Saturday, September 15, 2018

चिंतन 
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चिंतन का दैनिक जीवन और जीवन के विकास में बड़ा महत्त्व है। मन की गति पर नियंत्रण ही चिंतन की सही दिशा का आधार है। मन के तीन गुण होते हैं-सतोगुण, तमोगुण और रजोगुण। मन में जिस वक्त जिस गुण की प्रधानता होती है, हमारे व्यक्तित्व पर उस समय उसी तत्व की अमिट छाप परिलक्षित होती है। मन में जैैसा चिन्तन चल रहा होता है, हमारी क्रियाएं वैसी ही होती हैं। ये क्रियाएं ही हमारी आदतों का निर्माण करती हैं और आदतों के समूह से मनुष्य का स्वभाव बनता है। यह स्वभाव ही हमारे व्यक्तित्व का दर्पण है। व्यक्तित्व ही हमारे जीवन की पहचान है। 

इसी तरह शरीर को कोई नश्वर कह  ही कहे, पर नश्वर शरीर में अनश्वर का बसेरा है। शरीर को कोई चाहे माटी ही समझे, पर माटी के शरीर में ही अमृत का वास है। हम यह न भूलें कि भले ही शरीर किसी के लिए सिर्फ माटी हो, हमारे लिए तो वह मंगल कलश के समान है। बूँद का सीप तक पहुँच जाना ही उसका सौभाग्य है, उसी तरह शरीर और मन का रूपांतरण भी मनुष्य का सौभाग्य बन जाता है। हम प्रतिदिन कुछ पल विचार करें तो माटी के पुतले को भी जीवंत सिद्ध कर  सकते हैं। हम अपनी वास्तविक शक्ति को पहचानें। शरीर के धरातल पर उगते सूरज की किरणों का अनुभव करें। इस सत्य पर भरोसा रखें कि जैसा आप सोचेंगे, वैसी गति होगी। जैसी गति, वैसी प्रगति। जैसा संकल्प, वैसा कर्म और जैसा कर्म, वैसा परिणाम मिलेगा। 

दूसरी तरफ हम धयान दें कि हमारा मन अनन्त शक्ति का भण्डार है। मन एक सीढ़ी की तरह है जो हमें सफलता के शिखर पर पहुंचा सकता है और पतन के गर्त में भी पहुंचा सकती है। मन की शक्तियों को लक्ष्य पर लगाया जाए तो सफलता अवश्य मिलती है। इसलिए आवश्यकता मन को एकाग्र करने की है। 
मन की तन्मयता कल्याण का अचूक अस्त्र है। 

महात्मा गौतम बुद्घ ने अपने मन की सारी शक्तियों को करूणा पर केन्द्रित कर दिया, जबकि भगवान महावीर स्वामी ने अपने मन की सारी शक्तियों को अहिंसा पर केन्द्रित कर दिया। दोनों महात्माओं ने करूणा और अहिंसा को विस्तार दिया तथा इनका ही प्रचार-प्रसार किया और मोक्ष को प्राप्त हो गये। यह सब मन की एकाग्रत का फल है। ध्यान रहे, मन की एकाग्रता में भी पवित्रता का होना नितान्त आवश्यक है क्योंकि एकाग्र तो बगुला भी होता है किंतु उसके मन में पवित्रता नहीं होती है वह मछली को निगलने की ताक में रहता है। एकाग्रता और पवित्रता का उदाहरण देखना है तो पपीहे की देखिये, जो स्वाति नक्षत्र की बूंद के लिए ध्यानस्थ रहता है।

परन्तु मन है कि भटकने से बाज़ नहीं आता है। उसे धन चाहिए, यश चाहिए, तृप्ति चाहिए। तीनों मिल जाएँ तो भी और अधिक चाहिए। लेकिन याद रहे कि घातक न धन है, न यश, न ही काम। घातक है इनका अँधा प्रवाह, अंधी चाह और अंधा उपभोग। इन पर अंकुश लग सकता है अगर मन पर नियंत्रण हो जाए। पानी पर तैरते हुए दीप कितने प्यारे लगते हैं। भीतर के समंदर में भी न जाने कितने शुभ विचारों के नन्हें-नन्हें दीप तैर रहे हैं। जरूरत है कि हम कभी अपने भीतर भी उतर कर देखें। 

अपने दिल में डूबकर पा ले सुराज ज़िंदगी 
तू अगर मेरा नहीं बनता, न बन अपना तो बन। 

अपने मन में डूबकर जब हम देखते हैं तो पाते हैं हम वही हैं जो हमने स्वयं को बनाया है। हमें वही मिला है जो हमने कमाया है। विश्व विख्यात वौज्ञानिक आइंस्टाइन ने समय सापेक्षता का सिद्धांत दिया । उन्होंने कहा दोलन को आप जिस स्थान से छोड़ोगे दोलन लौटकर उसी स्थान पर आता है। यही दशा मानवीय व्यवहार की है अर्थात हम जैसा व्यवहार संसार के साथ करेंगे लौटकर वही व्यवहार हमारे पास आता है। यूरोप के प्रसिद्द दार्शनिक हीगल ने भी 'क्रिया से प्रतिक्रिया' का का दर्शन समझाया था। अभिप्राय यह है कि 'जैसा बोयेंगे ,वैसा ही काटेंगे । 

हम कभी न भूलें कि मानवीय व्यवहार का आधार वाणी है और वाणी का आधार मन है। मन में उठने वाली तरंगों को शब्दों का रूप वाणी ही देती है। वाणी का मूर्त रूप ही हमारा व्यवहार बनता है। भाव यह है कि जैसा मन होगा, वैसी वाणी होगी, और जैसी वाणी होगी, व्यवहार वैसा ही परिलक्षित होगा। हम विचार और मन के तिलिस्म और संबंधों को समझने का प्रयास करें। शांत मन रखकर हम हर समस्या का समाधान प्राप्त कर सकते हैं। 

हम अपने मन को इस योग्य बना लें कि वह खुद ऐलान कर दे कि निराश मत हो, जीवन में बाधाएं तो आएंगी ही। जैसे सागर के जल से लहरों को अलग नहीं किया जा सकता है, ठीक इसी प्रकार जीवन से समस्याओं को दूर नहीं किया जा सकता है। इनसे तो जूझना ही पड़ता है। पानी की तरह रास्ता ढूंढऩा पड़ता है, और यह निश्चित है कि हर समस्या का समाधान है बशर्ते कि मनुष्य हिम्मत और विवेक से काम ले। 

जीवन में छोटी अथवा बड़ी बाधा हमारे हमारी हिम्मत की परीक्षा लेने आती है। सोने को भी अग्नि में परीक्षा देनी होती है, तभी वह कुंदन बनता है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य महान तभी बनता है, जब वह बाधाओं की भट्टियों में तपता है। संसार के सभी महापुरूष अवश्य तपे हैं तभी उनका जीवन निखरा है। फूल को पत्ते कितना भी छिपा लें, उसकी खुशबू को कोई छिपा नहीं सकता। जो इरादे का धनी होता है, उसे मंजिल-ए-मकसूद से कोई रोक नहीं सकता।

जीवन का मूल्य मृत्यु से नहीं चुकता। जीवन का मूल्य जीवन से ही पूरा होता है। हम जीवन के प्रति जितने आशावान होंगे, जीवन हममें उतना ही विश्वास भरेगा। 
जीवन पेड़ से टूटे हुए पत्ते की तरह नहीं कि पवन जहां ले जाए उड़ता चले,  वह कागज की नाव भी नहीं है कि लहरें अपने साथ बहने के लिए मज़बूर कर दें।  जीवन मन की लगाम कसकर, शरीर, विचार और भाव की योग साधना का अपूर्व अवसर है। इस अवसर को कभी खोना नहीं है।  

हम जीवन पर अपनी पकड़ रहते ही तय कर लें कि हमारे लिए योग्य क्या है और अयोग्य क्या है ? हम अनुचित का चिंतन बंद कर दें। अनावश्यक को पीछे छोड़ दें। उन्हें साफ़ शब्दों में पूरी शक्ति से कह दें कि हमें उनकी कोई ज़रुरत नहीं है। फिर पूरा ध्यान अपने काम में लगाएं और काम के दौरान सिर्फ काम करें, उस पर चिंतन करके काम में बाधा पैदा न करें। परिणाम की चिंता भी छोड़ दें। अपने प्रयास पर पूरा भरोसा रखें। 

हम हमेशा याद रखें कि  जहां चाह, वहां राह। पानी को बाधा रोकती है, किंतु एक दिन वह भी आता है कि पानी बाधा के सिर के ऊपर से बहता है, बाधा का नामोनिशान मिटा देता है। फिर हम हिम्मत क्यों निराशा में मन को डुबोएँ ? 
आखिर क्यों मायूस होकर चुचाप बैठ जाएँ ? नहीं, आज और अभी उठने, चलने और आगे बढ़ने का संकल्प करें। उपनिषद के इन शब्दों को याद रखें - उतिष्ठं जाग्रत: चरैवेति-चरैवेति।

चिंतन 
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भारतीय संस्कृति का एक अत्यंत गरिमामय सूत्र है - सत्यम, शिवम्, सुंदरम।  विचारों की शुद्धता के लिए इस सूत्र को अपनाना चाहिए। पैसा, प्रतिष्ठा और काम ये हमारे विचारों के स्वार्थ केंद्र हैं। सत्य, शिव और सैंदर्य, ये परमार्थ के केंद्र हैं। एक में स्वहित तो दूसे में सर्वहित समाहित है। यदि हम सत्य का चिंतन निरंतर करेंगे तो सत्य जीवन में अवतरित होने लगेगा। अगर हम शिव अर्थात कल्याण का चिंतन करेंगे तो स्वयं शिवत्व के अधिकारी बन जाएंगे। इसी तरह यदि हम सैंदर्य की उपासना करेंगे तो हमंरी चेतना भी सुन्दर होने लगेगी। बात साफ़ है कि जिसके विषय में हम सोचते हैं, उसके हम स्वामी बनते जाते हैं। 

विचारों का प्रभाव शरीर पर पड़ता है। शरीर का प्रभाव व्यवहार पर पड़ता है। हम स्मरण रखें कि सत्य सृष्टि का महानतम तत्त्व है। सत्य अमृत है, शास्वत है।  सत्य स्वयं प्रकाश है। जो अपने चिंतन और आचरण में सत्य को आत्मसात कर लेता है, सत्य उसके जीवन रथ का सारथी बन जाता है। जिससे भीतर की रौशनी प्रकट हो जाए वह शिव है। वही कल्याणप्रद है। और जिसमें कल्याण हो सबका वही सत्य है।  इसलिए कहा गया है सत्य ही शिव और शिव ही सुन्दर है। शिवत्व का सम्बन्ध हमारे जीवन से है, मन से है। शिवम् को जीवन में उतारने के लिए हम वहीं काम करें जिसमें मंगल हो, कल्याण हो, मानवता का हित हो, भलाई हो। तीसरी बात  है -  सुंदरम।  हम याद रखें कि सौंदर्य का सम्बन्ध सूरत भर से नहीं, ह्रदय से है। सौंदर्य जीवन की परिपूर्णता और उदारता का दूसरा नाम है। वह अंतरतम की सुंदरता ही है जो मनुष्य और शेष संसार के बीच समझ, सहकार, सहयोग और समन्वय का सम्बन्ध जोड़ती है। सुन्दर विचार और भाव के साथ नज़रिया भी सुन्दर हो तो सत्यम, शिवम् की साधना सफल हो जाएगी। 

हम गहराई में उतर कर देखें तो विचारों की सुंदरता व्यक्ति को सर्वांग सुन्दर बना देती है, क्योंकि तब भीतर का सौंदर्य प्रकट होता है। मिसाल के तौर पर महात्मा गांधी को ही ले लीजिए। वृद्धावस्था में भी उनमें न जाने ऐसा क्या आकर्षण था कि असंख्य लोग बरबस उनकी तरफ खिंचे चले आते थे। पता है वह क्या था ? उनकी बड़ी सोच, महान दृष्टि और उनका सुन्दर अंतस्तल। हमारे विचार हमें महान बनाते हैं। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि हम अपने विचारों पर भी नज़र रहें कि वे भटक न जाएँ। कितना अच्छा हो कि हम सही सोचें, सुन्दर सोचें। सही जानें, सुन्दर जानें। सही देखें, सुन्दर देखें। सही बोलेन, सुन्दर बोलेन और सही कैन, सुन्दर करें। सही विचार तो आईने के समान होते हैं। 

मनुष्य के हर विचार का एक निश्चित मूल्य तथा प्रभाव होता है। व्यापारिक सफलता, असफलता, संपर्क में आने वाले दूसरे लोगों से मिलने वाले सुख-दुःख का आधार विचार ही माने गये हैं।  जिस मनुष्य की विचार-धारा जिस प्रकार की होती, जीवन-तरंग में मिले वैसे विचार उसके साथ मिल कर उसके मानस में जगह  बना लेते हैं। यही कारन है कि मनुष्य का समस्त जीवन उसके विचारों के साँचे में ही ढलता है। सारा जीवन आन्तरिक विचारों के अनुसार ही प्रकट होता है।  प्रकृति का यह निश्चित नियम है कि मनुष्य जैसा भीतर होता है, वैसा ही बाहर। 

विचार-सूत्र से ही सम्पूर्ण जीवन का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। विचार जितने स्पष्ट, उज्ज्वल और दिव्य होंगे, अन्तर भी उतना ही उज्ज्वल और आलोकित होग। जिस कलाकार अथवा साहित्यकार की भावनाएँ जितनी ही प्रखर और उच्चकोटि की होंगी उनकी रचना भी उतनी ही उच्च और उत्तम कोटि की होगी। यही बात एक सामने मनुष्य के जीवन पर भी लागू होती है। 
 
चिकित्सक अब धीरे-धीरे चिकित्सा में विचारों और मनोदशाओं का समावेश करने लगे हैं।  लोग अब यह बात मानने के लिए तैयार हो गये हैं कि मनुष्य के अधिकांश रोगों का कारण उसके विचारों तथा मनोदशाओं में निहित रहता है। यदि उनको बदल दिया जाये तो वे रोग बिना औषधियों के ही ठीक हो सकते हैं। वैज्ञानिक इसकी खोज, प्रयोग तथा परीक्षण में लगे हुए हैं।

बहुत बार देखने में आता है कि डाक्टर रोगी के घर जाता है, और उसे खूब अच्छी तरह देख-भाल कर चला जाता है। कोई दवा नहीं देता। तब भी रोगी अपने को दिन भर भला-चंगा अनुभव करता रहता है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण यही होता है कि वह बुद्धिमान डाक्टर अपने साथ रोगी के लिए अनुकूल वातावरण लाता है और अपनी गतिविधि से ऐसा विश्वास छोड़ जाता है कि रोगी की दशा ठीक है, दवा देने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। इससे रोगी तथा रोगी के अभिभावकों का यह विचार दृढ़ हो जाता है कि रोग ठीक हो रहा है। विचारों का अनुकूल प्रभाव जीवन-तत्व को प्रोत्साहित करता और बीमार की तकलीफ कम हो जाती है।

विचारों के अनुसार ही मनुष्य का जीवन बनता-बिगड़ता रहता है। बहुत बार देखा जाता है कि अनेक लोग बहुत समय तक लोकप्रिय रहने के बाद बहिष्कृत हो जाया करते हैं, बहुत से दुकानदार पहले तो उन्नति करते रहते हैं, फिर बाद में उनका पतन हो जाता है। इसका मुख्य कारण यही होता है कि जिस समय जिस व्यक्ति की विचार-धारा शुद्ध, स्वच्छ तथा जनोपयोगी बनी रहती है और उसके कार्यों की प्रेरणा स्त्रोत बनी रहती है, वह लोकप्रिय बना रहता है। किन्तु जब उसकी विचार-धारा स्वार्थ, कपट अथवा छल के भावों से दूषित हो जाती है तो उसका पतन हो जाता है। अच्छा माल देकर और उचित मूल्य लेकर जो व्यवसायी अपनी नीति ईमानदारी और सहयोग की रखते हैं, वे शीघ्र ही जनता का विश्वास जीत लेते हैं, और उन्नति करते जाते हैं। पर ज्योंही उसकी विचार-धारा में गैर-ईमानदारी, शोषण और अनुचित लाभ के दोषों का समावेश हुआ नहीं कि उनका व्यापार ठप्प होने लगता है। 

जिस प्रकार उपयोगी, स्वस्थ और सात्विक विचार जीवन की सुखी व संतुष्ट बना देते हैं। उसी प्रकार क्रोध, काम और ईर्ष्या-द्वेष के विषय से भरे विचार जीवन को जीता जागता नरक बना देते हैं। स्वर्ग-नरक का निवास अन्यत्र कहीं नहीं मनुष्य की विचार-धारा में रहता है। देवताओं जैसे शुभ उपकारी विचार वाला मन की स्वर्गीय स्थिति और आसुरी विचारों वाला व्यक्ति नरक जैसी स्थिति में निवास करता है। दुःख अथवा सुख की अधिकांश परिस्थितियाँ मनुष्य की अपनी विचार-धारा पर बहुत कुछ निर्भर रहती हैं। इसलिये मनुष्य को अपनी विचार-धारा के प्रति सदा सावधान रह कर उन्हें श्रेष्ठ दिशाओं में ही प्रेरित करते रहना चाहिये।

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Thursday, September 13, 2018

आधी सदी 'अँधेरे में' ; सवाल-दर-सवाल, ज़वाब-दर-ज़वाब

आधी सदी 'अँधेरे में' ; सवाल-दर-सवाल, ज़वाब-दर-ज़वाबएक लोकतांत्रिक समाज का नागरिक होने के नाते हम नागरिक चेतना, सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों और लेखकीय दायित्व के भव्य सवालों के समक्ष खुद को पाते हैं। इसमें नागरिक कहां खड़ा है? लेखन क्या है? नागरिक चेतना और लेखन के आपसी सम्बंध क्या हैं? हमारे अपने समाज में लोकतन्त्र, लेखन और समाज के क्या रिश्ते हैं? उन्हें कैसा होना चाहिए? वैश्वीकरण के दौर में साहित्य की क्या भूमिका हो सकती है ? ऐसे सवालों से दो चार होते हुए जब हम हिन्दी की प्रगतिवादी कविता और नई कविता के मज़बूत सेतु के रूप में प्रतिष्ठित मुक्तिबोध पर एकाग्र होते हैं तब सवाल-दर-सवाल और ज़वाब-दर-ज़वाब रचनाकर्म के कई अहम पहलू खुद-ब-खुद खुलने लगते हैं, मानों एक कदम रखने पर सौ राहें फूटने लगती हैं।
गजानन माधव मुक्तिबोध’ तार सप्तक के पहले कवि थे। मनुष्य की अस्मिता, आत्मसंघर्ष और प्रखर राजनीतिक चेतना से समृद्ध उनकी कविता पहली बार तार सप्तक के माध्यम से सामने आई। पुरानी और प्रगतिशील  कविता के बीच एक सेतु के रुप में चर्चित मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक भी। नागपुर में रहकर ही उन्होंने महत्वपूर्ण काव्य रचनाओं का सृजन किया…'कोशिश कर कुछ ऐसा कहने की  जिससे क्षितिज हो सके और अधिक विस्तृत  जिससे हृदय हो सके और अधिक आलोकित', पीमेन पांचे को की यह काव्य पक्तियां गजानन माधव मुक्तिबोध के रचानाकर्म पर सटीक बैठती हैं।
हिन्दी कविता के महानतम सर्जकों में से एक गजानन माधव मुक्तिबोध के निधन के पचास साल इसी सितंबर में पूरे हो गए हैं। सितंबर उन्नीस सौ पैंसठ के नया ज्ञानोदय में कवि श्रीकांत वर्मा का एक लेख छपा था जिसमें उन्होंने कहा था ‘अप्रिय’ सत्य की रक्षा का काव्य रचने वाले कवि मुक्तिबोध को अपने जीवन में कोई लोकप्रियता नहीं मिली और आगे भी, कभी भी, शायद नहीं मिलेगी। कालांतर में श्रीकांत वर्मा की आशंका गलत साबित हुई और मुक्तिबोध निराला के बाद हिन्दी के सबसे बड़े कवि के तौर पर न केवल स्थापित हुए बल्कि आलोचकों ने उनकी कविताओं की नई-नई व्याख्याएं कर उनको हिंदी कविता की दुनिया में शीर्ष पर बैठा दिया। मुक्तिबोध की बहुचर्चित कविता 'अँधेरे में' ने भी अपनी अर्धशती पूरी कर ली है। कहना न होगा कि अँधेरे की शब्दावली में अपने आस-पास पसरे अँधेरे के अनगिन सवालों की शिनाख्त करने वाले मुक्तिबोध की बेकली को बकलम मुक्तिबोध ही समझने का इस से बेहतर अवसर संभव नहीं है। लिहाज़ा, समय आ गया है कि इस बात की ईमानदार पड़ताल की जाए कि मुक्तिबोध की रचनाओं में संघर्ष दिखाई देता है वह उनका अपना संघर्ष मात्र है या फिर पूरे मध्य वर्ग का, समूची मानवता का और हमारे मौजूदा समय का भी संघर्ष है।
प्रसिद्ध कवि आशोक वाजपेयी ठीक कहते हैं कि बड़ा लेखक वह है जिसमें हम हर बार नये अर्थ को ढूढते हैं। जो कुछ मुक्तिबोध के जमाने में अंधेरे में था, आज वही उजाले में है। वो सच आज सबके सामने है जिसको मुक्तिबोध अपने समय में महसूस करके लिख चुके थे। बात साफ़ है कि मुक्तिबोध के रचना कर्म की परिधि और उसके केंद्र दोनों में हमारे आज के दौर के सवालों की समझ और उनके ज़वाब हासिल किए जा सकते हैं। मुक्तिबोध को लक्षित-मूल्यांकित करने का क्रम अभी जारी है। छायावादी काव्यधारा में ‘निराला’ और नयी कविता में मुक्तिबोध का व्यक्तित्व अपवाद की सीमा तक विशिष्ट था, इसमें दो मत नहीं है।
स्मरण रहे कि ‘अंधंरे में’ मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता है। "यह कविता परम अभिव्यक्ति की खोज में जिस तरह की फैंटेसी बुनती है लेकिन अपने मूल में यह कविता ऐसे अंधेरे की पड़ताल करती है जो देश की आजादी के बाद की व्यवस्था का अंधेरा है, इस लोकतंत्र का अंधेरा है। ‘अंधेरे में’ पूंजी की दुनिया व रक्तपाई वर्ग द्वारा पैदा की गई क्रूर, अमानवीय व शोषण की हाहाकारी स्थितियों से साक्षात्कार करती है। यह हिन्दी कविता में ‘मील का पत्थर’ है जिसमें ‘अंधेरा’ मिथ नहीं, ऐसा यथार्थ है जिससे जूझते हुए हिन्दी कविता आगे बढ़ी है। 'अँधेरे में' के कवि की कोशिश लेखन की इस आरंभतः वर्णित 'मौत की सज़ा' को अंततः 'परम अभिव्यक्ति अनिवार्य / आत्म सम्भवा' के रूप में पहिचानता है। यहां पहुंचकर रचनात्मकता की तलाश निष्पन्न होती है, और फिर शुरू हो जाती है -
इसीलिए मैं हर गली में
और हर सड़क पर
झाँक-झाँक कर देखता हूँ हर एक चेहरा।
और यों परम अभिव्यक्ति अपने कर्ता से बड़ी हो जाती है, " मैं उसका शिष्य, वह मेरी गुरू है " 1
मुक्तिबोध की कविता जिस अंधेरे से रू ब रू है, वह इन पचास सालों में सच्चाई बनकर उभरा है। उसका विस्तार ही नहीं हुआ, वह सघन भी हुआ है। यह अकस्मात् नहीं है कि कविता के सातवें खंड में रिहाई के बाद कवि ने मठ व गढ़ को तोड़ने की बात की है। वह इसलिए कि उन्होंने इन मठों व गढ़ों को बनते और इनके अन्दर पनपते खतरनाक भविष्य को देखा। कैसे हैं ये मठ व गढ़ ? आज ये पूंजी, धर्म, वर्ण, जाति के मठ व गढ में रूपांतरित हो गये है। राजनीति सेवा नहीं, मेवा पाने का माध्यम बन गई है। बड़ी बड़ी बातें की जा रही हैं। प्रगति व विकास के दावे किये जा रहे हैं। कोई गौरवान्वित हो सकता है कि हमारी संसद अरबपतियों से रौशन है। पर हमने ईमानदारी, नैतिकता, आदर्श, भाईचारा सहित जो जीवन मूल्य निर्मित किये थे, उसमें कहां तक प्रगति की है ? अब तो इस पर बात करना भी पिछड़ापन है।
"हमारे पुराने महाकाव्य  लोक-परम्परा से चल कर अपने बाह्य रूप में विकसित होते थे ; 'अँधेरे में' , इस दृष्टि से, लोक-संदर्भों से जुड़कर अपने अर्थ में विकसनशील कविता है। 'राम की शक्ति पूजा' ( निराला ), 'प्रलय की छाया' ( प्रसाद ), 'असाध्य वीणा ' ( अज्ञेय) के साथ, यदि परम्परागत शब्दावली का प्रयोग किया जाय, तो वह महाकविता है। सम्पूर्ण जातीय विडंबनाओं का परीक्षण वह बड़े गहरे स्तर पर करती है। स्वप्न, फ़ंतासी और अतियथार्थवादी अनुभवों में घुला-मिला चलने वाला उनका कथानक -- रक्तालोक स्नात पुरुष का साक्षात्कार, कवि को दी गई मौत की सज़ा, रात का विचित्र जुलूस, मार्शल लॉ जैसा वातावरण, तिलक मूर्ति से टपकता खून, विचित्र वेश में गांधी से भेंट, भविष्य शिशु कोई कवि को सौंपा जाना और गांधी द्वारा जान शक्ति का आख्यान, कवि को पकड़कर दी गई यंत्रणा, फिर रिहाई, अभिव्यक्ति खतरों का एहसास और फिर उस परम अभिव्यक्ति की तलाश -- सांस्कृतिक पुनर्जागरण, राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन और परवर्ती जीवन का एक विराट संश्लिष्ट चित्र है, जो कविता में पहली बार, इस रूप में अंकित होता है। टिकक,गांधी और स्वयं कवि जैसे इन तीनों चरणों को मूर्तिमान करते हैं। यथार्थ का तीखा और नंगा चित्र अंकित करते कवि कहीं स्वाभाविक रूप से डरता है, पर उस भय का अतिक्रमण कर जाता है -
हाय, हाय ! मैंने उन्हें देख लिया नंगा,
इसकी मुझे और सज़ा मिलेगी।
इस विचित्र और भयावह शोभा-यात्रा का वर्णन कवि बड़े तात्विक रूप में करता है - " गहन मृतात्माएँ इसी नगर की / हर रात जुलूस में चलतीं / परंतु, एक दिन में / बैठतीं हैं मिल कर करती हुईं षड्यंत्र / विभिन्न दफ्तरों - कार्यालयों, केन्द्रों में, घरों में। " इस पकड़ से कोई नहीं बचता ; जैसा कहा गया, यहाँ सम्पूर्ण जातीय राष्ट्रीय जीवन का विश्लेषण है।  और निष्कर्ष ?
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे, जीवित रह गए तुम।"  2
कहना न होगा कि ऐसे अनेक सवाल हैं जिनके रू ब रू हमारा मौजूदा वक्त भी है। आज भी यथार्थ की नज़र तो दूर,उसकी समझ भी जैसे गुनाह है, हमारे रहनुमाओं की निगाहों में। आज भी वह षड्यंत्र जारी है, इससे भला कौन इंकार कर सकता है ? ज़्यादा लेने और बहुत-बहुत कम देने की क्या कहें, सिर्फ लेने और कुछ भी न देने की मिसालें आम बातें हैं,जिनका सही चेहरा दिखाने में मुक्तिबोध का रचना-संसार, विशेषतः उन की कविता 'अँधेरे में' पूरी तरह समर्थ है।
इस सन्दर्भ में वह सचमुच आत्म-सम्भवा है।
"अँधेरे में कविता की अर्थवत्ता उसके स्वप्न चित्रमय वातावरण में है जो अपनी नाटकीय संरचना के द्वारा सीधे-सादे वाक्यों को भी काव्यात्मक गूँज से अनुरंजित कर देता है। चेखव की प्रसिद्द कहानी ' वाद नं. 6 ' को पढ़ने के बाद, कहते हैं, लेनिन ने क्रान्ति से पहले कहा था की ' सारा रूस वार्ड नं.6 है। ' अँधेरे में कविता को पढ़कर भी कोई यह महसूस किए बिना नहीं रह सकता कि यह आज का भारत है। स्वप्न चित्र जैसी एक अयथार्थ कला के द्वारा काव्यात्मक पुनः सृष्टि करके मुक्तिबोध ने एक विरोधाभास का ही चमत्कार पैदा नहीं किया, बल्कि आधुनिक हिन्दी कविता में एक कालजयी कृति की रचना की है।" 3
भूमण्डलीकरण के तीन स्वरूप हैं-उदारीकरण, निजीकरण और मुक्त बाजार। जो लोग इस मुक्त व्यवस्था में सम्मिलित होंगे वे अपने-अपने देशों में आयात-निर्यात कानून को उदार बनायें, अपने देश के संसाधन का निजीकरण करें, स्थापना व्यय कम करें, तमाम तरह की सब्सिडी खत्म करें और अपने देश के संसाधनों का निजीकरण करें और अपने देश का हर बाजार दुनिया के कारपोरेट घरानों के लिये खोल दें। यह सब वैश्वीकरण की ऐसी कड़वी सच्चाई है जो सम्पूर्ण संसार को खासकर तीसरी दुनिया के देशों को पूरी तरह से जकड़ती जा रही है। इससे बचने का रास्ता किसी के पास नहीं है।
स्वप्निल श्रीवास्तव की इन लाइनों को देखें-
‘घर के बाहर निकलो तो बचो,
 घर में रहो तो बचो,
क्योंकि जो कुछ बचा हुआ है,
उसे नष्ट करने की कोशिश जारी है।’
दरअसल,‘अंधेरे में’ कविता में मुक्तिबोध कहते हैं ‘पूंजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता’। गांधी जी पूंजीपतियों को देश का ट्रस्टी मानते थे। उनका दर्शन ‘हृदय परिवर्तन’ पर आधारित था। उनकी समझ थी कि समाज के प्रभुत्वशाली वर्गों तथा वर्चस्ववादी जातियों व शक्तियों के हृदय परिवर्तन से समाज में समता आयेगी। गांधी जी के इन विचारों के विपरीत मुक्तिबोध का चिंतन था। वे इस ‘उजली दुनिया’ के पीछे फैले काले संसार को, इसकी हृदयहीनता व मनुष्य विरोधी चरित्र को बखूबी समझते थे जिसकी प्रवृति छलना व लूटना है। पूंजीवाद की यह अमानवीयता आज के समय में कही ज्यादा आक्रामक होकर हमारे सामने आई है। आज जिस ‘महान लोकतंत्र’ की दुहाई दी जा रही है, वह मूलतः लूट और झूठ की बुनियाद पर टिका है। यह अपनी लूट को छिपाने तथा उसे बदस्तूर जारी रखने के लिए झूठ की रचना करता है। कौन नहीं जानता कि आज कॉरपोरेट हित सर्वोपरि है लेकिन इसे अर्थशास्त्रीय शब्दावली की भूल भुलैया में ले जाकर 'समावेशी' कहा जा रहा है। इस पूंजी से हमारे देश की प्राकृतिक संपदा, खनिज, जंगल, जल व जमीन की लूट जारी है। लेकिन इसे ‘विकास’ की संज्ञा दी जा रही है।
इसी तरह "दुनिया की हर भाषा की जिंदगी में एक बार कोई निहायत ही निष्करुण वक्त दबे पाँव आता है और 'उसको बोलने वालों' के हलक में हाथ डालकर उनकी जुबान पर रचे-बसे शब्दों को दबोचता है और धीरे-धीरे उनके कोमल गर्भ में साँस ले रहे अर्थों का गला घोंट देता है। एक तरफ वह 'पवित्र को ध्वंस' में धकेलता है तो दूसरी तरफ वह 'अतीत में आग' लगाता हुआ, चौतरफा भय और निराशा फैला देता है। ऐसे ही वक्त के खिलाफ अंततः मंगल पांडे की बंदूक से गोली निकलती है और 1857 का गदर (?) मच जाता है। ...आज हम फिर 1857 के ही निकट पहुँच गए हैं। वे तब ये कहते हुए आए थे : 'हम, तुम असभ्यों को सभ्य बनाने के लिए तुम्हारे देश में घुस रहे हैं।' मगर इस बार वे कह रहे हैं : 'हम, तुम कंगलों को संपन्न बनाने के लिए तुम्हारे यहाँ आ रहे हैं।' ...सुनो, हम जिस 'पूँजी का प्रवाह' शुरू कर रहे हैं, वह तुम्हारे यहाँ समृद्धि लाएगी। ...लेकिन, हकीकत में यह देश को समृद्ध नहीं बल्कि, एक किस्म के 'सांस्कृतिक-अनाथालय' में बदलने की युक्ति है। वे धीरे-धीरे आपसे आपकी बोलियाँ और भाषा छीन रहे हैं।"4
मुक्तिबोध ने भी लिखा है -
इतने प्राण, इतने हाथ, इतनी बुद्धि
इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
यह सौंदर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति
इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद –
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध
इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल –
केवल एक जलता सत्य देने टाल।
छोड़ो हाय, केवल घृणा औ' दुर्गंध
तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध
देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध
तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध
(कविता 'पूंजीवादी समाज के प्रति' का अंश)
समाज और साहित्य का सम्बन्ध बहुत कुछ वही है जो धरती से फूल का है। फूल धरती  होता है, इसका मतलब यह नहीं है कि उसके दाल, पात, पंखुड़ी, वर्ण, गंध आदि मिट्टी हैं ; कि उससे मिट्टी की-सी सोंधी गंध आती ही और रंग भी मटमैला होता है। धरती का रूप-रस फूल में नया गंध, गंध उत्पन्न करता है।  इसी तरह समझना होगा कि साहित्य में भी समाज ज्यों का त्यों नहीं झलकता, बल्कि, रूपांतरित रूप में अंतरनिहित रहता है। गौरतलब है कि " श्रेष्ठ साहित्य मन का लड्डू नहीं है कि जब चाहा बना लिया। श्रेष्ठ तो श्रेष्ठ, साहित्य मात्र किसी की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं है।  जब जैसा जी हुआ वैसा साहित्य कोई नहीं रच सकता।  वह एक निश्चित परिस्थिति में और एक निश्चित परिस्थिति से पैदा होता है और यह परिस्थिति उसकी स्वेच्छा को मर्यादित करती है -- यहाँ तक कि उसके विद्रोह को भी। परिस्थिति के विरुद्ध लेखक का विद्रोह भी उस परिस्थिति के द्वारा निर्धारित होता है। यह लेखक की ऐतिहासिक सीमा है। मन के लड्डू खाने की अपेक्षा अपनी ऐतिहासिक सीमा को समझने और समझकर बदलने की कोशिश करने में कहीं अधिक स्वाद है।"5  इस कथन के परिप्रेक्ष्य में यदि देखें तो मुक्तिबोध ने एक ओर फैंटेसी के ज़रिये समाज के भीतरी चेहरे को पहचानने की दृष्टि दी, दूसरी तरफ अपनी ऐतिहासिक सीमाओं की पड़ताल कर,स्वेच्छा का नहीं, सच्चाई का साहित्य रचा और इस प्रयत्न में आश्चर्य नहीं कि उनके सामने यह प्रश्न मुंह बाए खड़ा रहा -
और, मैं सोच रहा कि
जीवन में आज के
लेखक की कठिनाई यह नहीं है कि
कमी है विषयों की
वरन यह कि आधिक्य उनका ही
उसको सताता है,
और, वह ठीक चुनाव नहीं कर पाता है।
                  ( 'मुझे कदम-कदम पर' )
बहरहाल, मुक्तिबोध की अंतहीन तलाश, विषयों के आधिक्य के मध्य भी जीवंत बनी रही.
मुक्तिबोध ने पूरे पूंजीवादी सुपरस्ट्रक्चर को इस अंश में चित्रित किया है -
विचित्र प्रोसेशन

बैंड के लोगों के चेहरे
मिलते हैं मेरे देखे हुओं से
लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार
इसी नगर के !!
बड़े- बड़े नाम अरे, कैसे शामिल हो गए  में !!
उनके पीछे चल रहा
संगीन नोकों का चमकता जंगल,

कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल
कई और सेनापति, सेनाध्यक्ष
चेहरे वे मेरे जाने बूझे से लगते
उनके चित्र समाचार पत्रों में छपे थे,
उनके लेख देखे थे,
यहाँ तक कि कविताएँ पढ़ी थीं
भई वाह !
उनमें कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण
मंत्री भी, उद्योगपति और विद्वान
यहाँ तक कि शहर का हत्यारा
डोमाजी उस्ताद।
( मुक्तिबोध रचनावली-2, पृ.328-30 )
"सत्ता हमेशा ही अपने को प्रामाणिक साबित करने के लिए मध्यवर्गीय, सुविधालोलुप बुद्धिजीवी का सहारा लेती है। ये विद्वान जो रात के जुलूस में शामिल हैं, जुलूस में शामिल दूसरे लोगों की रक्षा और उनके कृत्यों को वैधता प्रदान करना ही इनका काम है। सत्ता ने इसीलिए इनको सुविधाओं से पाट दिया है। इसीलिए ये सब लोग हत्यारी चुप्पी साधे हुए हैं। मीर तकी मीर ने शायर या कवि के मूल कर्तव्य को रेखांकित करते हुए कहा था - 'शायर हो मत चुपके रहो, इस चुप में जानें जाती हैं।' इस चुप्पी के वर्गीय आयामों को उभारते हुए मुक्तिबोध ने एकबारगी मीर की कविता के चुप्पे शायर की स्वातंत्र्योत्तर पहचान की। जानें तो सामान्य जन की ही जाएंगी। ज़र खरीद बौद्धिकों द्वारा गढ़े जाते संवाद इस हत्या को बौद्धिक आधार मुहैया कराने वाले ठहरे -
सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्
चिंतक, शिल्पकार और नर्तक चुप हैं
रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग
नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे,
प्रश्न-सी उथली सी पहचान
भव्याकार भवनों के विवरों में छिप गए
समाचार-पत्रों के पतियों के मुख स्थूल
गढ़े जाते संवाद,
गढ़ी जाती समीक्षा,
गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन-उर शूल
बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास। 7
मुक्तिबोध ने अपनी मार्क्सवादी अंतर्दृष्टि से भारतीय समाज व्यवस्था के चरित्र को फैंटेसी के माध्यम से सही-सही अंकित किया था। इसी तरह भारतीय पूंजीवादी-सामंती शोषण व्यवस्था को उन्होंने अपनी कविता 'एक स्वप्न कथा' के बिम्ब से चित्रित किया है, वहां उसके साम्राज्यवाद सहयोग को भी कलात्मक तरीके से उजागर किया -
हो न हो
इस काले सागर का
सुदूर-स्थित पश्चिम किनारे से
ज़रूर कुछ नाता है
इसीलिए, हमारे पास सुख नहीं आता है।
                   
इस तरह,खोज और उपलब्धि के बीच की दुविधा या 'सस्पेंस' ही 'अँधेरे में' कविता को अद्भुत नाटकीयता प्रदान करती है। कथन शैली की दृष्टि से अँधेरे में एक स्वप्न कथा है, किन्तु वह सामान्य स्वप्न कथा नहीं, बल्कि, दुःस्वप्न का कथालोक है, जिसमें हर चीज़ प्रायः अन्यथा रूप में दृष्टिगत होती है। आत्मसंघर्ष से उत्पन्न तनाव, जटिलता,विसंगति, विडम्बना के बावजूद नामवर सिंह का यह कथन ध्यातव्य है - " मेरे ध्यान में मुक्तिबोध का कविता संबंधी वह वक्तव्य भी है कि ' आज तो पोस्टर ही कविता है ' और फिर यह कथन भी कि 'नहीं होती, कहीं खत्म कविता नहीं होती', मुक्तिबोध, दरअसल कल होने वाली घटनाओं की कविता ही नहीं लिख रहे थे बल्कि उस कविता के भावी काव्य-सिद्धांत के सूत्र भी फेंक रहे थे।"6  इस तरह मुक्तिबोध की कविता में आज साहित्य सिद्धांतों की भावी आहट पहले ही सुनी जा चुकी थी। इसलिए,स्वाभाविक है कि उनकी कविता अँधेरे में. आज के साहित्यिक सवालों के ज़वाबों मद्देनज़र भी एक आईने के समान है।
साहित्य का अपने शाश्वत मूल्यों के कारण भौगोलिक और सांस्कृतिक सीमाओं को लांघ जाना एक सामान्य बात है, इस पर भी हर बड़ा रचनाकार कुल मिला कर समाज विशेष की ही देन होता है और उसी समाज विशेष की भाषा, संस्कृति, परंपराओं और इतिहास के दायरे में उसकी रचनात्मकता अभिव्यक्ति पाती है। इसलिए ज़ाहिर है कि जिस साहित्य का अपने समाज से जितना आदान-प्रदान (इंटरेक्शन) हो रहा होगा वह साहित्य उतना ही जीवंत, संवेदनशील और प्रभावशाली होगा। और, कहना न होगा कि मुक्तिबोध में यह इंटरेक्शन शिखर पर पहुंचकर जीवन के समतल और तलहटी को भी इंस्पेक्ट करने में समर्थ है।  उनका साहित्य उसी संवाद का शाश्वत दस्तावेज़ है। वास्तव में मुक्तिबोध सफलता के दोयम दर्ज़े के तौर तरीकों से पूरी तरह दूर रहे। कभी कोई कपटजाल नहीं रचा। चालाकी और छल-छद्म से जिंदगी की ऊंची मंज़िलों तक पहुँचने का कोई ख़्वाब तक भी नहीं देखा। तभी तो वह दो टूक लहज़े में कह गए -
असफलता का धूल कचरा ओढ़े हूँ
इसलिए कि सफलता
छल-छद्म के चक्करदार जीनों पर मिलती है
किन्तु मैं जीवन की -
सीधी-सादी पटरी-पटरी दौड़ा हूँ
जीवन की।
(1960-61,राजनांदगांव, मुक्तिबोध रचनावली )
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सन्दर्भ -
1. रामस्वरूप चतुर्वेदी, नयी कविताएँ ; एक साक्ष्य, पृष्ठ 91
    लोकभारती प्रकाशन 1998
2  वहीं, पृष्ठ 91-92
3  नामवर सिंह, कविता के नए प्रतिमान, पृष्ठ 150-51
4.प्रभु जोशी, हिन्दी मीडिया, 6 जनवरी 2015
5.नामवर सिंह, इतिहास और आलोचना, पृष्ठ 44
6 .नामवर सिंह, कविता के नए प्रतिमान, पृष्ठ 250-51
7.मुक्तिबोध, अँधेरे में, मुक्तिबोध रचनावली-2, पृष्ठ 25
   (अवधेश त्रिपाठी के आलेख से)
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लेखक छत्तीसगढ़ राज्य शिखर सम्मान से अलंकृत हैं।
संपर्क - दुर्गा चौक, दिग्विजय पथ,
राजनांदगांव ( छत्तीसगढ़ )
पिन कोड - 491441
मो. 09301054300
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