Monday, September 29, 2008
जीवन का नर्तन हो...!
इस तरह रचो यह जीवन
कि संगीत सहज सब मन भावन हो
इस तरह जियो यह जीवन
कि हर पल,हर क्षण नित ही पावन हो
टूटी-बिखरी बातों से बोलो
बात बनेगी कैसे प्यारे
इस तरह रहो जीवन में
कि जीवन में जीवन का नर्तन हो।
========================
कि संगीत सहज सब मन भावन हो
इस तरह जियो यह जीवन
कि हर पल,हर क्षण नित ही पावन हो
टूटी-बिखरी बातों से बोलो
बात बनेगी कैसे प्यारे
इस तरह रहो जीवन में
कि जीवन में जीवन का नर्तन हो।
========================
Wednesday, September 24, 2008
मंगलेश डबराल / अकेला आदमी
कविता में जीवन के ताप और
विकल मन की वेदना को
मर्मस्पर्शी दृश्य-चित्रों के ज़रिये
सम्पूर्ण अर्थगांभीर्य के साथ वाणी देने वाले
श्री मंगलेश डबराल की यह कविता
ह्रदय के अतल को छू गई।
========================
आप भी पढ़िये -
अकेला आदमी
===========
अकेला छोड़ दो मुझे
हर बार अकेला आदमी चिल्लाता है
एक गहरी रात में
संसार को अपने रक्त में अस्त होते देखता
अकेला आदमी बुदबुदाता है अपनी आख़िरी थकान
अपनी छत पर अपने क्रोध में टहलते हुए
हाँफते पैंट कसते बार-बार गले से
एक अश्लील घरघराहट सुनते हुए अकेला आदमी हो चुका है
बिना कुछ किए-धरे होते रहने से परेशान
एक गहरी रात में जब चीजें
ठीक उस ज़गह चली जाती हैं जहाँ से
उनका जन्म हुआ था
अकेला आदमी ठंडे बिस्तरे से
उठकर रोने लगता है
क्या करुँ कहाँ जाऊँ किस रास्ते पर
किस दोस्त के यहाँ क्या कहूँ
कूच करने से पहले सारा कुछ कह दूँगा एक बार
अकेला आदमी सीडियाँ उतरकर
बाहर आता है हवा में आते-जाते मौसमों में
बदबूदार गलियों और झील जैसी शामों में
बच्चों में जो देखते ही देखते क्रूर हो जायेंगे
आकाश के नीचे अपने अकेले बिस्तर को
याद करता हुआ अकेला आदमी
टहलता है सुनसान में सड़कों पर
मृत्यु की तरह व्याप्त प्रकाश में अपने अंधकार को
छाते की तरह ताने हुए अकेला आदमी
गुज़रता है चीजों के बीच से।
==============================
विकल मन की वेदना को
मर्मस्पर्शी दृश्य-चित्रों के ज़रिये
सम्पूर्ण अर्थगांभीर्य के साथ वाणी देने वाले
श्री मंगलेश डबराल की यह कविता
ह्रदय के अतल को छू गई।
========================
आप भी पढ़िये -
अकेला आदमी
===========
अकेला छोड़ दो मुझे
हर बार अकेला आदमी चिल्लाता है
एक गहरी रात में
संसार को अपने रक्त में अस्त होते देखता
अकेला आदमी बुदबुदाता है अपनी आख़िरी थकान
अपनी छत पर अपने क्रोध में टहलते हुए
हाँफते पैंट कसते बार-बार गले से
एक अश्लील घरघराहट सुनते हुए अकेला आदमी हो चुका है
बिना कुछ किए-धरे होते रहने से परेशान
एक गहरी रात में जब चीजें
ठीक उस ज़गह चली जाती हैं जहाँ से
उनका जन्म हुआ था
अकेला आदमी ठंडे बिस्तरे से
उठकर रोने लगता है
क्या करुँ कहाँ जाऊँ किस रास्ते पर
किस दोस्त के यहाँ क्या कहूँ
कूच करने से पहले सारा कुछ कह दूँगा एक बार
अकेला आदमी सीडियाँ उतरकर
बाहर आता है हवा में आते-जाते मौसमों में
बदबूदार गलियों और झील जैसी शामों में
बच्चों में जो देखते ही देखते क्रूर हो जायेंगे
आकाश के नीचे अपने अकेले बिस्तर को
याद करता हुआ अकेला आदमी
टहलता है सुनसान में सड़कों पर
मृत्यु की तरह व्याप्त प्रकाश में अपने अंधकार को
छाते की तरह ताने हुए अकेला आदमी
गुज़रता है चीजों के बीच से।
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Tuesday, September 23, 2008
लीलाधर मंडलोई / दो कविताएँ
श्री लीलाधर मंडलोई की कविताएँ
समय और संसार से संघर्ष के बीच
काव्य-नागरिकता के लिए
भाषा के माध्यम से मनुष्य को रचने का
साक्ष्य प्रस्तुत करती दीखती हैं।
हालात के मद्देनज़र भी मुझे श्री मंडलोई की
यहाँ प्रस्तुत कविताएँ प्रासंगिक प्रतीत होती हैं।
पढ़िए उनकी दो रचनाएँ -
युद्ध से बची
========
जो विकल हैं पल-प्रतिपल
कि बचा रहे पेड़ों में रस
नदियों में जल
और सूरज में ताप
कि बचा रहे तितलियों में रंग
पंछियों में कलरव
और बच्चों में गान
कि बचा रहे पृथ्वी का स्वप्न
सृष्टि का संगीत
और दुनिया का वारिस
युद्ध से बची इस पृथ्वी को मैं सौंपता हूँ
मरा नहीं जिनका यह दिवा स्वप्न।
नागरिक कितना अकेला
=================
इबादतगाहों से उतरती हैं काली छायाएँ और
भरने लगा है धुएँ और आग के बवंडर से सकल व्योम
दुधमुहें बच्चों को रौंदता हुआ गुज़रता है कोई हिंसक लठैत
और सनाके से भरी दुनिया दुबक जाती है घरों में
कम है धरती उनके दुखों की
झोंक दिए गए हैं जो इस नामुराद ज़ंग में
मैं नागरिक कितना अकेला इबादतगाह से बाहर।
=====================================
समय और संसार से संघर्ष के बीच
काव्य-नागरिकता के लिए
भाषा के माध्यम से मनुष्य को रचने का
साक्ष्य प्रस्तुत करती दीखती हैं।
हालात के मद्देनज़र भी मुझे श्री मंडलोई की
यहाँ प्रस्तुत कविताएँ प्रासंगिक प्रतीत होती हैं।
पढ़िए उनकी दो रचनाएँ -
युद्ध से बची
========
जो विकल हैं पल-प्रतिपल
कि बचा रहे पेड़ों में रस
नदियों में जल
और सूरज में ताप
कि बचा रहे तितलियों में रंग
पंछियों में कलरव
और बच्चों में गान
कि बचा रहे पृथ्वी का स्वप्न
सृष्टि का संगीत
और दुनिया का वारिस
युद्ध से बची इस पृथ्वी को मैं सौंपता हूँ
मरा नहीं जिनका यह दिवा स्वप्न।
नागरिक कितना अकेला
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इबादतगाहों से उतरती हैं काली छायाएँ और
भरने लगा है धुएँ और आग के बवंडर से सकल व्योम
दुधमुहें बच्चों को रौंदता हुआ गुज़रता है कोई हिंसक लठैत
और सनाके से भरी दुनिया दुबक जाती है घरों में
कम है धरती उनके दुखों की
झोंक दिए गए हैं जो इस नामुराद ज़ंग में
मैं नागरिक कितना अकेला इबादतगाह से बाहर।
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Sunday, September 21, 2008
विनोद कुमार शुक्ल / मंगलू तुम्हारा मंगल हो !
श्री विनोद कुमार शुक्ल मानवीय अस्मिता
और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति अत्यन्त
सजग सर्जक हैं। प्रकृति उनकी रचनाओं में
संवेदनशीलता के उपादान लेकर प्रस्तुत होती है।
स्वयं से कट कर और भटक कर मनुष्य
जिस अंधेरे से विदग्ध है, उसकी शांत-सहज
अभिव्यक्ति श्री शुक्ल की अन्यतम विशेषता है।
===============================
पढ़िये शुक्ल जी की
एक प्रसिद्ध कविता
=============
मंगल ग्रह इस समय पृथ्वी के बहुत पास आ गया है
वहाँ किसी जीव के न होने का सन्नाटा
अब पृथ्वी के बहुत समीप है
कि पृथ्वी के पड़ोस में कोई नहीं
समय पड़ने पर पृथ्वी का कौन साथ देगा
पृथ्वी के सुख दुःख
उसके नष्ट होने
और समृद्ध होने का कौन साक्षी होगा
सुनो मेरे पड़ोसी
सबके अड़ोसी पड़ोसी
और पड़ोस के बच्चे
जो एक दूसरे की छतों में
कूदकर आते जाते हैं
मंगल ग्रह इस समय पृथ्वी के बहुत समीप है -
पृथ्वी के बच्चे कूदो
तुम्हारा मंगल हो
वायु, जल, नभ
धरती, समुद्र, तुम्हारा मंगल हो
मंगलू ! तुम्हारा मंगल हो
पृथ्वी से दूर अमंगल, मंगल हो।
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और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति अत्यन्त
सजग सर्जक हैं। प्रकृति उनकी रचनाओं में
संवेदनशीलता के उपादान लेकर प्रस्तुत होती है।
स्वयं से कट कर और भटक कर मनुष्य
जिस अंधेरे से विदग्ध है, उसकी शांत-सहज
अभिव्यक्ति श्री शुक्ल की अन्यतम विशेषता है।
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पढ़िये शुक्ल जी की
एक प्रसिद्ध कविता
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मंगल ग्रह इस समय पृथ्वी के बहुत पास आ गया है
वहाँ किसी जीव के न होने का सन्नाटा
अब पृथ्वी के बहुत समीप है
कि पृथ्वी के पड़ोस में कोई नहीं
समय पड़ने पर पृथ्वी का कौन साथ देगा
पृथ्वी के सुख दुःख
उसके नष्ट होने
और समृद्ध होने का कौन साक्षी होगा
सुनो मेरे पड़ोसी
सबके अड़ोसी पड़ोसी
और पड़ोस के बच्चे
जो एक दूसरे की छतों में
कूदकर आते जाते हैं
मंगल ग्रह इस समय पृथ्वी के बहुत समीप है -
पृथ्वी के बच्चे कूदो
तुम्हारा मंगल हो
वायु, जल, नभ
धरती, समुद्र, तुम्हारा मंगल हो
मंगलू ! तुम्हारा मंगल हो
पृथ्वी से दूर अमंगल, मंगल हो।
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केदारनाथ सिंह / मैं लिखना चाहता हूँ.
आम आदमी की संवेदना और सपनों को
प्रकट करने वाली रचनाओं के सर्जक
श्री केदारनाथ सिंह समकालीन हिन्दी संसार में
जीवनानुभव को काव्यानुभव में
परिवर्तित कर देने वाले
लोक-राग के विशिष्ट कवि हैं।
पढ़िए केदार जी की दो कविताएँ -
======================
हाथ
===
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए।
मुक्ति
====
मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला
मैं लिखने बैठ गया हूँ
मैं लिखना चाहता हूँ 'पेड़'
यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है
मैं लिखना चाहता हूँ 'पानी'
'आदमी' 'आदमी' मैं - लिखना चाहता हूँ
एक बच्चे का हाथ
एक स्त्री का चेहरा
मैं पूरी ताक़त के साथ
शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ़
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है।
यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूँ।
==============================
प्रकट करने वाली रचनाओं के सर्जक
श्री केदारनाथ सिंह समकालीन हिन्दी संसार में
जीवनानुभव को काव्यानुभव में
परिवर्तित कर देने वाले
लोक-राग के विशिष्ट कवि हैं।
पढ़िए केदार जी की दो कविताएँ -
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हाथ
===
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए।
मुक्ति
====
मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला
मैं लिखने बैठ गया हूँ
मैं लिखना चाहता हूँ 'पेड़'
यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है
मैं लिखना चाहता हूँ 'पानी'
'आदमी' 'आदमी' मैं - लिखना चाहता हूँ
एक बच्चे का हाथ
एक स्त्री का चेहरा
मैं पूरी ताक़त के साथ
शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ़
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है।
यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूँ।
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Friday, September 19, 2008
परिवर्तन देखा है...!
मैंने अकस्मात जीवन में यह परिवर्तन देखा है।
प्रातः चंद्र अस्त हो जाना
रश्मि-प्रभाकर का छा जाना
कलियों का दम भर मुस्काना
सूर्य-तेज से मुरझा जाना
निशा निमंत्रण भी देखा और संध्या-वंदन देखा है।
शीतल समीर का बहते जाना
क्षण भर हँसना, मन भर गाना
कभी आँधियों का उठ जाना
सुख, दुःख में परिणत हो जाना
नियति नटी का सच कहता हूँ मैंने नर्तन देखा है।
मोह-मूढ़ यह तन जीता है
खोकर सुध-बुध मन जीता है
अमित लालसा ले अमृत की
पथ में प्रति पल विष पीता है
व्यर्थ सुखों के बीच विफलता का अभिनंदन देखा है।
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प्रातः चंद्र अस्त हो जाना
रश्मि-प्रभाकर का छा जाना
कलियों का दम भर मुस्काना
सूर्य-तेज से मुरझा जाना
निशा निमंत्रण भी देखा और संध्या-वंदन देखा है।
शीतल समीर का बहते जाना
क्षण भर हँसना, मन भर गाना
कभी आँधियों का उठ जाना
सुख, दुःख में परिणत हो जाना
नियति नटी का सच कहता हूँ मैंने नर्तन देखा है।
मोह-मूढ़ यह तन जीता है
खोकर सुध-बुध मन जीता है
अमित लालसा ले अमृत की
पथ में प्रति पल विष पीता है
व्यर्थ सुखों के बीच विफलता का अभिनंदन देखा है।
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Wednesday, September 17, 2008
ज़िंदगी है काग़जों के घर-सी...!
उठ रही है आस्था की अर्थी
वो मना रहे हैं आज बरसी
पुल बना दिया गया नदी पर
बूँद के लिए नदी है तरसी
नीर भरी कल्पना-बदरिया
विवश हुई 'औ' जहाँ भी बरसी
उग गए वादों के चंद पौधे
चाह लगी धरती की पर-सी
जंगलों में थीं मिलीं जो किरणें
छुप गईं देखो कहीं लहर-सी
गज़ब है ये दौर देखिए तो
ज़िंदगी है काग़जों के घर-सी
===================
वो मना रहे हैं आज बरसी
पुल बना दिया गया नदी पर
बूँद के लिए नदी है तरसी
नीर भरी कल्पना-बदरिया
विवश हुई 'औ' जहाँ भी बरसी
उग गए वादों के चंद पौधे
चाह लगी धरती की पर-सी
जंगलों में थीं मिलीं जो किरणें
छुप गईं देखो कहीं लहर-सी
गज़ब है ये दौर देखिए तो
ज़िंदगी है काग़जों के घर-सी
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ज़ुदा क़तरा देखिए बेबात है...!
ये महज़ उत्तेजना की बात है
लोग कहते हैं अंधेरी रात है
तमन्ना-ए-रोशनी हम क्या करें
अंधेरों की हर तरफ़ ज़मात है
कागजों में बोलता निर्माण है
फाइलों में व्यवस्था की बात है
जाने दरिया आज क्यों मगरूर है
ज़ुदा क़तरा देखिए बेबात है
बन रहे हैं महल ख़्वाबों के कई
हकीक़त में सिर्फ़ वह ज़ज्बात है
आँसुओं की धार बहने जब लगी
लोग कह बैठे कि यह बरसात है
======================
लोग कहते हैं अंधेरी रात है
तमन्ना-ए-रोशनी हम क्या करें
अंधेरों की हर तरफ़ ज़मात है
कागजों में बोलता निर्माण है
फाइलों में व्यवस्था की बात है
जाने दरिया आज क्यों मगरूर है
ज़ुदा क़तरा देखिए बेबात है
बन रहे हैं महल ख़्वाबों के कई
हकीक़त में सिर्फ़ वह ज़ज्बात है
आँसुओं की धार बहने जब लगी
लोग कह बैठे कि यह बरसात है
======================
Tuesday, September 16, 2008
हो मानवता का राज...!
कभी न हो आतंक कहीं,
हो मानवता का राज !
प्रातः से रवि टेर रहा है
ललित प्रभा का बीज उगाओ
धरती के कोने-कोने में
मानवता का अलख जगाओ
न्याय,दया,करुणा के घर में,
सफल बनें सब काज !
आमंत्रित कर हर कण को अब
महाशक्ति के प्राण जगाओ
फूलों से कोमलता लेकर
नव जीवन के गीत सुनाओ
कभी आस्था के आँगन में,
गिरे न कोई गाज़ !
व्यर्थ विवादों में न उलझें
सदा बड़ा हो देश
जाति,धर्म,भाषा के ऊपर
संस्कृतिमय परिवेश
इसे संभालें,गले लगा लें,
और करें हम नाज़ !
==================
हो मानवता का राज !
प्रातः से रवि टेर रहा है
ललित प्रभा का बीज उगाओ
धरती के कोने-कोने में
मानवता का अलख जगाओ
न्याय,दया,करुणा के घर में,
सफल बनें सब काज !
आमंत्रित कर हर कण को अब
महाशक्ति के प्राण जगाओ
फूलों से कोमलता लेकर
नव जीवन के गीत सुनाओ
कभी आस्था के आँगन में,
गिरे न कोई गाज़ !
व्यर्थ विवादों में न उलझें
सदा बड़ा हो देश
जाति,धर्म,भाषा के ऊपर
संस्कृतिमय परिवेश
इसे संभालें,गले लगा लें,
और करें हम नाज़ !
==================
Monday, September 15, 2008
नोज़ वालों...ओजोन बचाओ !
लीजिए श्रीमान !
अपना यह ग्लोबल विलेज
ग्लोबली वार्म हो रहा है
यानी आदमी
आग के बिस्तर पर सो रहा है !
तकनीक का ज़माना है
माहौल है प्रदूषक
तरक्की के रंग मंच पर
हर आदमी है विदूषक
अपना यह ग्लोबल विलेज
ग्लोबली वार्म हो रहा है
यानी आदमी
आग के बिस्तर पर सो रहा है !
तकनीक का ज़माना है
माहौल है प्रदूषक
तरक्की के रंग मंच पर
हर आदमी है विदूषक
सिमट रही है वायुमंडल की ओजोन
लेकिन धरती वालों को
लेकिन धरती वालों को
समझाए कौन ?
कि ओजोन न रहेगी
तो नहीं रहेगी जिंदगी
फ़िर गुमां होगा किस पर
किस पर होगी शर्मिंदगी ?
इसलिए ओं...नोज वालों !
ओजोन को बचाओ
इंसानियत का फ़र्ज़ निभाओ
ओजोन कवच होगा
हर वार हम सहेंगे
हम विश्व के हैं प्रहरी
हर बार हम कहेंगे.
================================
ओजोन संरक्षण दिवस, १६ सितम्बर पर प्रस्तुत.
कि ओजोन न रहेगी
तो नहीं रहेगी जिंदगी
फ़िर गुमां होगा किस पर
किस पर होगी शर्मिंदगी ?
इसलिए ओं...नोज वालों !
ओजोन को बचाओ
इंसानियत का फ़र्ज़ निभाओ
ओजोन कवच होगा
हर वार हम सहेंगे
हम विश्व के हैं प्रहरी
हर बार हम कहेंगे.
================================
ओजोन संरक्षण दिवस, १६ सितम्बर पर प्रस्तुत.
Sunday, September 14, 2008
निर्दोष बने अब न निशाना.
धरती में नई अब कोई धरती न बनाना
पतझड़ में भी खुशियों के सदा फूल खिलाना
औलाद की खातिर जो सितम सहती रही है
ममतामयी उस माँ की सदा लाज बचाना
माना की तरक्की का ज़माना है ये लेकिन
आतंक का निर्दोष बने अब न निशाना
धरती में नेह है तो है तू भी तो सलामत
तू अपने लहू से इसे गुलज़ार बनाना
बेशक तू ख़्वाब देख यहाँ आसमान के
पर याद रहे तेरा ज़मीं पर है ठिकाना
है सारा विश्व एक ये परिवार हमारा
इसकी ख़ुशी के वास्ते जी-जान लुटाना
========================
पतझड़ में भी खुशियों के सदा फूल खिलाना
औलाद की खातिर जो सितम सहती रही है
ममतामयी उस माँ की सदा लाज बचाना
माना की तरक्की का ज़माना है ये लेकिन
आतंक का निर्दोष बने अब न निशाना
धरती में नेह है तो है तू भी तो सलामत
तू अपने लहू से इसे गुलज़ार बनाना
बेशक तू ख़्वाब देख यहाँ आसमान के
पर याद रहे तेरा ज़मीं पर है ठिकाना
है सारा विश्व एक ये परिवार हमारा
इसकी ख़ुशी के वास्ते जी-जान लुटाना
========================
Saturday, September 13, 2008
हिन्दी है युग-युग की भाषा...!
हिंदी है युग-युग की भाषा
हिंदी है युग-युग का पानी
सदियों में जो बन पाती है
हिंदी ऐसी अमर कहानी
गंगा-यमुना-सरस्वती के
संगम जैसी अपनी हिंदी
महासागरों-सी है गहरी
और विहंगम अपनी हिंदी
संस्कृत की यह न्यारी बेटी
जन-जन की है दिव्य भारती
एक-नेक भारत अशेष यह
नेह-प्रेम की दिव्य आरती
हिंदी है वह दर्पण जिसमें
हर दर्शन की छवि जीवित है
हिंदी है हिंद की धड़कन
वरना सब कुछ जीवित-मृत है !
======================
Friday, September 12, 2008
गुमशुदा हैं पासबां...!
क्यों न हो इंसानियत हैरान मेरे देश में
घूमते हैं शान से शैतान मेरे देश में
रोशनी की खो रही पहचान मेरे देश में
और अंधेरों की बड़ी है शान मेरे देश में
जिस तरफ़ देखो तबाही,खून का माहौल है
खो गई क्यों प्यार की पहचान मेरे देश में
इस क़दर नैतिक पतन होगा किसे मालूम था
आदमी हो जाएगा हैवान मेरे देश में
गुमशुदा हैं पासबां इंसानियत के आजकल
बढ़ रही है क़ातिलों की शान मेरे देश में
पतझडों की आंधियाँ हर वक़्त चलती हैं यहाँ
बाग़ सब होने लगे वीरान मेरे देश में
============================
घूमते हैं शान से शैतान मेरे देश में
रोशनी की खो रही पहचान मेरे देश में
और अंधेरों की बड़ी है शान मेरे देश में
जिस तरफ़ देखो तबाही,खून का माहौल है
खो गई क्यों प्यार की पहचान मेरे देश में
इस क़दर नैतिक पतन होगा किसे मालूम था
आदमी हो जाएगा हैवान मेरे देश में
गुमशुदा हैं पासबां इंसानियत के आजकल
बढ़ रही है क़ातिलों की शान मेरे देश में
पतझडों की आंधियाँ हर वक़्त चलती हैं यहाँ
बाग़ सब होने लगे वीरान मेरे देश में
============================
Wednesday, September 10, 2008
आँखों के रास्ते से जो दिल में समा गए...!
जो दूसरों की राह में काँटे बिछा गए
क्यों ऐसे लोग फूलों के साए में आ गए
खुशबू से वास्ता न रहा जिनका आज तक
वे लोग क्यों चमन की बहारों में छा गए
क्यों ऐसे लोग फूलों के साए में आ गए
खुशबू से वास्ता न रहा जिनका आज तक
वे लोग क्यों चमन की बहारों में छा गए
उतरे थे ज़ंग में जो बड़े हौसले के साथ
तलवार भी उठा न सके मात खा गए
मगरूर थे तो खो गई पहचान हमारी
अच्छा हुआ तुम आईना हमको दिखा गए
बस उनकी याद दिल में कसक बन के रह गई
आँखों के रास्ते से जो दिल में समा गए
============================
Tuesday, September 9, 2008
इति...हास !..एक शब्द-चित्र !!
Monday, September 8, 2008
हथियार न हिम्मत के डाले...!
Sunday, September 7, 2008
दिलचस्प सहारा पाया है....!
कैसा भी हो दौर मगर रंगीन नज़ारा पाया है
मैंने अपने जीने का दिलचस्प सहारा पाया है
वक़्त के तूफानों से जब भी नाव मेरी टकराई है
थाम लिया हिम्मत से मैंने और किनारा पाया है
चेहरे पर ग़म के साए थे जैसे दर्द में डूबा चाँद
फिर भी उनकी आँखों में उम्मीद का तारा पाया है
मेरी नज़रों ने नज़रों पर एक नज़र जब भी की है
नज़र-नज़र में सच कहता हूँ और नज़ारा पाया है
घिरा अंधेरों से तब छलके मेरे नयन ज़रूर मगर
उजली-उजली आँखों का हर ख़्वाब दोबारा पाया है
नहीं रोशनी रूठा करती है राहों में 'चन्द्र' कभी
जलने वाले हर दीपक ने कुछ-न-कुछ तो पाया है
===============================
मैंने अपने जीने का दिलचस्प सहारा पाया है
वक़्त के तूफानों से जब भी नाव मेरी टकराई है
थाम लिया हिम्मत से मैंने और किनारा पाया है
चेहरे पर ग़म के साए थे जैसे दर्द में डूबा चाँद
फिर भी उनकी आँखों में उम्मीद का तारा पाया है
मेरी नज़रों ने नज़रों पर एक नज़र जब भी की है
नज़र-नज़र में सच कहता हूँ और नज़ारा पाया है
घिरा अंधेरों से तब छलके मेरे नयन ज़रूर मगर
उजली-उजली आँखों का हर ख़्वाब दोबारा पाया है
नहीं रोशनी रूठा करती है राहों में 'चन्द्र' कभी
जलने वाले हर दीपक ने कुछ-न-कुछ तो पाया है
===============================
Saturday, September 6, 2008
है कौन यहाँ अपना...?
Friday, September 5, 2008
जिनसे मिलता है कुछ प्यार...!
Thursday, September 4, 2008
मौन में जिसके वाणी हो...!
Wednesday, September 3, 2008
रौशन हो हर घर...हर कोना !
Tuesday, September 2, 2008
सफ़र, सफ़र है....!
Monday, September 1, 2008
तम बन गया प्रकाश...!
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