रहने दो
गज भर जमीन
रहने दो
माटी के घेरे
रहने दो
खुले सपने
थोड़े तेरे-थोड़े मेरे
मत बांधो-सौंधी महक
मत बांधो
पगडंडी के घेरे
कहाँ मिलेगा-
फिर खुला दालान
अतृप्त नयन
पायेंगे कहाँ
खुला आसमान
मतवाली बारिश
किन प्रेमी युगलों का
करायेगी स्नान
यौवन की धड़कन
कहाँ दौड़ पायेगी
विश्राम
उड़ते पक्षी थके-हारे
कहाँ पाएंगे अपने निशान
छोड़ दो थोड़ी जमीन
मत बनाओ
गावों को अपना निशान
हरियाली में सजी
वसुंधरा का
मत करो चिर विराम
मत बसाओ शहर को गाँवों में
बसने दो उसे अपनी अस्मिता की
सुदृढ़ बाहों में.....!
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डॉ.नलिनी पुरोहित की कविता साभार प्रस्तुत
Friday, January 29, 2010
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