परिवार के अलावा असंख्य स्वजन-परिजन-आत्मीय जन निःशब्द हो गए । भ्राता शाश्वत, शिशिर, श्रीकांत कोठारी, भाभी,बहुएँ, बहनें रश्मि-नीलेश जी पारख, प्रीति-प्रसन्न जी छाजेड़, श्रुति-प्रखर जी गोलछा इस कल्पनातीत घटना से सुध-बुध खो बैठे । उधर लोगों की गहरी खामोशी, भीतर तक विदीर्ण कर देने वाली स्मृतियाँ एकबारगी लगा जैसे निष्पंद हवाओं को भी कहीं से ये संदेश लेकर आने को पुकारने लगीं कि जाओ और जा कर सभी दिशाओं को कह दो कि ये ख़बर गलत है । ऐसा नहीं हुआ। कोई बताये तो सही हम सफ़र के आगाज़ में ही अंज़ाम पर यक़ीन करें तो कैसे ?
बहरहाल, सच यही है कि श्रेयांस देहातीत हो गया है लेकिन दर्द और फर्ज़ का रिश्ता निभाने वाला लाड़ला श्रेयांस अपनी आत्मिक उपस्थिति के साथ समयातीत ही रहेगा ।
 
श्रद्धेय बाबू जी और नए दौर में नए अंदाज़ में आदरणीय सुशील भैया की बहुआयामी उपलब्धियों और व्यापक सरोकारों के सतत गर्व-बोध के वातावरण पले-बढ़े श्रेयांस का अवसान, कोठारी परिवार मात्र नहीं, संस्कारधानी के एक उत्साही व सेवाभावी नौजवान और होनहार चार्टर्ड अकाउंटेंट का दर्दभरा बिछोह है। वह अब स्मरण को पाथेय बनाने के लिए पुकार रहा है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है ।

गौरतलब है कि समाज के कार्यों के प्रति एकनिष्ठ, मित्रों के बीच सहज रूप से प्रिय और घर-आंगन में हमेशा बाल-सुलभ चंचलता के साथ अपनी प्रियकर उपस्थिति दर्ज़ करते रहे श्रेयांस का जन्म 24 नवंबर 1986 को राजनांदगांव में हुआ था । शहर के वाइडनर मेमोरियल स्कूल, युगांतर पब्लिक स्कूल से बारहवीं तक शिक्षा ग्रहण कर वह पुणे चला गया । वहाँ के नामी कालेज सिम्बियासिस से एम.कॉम करने के बाद चार्टर्ड अकाउंटेंट की कठिन परीक्षा कम समय में उत्तीर्ण कर अपनी लगन और परिश्रम को प्रमाणित कर दिखाया । मुम्बई के जाने-माने सी.ए. बंशीलाल गोलछा के समीप रहकर अपनी उपाधि को व्यवहारिक धार दी । साथ ही दिसा में कामयाबी हासिल कर बतौर सी.ए. अपनी सेवाओं को पंख दिए । 

बहुत तेजी से आगे बढ़ने और काफी ऊंचाई तक पहुंचने की असीम संभावनाओं के मद्देनजर श्रेयांस को महानगरों और बड़े शहरों से प्रैक्टिस के लिए अनेक ऑफर मिले किन्तु जन्म स्थल और संस्कारधानी से अटूट जुड़ाव के चलते श्रेयांस ने कोठारी जैन एन्ड कंपनी सी.ए. फर्म के माध्यम से अपनी व्यावसायिक यात्रा की पहचान बनायी । स्मरणीय है कि 25 जनवरी 2014 को श्रेयांस का विवाह दुर्ग के प्रतिष्ठित रायसोनी परिवार के श्री किशोर जी रायसोनी की लाड़ली बिटिया निकिता के साथ हुआ था । उधर रचनात्मक और सामाजिक-सांस्कृतिक प्रसंगों में भी श्रेयांस और जीवन संगिनी निकिता दोनों कदम से कदम मिलाकर वक्तृत्व कला, एंकरिंग और गायन में भी अपनी बहुप्रशंसित प्रतिभा का परिचय देते हुए आगे बढ़ रहे थे । पति-पत्नी, मन और मंच दोनों की एकता के अनोखे उदाहरण बन गए थे । युगांतर स्कूल में पढ़ाई से लेकर तेरापंथ युवक परिषद के सचिव और उससे भी आगे सी.ए. एसोसिएशन में भी दोनों ने अपनी प्रभावी मौजूदगी दर्ज़ की। लेकिन,नियति की निष्ठुरता के आगे श्रेयांस की साँसों से तनिक भी छोटा सौदा मुमकिन न हुआ, गोया कि किसी की नज़र लग गई कि 30-32 की दरम्यानी उम्र में भला कोई दंपत्ती इतनी नेमतें कैसे बटोर सकता है ? 

बता दें कि हाल ही चार्टर्ड अकाउंटेंट्स के, डॉ. रमन सिंह जी के मुख्य आतिथ्य में हुए यादगार सम्मेलन में भी श्रेयांस की प्रभावी आवाज़ गूंजी थी।मित्रों के बीच चहेते, परिवार में सबके दिलों पर राज़ करने वाले गौरवर्ण, आकर्षक डीलडौल के मनमोहक व्यक्तित्व श्रेयांस की एक-एक गतिविधि और हरेक हलचल को याद कर आँसुओं का सैलाब उमड़ रहा हो तो वह स्वाभाविक है । खैर, अब क्या कहें, ऊपर वाले को जो मंजूर था, उसके सामने कुछ भी कहना नामुनासिब है, पर इतना तो तय है कि श्रेयांस के बेवक्त जुदा होने से घर-परिवार ही नहीं शहर भी गमगीन हो गया है ।

अंत में, श्रेयांस तुम्हारे लिए बस इतना ही कि तुम्हारे चले जाने के बाद भी तुम्हारी सरल मुस्कान हमारे पास प्रार्थना की पवित्रता के साथ तुम्हारी अदम्य उपस्थिति का एहसास ज़िंदा रखेगी। छंद की तरह गूंजता रहेगा तुम्हारा भोलापन। और बहुत दूर चले जाने के बावजूद अब तुम हम सब के और ज्यादा पास रहोगे। तुम्हारी याद में कई युवाओं की ज़िंदगी रौशन हो ऎसी दुआ और कोशिश भी हम करेंगे। पर, एक बार यह भी बता कर जाते कि तुम्हारे जैसा चाहने वाला साफ़ दिल हम कहाँ से लाएंगे ? घर में सब बताते हैं कि तुम्हें दरवाज़े तक छोड़ने जाने पर भी बीच में लौट जाते थे सब कि तुम्हें जाते हुए कैसे देखें ? लेकिन, ये क्या, अब तुम्हारे कभी लौट कर न आने पर सब खुद-ब-खुद छूटे हुए और टूटे हुए महसूस कर रहे हैं। तुम्हारे घर की देहरी अब तक सब्र कर रही है कि दरवाज़े पर दस्तक देकर कोई कह दे जाने वाला कोई और था, तुम नहीं ! तुम नहीं !
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