Thursday, March 28, 2019


कफ़न : संवेदना के बुझते अलाव की मर्मभरी दास्तान




उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द उर्दू का संस्कार लेकर हिन्दी में आए और हिन्दी के महान लेखक बने। उन्होंने हिन्दी को अपना खास मुहावरा और खुलापन दिया। कथा लेखन के क्षेत्र में उन्होंने युगान्तरकारी परिवर्तन किए। आम आदमी को उन्होंने अपनी रचनाओं का विषय बनाया और दमन, शोषण और भ्रष्ट चेहरों की गिरफ्त में पिसती उनकी ज़िन्दगी की समस्याओं पर खुलकर कलम चलाते हुए उन्हें समाज के सही नायकों के पद पर आसीन किया।
प्रेमचंद ने साहित्य को कल्पना लोक से सच्चाई के धरातल पर उतारा। वे साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद, पूंजीवाद, सामाजिक विषमता, विसंगति और संवेदना के तिरोभाव पर आजीवन लिखते रहे। वे आम भारतीय जीवन के सहज व सजग रचनाकार थे। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक हैं। उन्होंने हिन्दी कहानी में समाज को खोखला करने वाले भ्रष्ट और दोहरे चरित्रों का खुलासा करते हुए ज़मीनी सच्चाई को स्वर देने की एक नई परम्परा शुरू की। आज भी प्रेमचंद के ज़िक्र के बगैर हिन्दी भाषा और साहित्य की विरासत या भारत के भविष्य का कोई भी विमर्श यदि अधूरा माना जाता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
प्रेमचंद ने लगभग तीन सौ कहानियां लिखकर राष्ट्र भारती के कोष को समृद्ध किया है। उनकी कहानियों में जगह-जगह पर वंचितों के लिए संवेदना और सोये हुए लोगों के लिए झकझोर कर जगा देने वाली भाषा और विचार का सशक्त रूप देखा जा सकता है। भाषा को संवेदना और संवेदना को भाषा बना देने वाली कला का अनोखा उदाहरण है मुंशी प्रेमचंद की विश्व प्रसिद्द कहानी कफ़न। हिन्दी में इसे प्रगतिशीलता और नई कहानी की ज़मीन पर बार-बार देखने और समझने-समझाने का दौर चला, वह आज भी निरंतर है। लेकिन, कफ़न कहानी की दर्दबयानी को किसी सांचे में ढालकर देखना आज भी मुमकिन नहीं है। दरअसल ऎसी कहानियाँ अपनी मिसाल आप हुआ करती हैं।
image.png
एकबारगी देखें तो कफ़न में कहानीकार ने महज़ तीन दृश्य उपस्थित किये हैं। पहले में घीसू और माधव के आलू खाकर अजगर की तरह पड़ जाने और बुधिया के प्रसव पीड़ा से कराहते रहने का है। दूसरे में बुधिया की मृत्यु और बाप-बेटे द्वारा कफ़न के लिए पैसे माँग लाने का है। तीसरा दृश्य कफ़न खरीदते हुए ‘दैव कृपा’ से मधुशाला में पहुँचने और नशे में मदमस्त होकर डूब जाने का है। कहानी के पहले और तीसरे दृश्य में विरोधी रंगों का प्रयोग कर कहानीकार ने जिस तल्ख़ अंदाज़ में व्यंग्य का सहारा लेकर समाज की विसंगत और दोमुंही व्यवस्था का रेशा-रेशा अनावरण किया है, उससे कफ़न कहानी को बेजोड़ होने का दर्ज़ा स्वाभाविक रूप से मिल गया है।
पहले दृश्य में लेखक ने ठाकुर की बारात का स्मृति-दृश्य उपस्थित किया है। जीवन की एक मात्र लालसा वह भोजन ही है, किन्तु वास्तविक धरातल पर पिता-पुत्र में चोरी के भुने हुए आलुओं पर टूट पड़ने की प्रतिस्पर्धा है। भूख को बेसब्र कर देने वाला वातावरण स्वादिष्ट भोजन के सौभाग्य की लालसा को चरम तक पहुंचा देता है। यही कारण है कि कहानी के अंत में घीसू और माधव मधुशाला पहुंचकर अपने ‘अनपेक्षित सौभाग्य’ पर खूब खुश होते हैं और बुधिया की तरफ संकेत कर कहते हैं कि मरते-मरते हमारी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गई। इस तरह कफ़न कहानी का पहला दृश्य ही कहानी के अंत की आधार बन जाता है।
विडंबना देखिये कि बाप-बेटे दोनों अपनी ही बहू या पत्नी के मानवीय संबंधों को ताक़ पर रखकर ज़बान जल जाने की परवाह न करते हुए भुने हुए आलू खाने की स्पर्धा में जुटे हैं। यहाँ ठाकुर की बारात के व्यंजनों की तुलना में घीसू और माधव की भूख को मापा जा सकता है। भूख और पचास पूरी के बीच अंतर समाज की विषमता का ही एक रूप है। इस अंतर को दोनों जैसे एक ही दिन में मिटा देने के लिए टूट पड़ते हैं।
घीसू के लिए ठाकुर का भोज परम मुक्ति का मार्ग है। माधव उसकी प्रत्याशा में बेचैन है। यहाँ मानवीय रिश्ते जड़ हो जाते हैं। आलू खाकर पिता-पुत्र पानी पीते हैं और पाँव पेट में डालकर सो जाते हैं। उधर बुधिया कराह रही है। पर दोनों बेखबर जैसे हैं। भूख के आगे उनकी चेतना जड़ हो गई है। कहानी के आरम्भ में मुंशी जी ने जिस बुझे हुए अलाव का उल्लेख किया है, वह वास्तव में मानवीय संबंधों के बुझते जाने का प्रतीक है।
कहानी के प्रारम्भ में पाठक का आक्रोश घीसू और माधव की बेदर्दी पर हो सकता है, पर लेखक की दूरदृष्टि इस आक्रोश को सामाजिक व्यवस्था की कमजोरियों की तरफ स्थानांतरित कर देती है। घीसू ने भली भांति जान लिया है कि जब सब कुछ झोंक देने का परिणाम भी कुछ नहीं है तो इतनी मेहनत करने का क्या फायदा ? कहानी के दूसरे दृश्य में चरित्र के दुहरे रंगों को उजागर किया गया है। घीसू और माधव को संवेदना का मुखौटा पहनाकर कहानीकार ने गहरा व्यंग्य किया है। जीवन भर यह दिल कठोर बना रहता है किन्तु मृत्यु के समय औपचारिक संवेदना व्यक्त कर वे कर्तव्यों की इति श्री समझ लेते हैं।
तीसरे दृश्य में बाप-बेटे कफ़न खरीदने बाज़ार जाते हैं। कफ़न पसंद नहीं आता और शाम ढल जाती है। दोनों समाज की व्यवस्था को जली-कटी सुनाते हुए दैवी प्रेरणा से मधुशाला पहुँच जाते हैं। उधर लोग बुधिया की मिट्टी को उठाने के लिए बांस-वांस की तैयारी करते हैं और उनके निकटतम जो लोग हैं वे इस वक्त शान से पूरियों पर टूटे हुए हैं। यद्यपि इस हालात में भी उन्हें लोक निंदा का ख़याल आता है पर दोनों दार्शनिकों वाले अंदाज़ में अपने मन को समझा लेते हैं। इस तरह चेतना का अलाव पूरी तरह बुझ जाता है। दोनों गाते हैं, नाचते हैं और मदमस्त होकर गिर पड़ते हैं और मानवीय संबंधों की जड़ता को सामाजिक यथार्थ के स्तर पर उद्घाटित करने वाली इस कहानी का अंत हो जाता है। व्यवस्था की विषम चट्टान पर मानवीय चेतना खुद पथरा जाती है।
कहानी के अंत में यद्यपि लगता है कि कोई समाधान नहीं मिलता किन्तु प्रेमचंद जी जैसे कथा लेखक समाधान से अधिक सवाल छोड़ जाने में यकीन करते थे शायद, यही कारण है कि वे और उनके सवाल आज भी प्रासंगिक हैं। इस तरह कफ़न, कहानी की शक्ति का परिचायक तो बना ही, वह भविष्य की कहानी का संकेत भी बन गया।
————————————————

Saturday, November 24, 2018



एनसीसी : एकता और अनुशासन के मर्म का अनोखा मंच 

डॉ. चन्द्रकुमार जैन 

एकता और अनुशासन के लिए समर्पित राष्ट्रीय कैडेट कोर यानी एनसीसी स्कूल और कॉलेज के दौर की ज़िंदगी का एक अनोखा मंच है। यह अनुशासन और देश भक्ति की भावना को आत्मसात करने का बड़ा अवसर है। नयी पीढ़ी को आने वाले कल के जिम्मेदार नागरिकों के रूप में तैयार करने में इस विशाल संगठन की अविस्मरणीय भूमिका है

भारत में राष्ट्रीय कैडेट कोर विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के कैडेटों का स्वैच्छिक संगठन है। गौरतलब है कि राष्ट्रीय कैडेट कोर दिवस प्रत्येक वर्ष नवम्बर माह के चौथे रविवार को मनाया जाता है। इस वर्ष यह दिवस 25 नवम्बर को है। इधर यह जानना सचमुच रोमांचक होगा कि पहले अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर 9.5 लाख एनसीसी छात्रों ने देश के 1805 सेंटरों पर योग किया था।  

image.png

स्मरण रहे कि एनसीसी का आधिकारिक गान - कदम मिला के चल को 1963 में स्वीकृति मिली और रक्षा मंत्रालय के अनुमोदन के साथ 1969 में इसका पंजीकरण किया गया। वर्ष 1974 में यह महसूस किया गया कि यह एनसीसी गीत युवाओं में वैसा प्रभाव उत्पन्न करने में सक्षम नहीं है और इसको बदलने की आवश्यकता है। इसके लिए एक लगातार प्रक्रिया आरंभ हो गयी, सभी निदेशालयों से उपयुक्त गीत भेजने को कहा गया, 107 गीत मिले, जिनमें से आठ गीतों को एक अधिकारी मंडल द्वरा चुना गया तथापि, इस मंडल के जज, दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉ. नगेन्द्र को ये आठों गीत स्तरीय नहीं लगे। उन्हीं की सलाह पर यह काम ए.आई.आर. दिल्ली के नाटक प्रभाग के मुख्य निर्माता चिरंजीत को सौंपा गया। सन् 1976 में उनके द्वारा लिखे गये गीत को अनुमोदन प्राप्त हुआ। यह जानना सचमुच रोचक है कि महाराष्ट्र निदेशालय को कहा गया कि श्री राजकपूर की मदद से, बॉम्बे फिल्म प्रभाग इस गीत को संगीतबद्ध और रिकॉर्ड करें, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो पाया क्योंकि श्री राजकपूर अपनी फिल्म सत्यम् शिवम् सुन्दरम् बनाने में व्यस्त थे और फिल्म प्रभाग के स्टूडियो का नवीकरण कार्य चल रहा था। बाद में दिल्ली के एक प्रख्यात कवि श्री महिंदर सिंह बेदी को एक गीत लिखने का अनुरोध किया गया। यह प्रयास भी सफल नहीं हो पाया।

लगभग इसी समय एनसीसी महानिदेशालय के स्वतंत्र प्रयास से फिल्म प्रभाग ने एनसीसी -एक कैडेट की डायरी नाम से एक वृत्त चित्र के निर्देशक को इस फिल्म के लिए एक उपयुक्त गाने की तलाश थी। उन्होंने 1968-69 में चंडीगढ के एक युवा महोत्सव के दौरान हम सब हिंदी हैं नाम का गीत पहली बार सुना और इस गीत को उन्होंने अपनी फिल्म में शामिल कर लिया। यह गीत लोकप्रिय हुआ और आने वाले कई महानिदेशकों ने गणतंत्र दिवस शिविरों में इसे बार-बार बजाया। 1980 में इसके शब्द हिंदी को बदल कर भारतीय कर दिया गया।

भारत में एनसीसी का गठन 1948 के राष्ट्रीय कैडेट कोर अधिनियम के साथ हुआ था। इसे 15 जुलाई 1948 को रेज़ किया गया था। हमें हमेशा याद रखना होगा कि पाकिस्तान के साथ 1965 और 1971 के युद्धों के दौरान, एनसीसी रक्षा की दूसरी पंक्ति थी। कैडेट्स की अहम भूमिका इतिहास के दर्ज़ है। एनसीसी कैडेटों ने नागरिक रक्षा अधिकारियों के हाथों में काम किया और सक्रिय रूप से बचाव कार्य और यातायात नियंत्रण में हिस्सा लिया। दुश्मनों की खोज खबर लेने में भी मदद की। 

गुजरते वक्त के साथ नए दौर की मांग को ध्यान में रखते हुए रक्षा की दूसरी पंक्ति होने की बजाय, एनसीसी पाठ्यक्रम ने नेतृत्व विकास तथा व्यक्तित्व विकास के गुणों पर अधिक बल दिया। सामाजिक सेवा और युवा प्रबंधन जैसे अन्य क्षेत्रों को अधिक महत्व दिया गया। एनसीसी सामाजिक सरोकार के लिहाज़ से अपनी अलग पहचान लगा। देश के युवाओं में चरित्र, साहचर्य, अनुशासन, नेतृत्व, धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण, एडवेंचर की भावना एवं निस्वार्थ सेवा के आदर्श का विकास करना। मूलतः इस स्वैच्छिक और शैक्षिक संगठन का उद्देश्य है - देश के युवाओं में चरित्र, साहचर्य, अनुशासन, नेतृत्व, धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण, साहस की भावना एवं निस्वार्थ सेवा के आदर्श का विकास करना। जीवन के हर क्षेत्र में नेतृत्व प्रदान करने एवं राष्ट्र की सेवा के लिए हमेशा उपलब्ध संगठित, प्रशिक्षित एवं प्रोत्साहित युवा मानव संसाधन तैयार करना। सशस्त्र सेनाओं में अपना कैरियर शुरु करने के लिए युवाओं को प्रोत्साहित करने के लिए उचित परिवेश उपलब्ध कराना। एन सी सी का अधिचिह्न एनसीसीअक्षरों से युक्त स्वर्णांकित क्रेस्ट है, जिसकी पृष्ठभूमि में लाल, नीला तथा हल्का नीला रंग है।

जो युवा भारतीय सेना में शामिल होकर देश सेवा को अपना करियर बनाना चाहते हैं, उनके लिए कॉलेज लाइफ में एनसीसी एक बढ़िया माध्यम बन सकता है। एनसीसी से बनती करियर की कुछ संभावनाएं इस तरह हैं -राज्य और केंद्र सरकार की नियुक्तियों में एनसीसी कैडेट को मिलती है प्राथमिकता। एनसीसी के सी सर्टिफिकेट प्राप्त कैडेट्‍स के लिए इंडियन मिलेट्री एकेडमी में सीटें रिजर्व होती हैं। एनसीसी बी या सी ‍सर्टिफिकेट प्राप्त कैडेट्‍स को शॉर्ट सर्विस कमीशन में सीडीएस की लिखित परीक्षा नहीं देनी पड़ती। कई कॉर्पोरेट कंपनियां एनसीसी के सर्टिफिकेट धारी को प्राथमिकता देती हैं। आर्म्ड फोर्सेस और पैरामिलेट्री फोर्सेस में एनसीसी सी ‍सर्टिफिकेट धारी को विशेष छूट दी जाती है। कुछ सीटें उनके लिए रिजर्व होती हैं। नेवी के हर कोर्स में छूट हर कोर्स में होती है। 

विदेश जाने के अवसर भी मिलते हैं। हर साल एनसीसी यूथ एक्चेंज प्रोग्राम के तहत चुनिंदा कैडेट्‍स को विदेश भेजा जाता है। इससे कैडेट्‍स को वहां की संस्कृति और सभ्यता को समझने का मौका मिलता है। कैडेट्‍स कई तरह की प्रतियोगिता में भी हिस्सा लेते हैं। गणतंत्र दिवस पर हर साल निकलने वाली परेड के लिए भी एनसीसी कैडेट्‍स का चयन किया जाता है। नेशनल कैडेट कोर के छात्र झंडे की तरह ही अलग-अलग रंग की वर्दी भी पहनते है - खाकी सेना के लिए, सफेद नौसेना के लिए और हल्की नीली वायु सेना के लिए होती है। आपको बता दें कि एनसीसी समूह का नेतृत्व 'लेफ्टिडेंट जनरल' रैंक के अधिकारी द्वारा किया जाता है। बेशक अगर आप स्कूल या कॉलेज लाइफ में  एनसीसी एक बहुत अच्छा माध्यम बन सकता है।
--------------------------------------
हिंदी विभाग 
शासकीय दिग्विजय महाविद्यालय 
राजनांदगांव मो. 9301054300 


Saturday, September 15, 2018

चिंतन 
-----------------------------

चिंतन का दैनिक जीवन और जीवन के विकास में बड़ा महत्त्व है। मन की गति पर नियंत्रण ही चिंतन की सही दिशा का आधार है। मन के तीन गुण होते हैं-सतोगुण, तमोगुण और रजोगुण। मन में जिस वक्त जिस गुण की प्रधानता होती है, हमारे व्यक्तित्व पर उस समय उसी तत्व की अमिट छाप परिलक्षित होती है। मन में जैैसा चिन्तन चल रहा होता है, हमारी क्रियाएं वैसी ही होती हैं। ये क्रियाएं ही हमारी आदतों का निर्माण करती हैं और आदतों के समूह से मनुष्य का स्वभाव बनता है। यह स्वभाव ही हमारे व्यक्तित्व का दर्पण है। व्यक्तित्व ही हमारे जीवन की पहचान है। 

इसी तरह शरीर को कोई नश्वर कह  ही कहे, पर नश्वर शरीर में अनश्वर का बसेरा है। शरीर को कोई चाहे माटी ही समझे, पर माटी के शरीर में ही अमृत का वास है। हम यह न भूलें कि भले ही शरीर किसी के लिए सिर्फ माटी हो, हमारे लिए तो वह मंगल कलश के समान है। बूँद का सीप तक पहुँच जाना ही उसका सौभाग्य है, उसी तरह शरीर और मन का रूपांतरण भी मनुष्य का सौभाग्य बन जाता है। हम प्रतिदिन कुछ पल विचार करें तो माटी के पुतले को भी जीवंत सिद्ध कर  सकते हैं। हम अपनी वास्तविक शक्ति को पहचानें। शरीर के धरातल पर उगते सूरज की किरणों का अनुभव करें। इस सत्य पर भरोसा रखें कि जैसा आप सोचेंगे, वैसी गति होगी। जैसी गति, वैसी प्रगति। जैसा संकल्प, वैसा कर्म और जैसा कर्म, वैसा परिणाम मिलेगा। 

दूसरी तरफ हम धयान दें कि हमारा मन अनन्त शक्ति का भण्डार है। मन एक सीढ़ी की तरह है जो हमें सफलता के शिखर पर पहुंचा सकता है और पतन के गर्त में भी पहुंचा सकती है। मन की शक्तियों को लक्ष्य पर लगाया जाए तो सफलता अवश्य मिलती है। इसलिए आवश्यकता मन को एकाग्र करने की है। 
मन की तन्मयता कल्याण का अचूक अस्त्र है। 

महात्मा गौतम बुद्घ ने अपने मन की सारी शक्तियों को करूणा पर केन्द्रित कर दिया, जबकि भगवान महावीर स्वामी ने अपने मन की सारी शक्तियों को अहिंसा पर केन्द्रित कर दिया। दोनों महात्माओं ने करूणा और अहिंसा को विस्तार दिया तथा इनका ही प्रचार-प्रसार किया और मोक्ष को प्राप्त हो गये। यह सब मन की एकाग्रत का फल है। ध्यान रहे, मन की एकाग्रता में भी पवित्रता का होना नितान्त आवश्यक है क्योंकि एकाग्र तो बगुला भी होता है किंतु उसके मन में पवित्रता नहीं होती है वह मछली को निगलने की ताक में रहता है। एकाग्रता और पवित्रता का उदाहरण देखना है तो पपीहे की देखिये, जो स्वाति नक्षत्र की बूंद के लिए ध्यानस्थ रहता है।

परन्तु मन है कि भटकने से बाज़ नहीं आता है। उसे धन चाहिए, यश चाहिए, तृप्ति चाहिए। तीनों मिल जाएँ तो भी और अधिक चाहिए। लेकिन याद रहे कि घातक न धन है, न यश, न ही काम। घातक है इनका अँधा प्रवाह, अंधी चाह और अंधा उपभोग। इन पर अंकुश लग सकता है अगर मन पर नियंत्रण हो जाए। पानी पर तैरते हुए दीप कितने प्यारे लगते हैं। भीतर के समंदर में भी न जाने कितने शुभ विचारों के नन्हें-नन्हें दीप तैर रहे हैं। जरूरत है कि हम कभी अपने भीतर भी उतर कर देखें। 

अपने दिल में डूबकर पा ले सुराज ज़िंदगी 
तू अगर मेरा नहीं बनता, न बन अपना तो बन। 

अपने मन में डूबकर जब हम देखते हैं तो पाते हैं हम वही हैं जो हमने स्वयं को बनाया है। हमें वही मिला है जो हमने कमाया है। विश्व विख्यात वौज्ञानिक आइंस्टाइन ने समय सापेक्षता का सिद्धांत दिया । उन्होंने कहा दोलन को आप जिस स्थान से छोड़ोगे दोलन लौटकर उसी स्थान पर आता है। यही दशा मानवीय व्यवहार की है अर्थात हम जैसा व्यवहार संसार के साथ करेंगे लौटकर वही व्यवहार हमारे पास आता है। यूरोप के प्रसिद्द दार्शनिक हीगल ने भी 'क्रिया से प्रतिक्रिया' का का दर्शन समझाया था। अभिप्राय यह है कि 'जैसा बोयेंगे ,वैसा ही काटेंगे । 

हम कभी न भूलें कि मानवीय व्यवहार का आधार वाणी है और वाणी का आधार मन है। मन में उठने वाली तरंगों को शब्दों का रूप वाणी ही देती है। वाणी का मूर्त रूप ही हमारा व्यवहार बनता है। भाव यह है कि जैसा मन होगा, वैसी वाणी होगी, और जैसी वाणी होगी, व्यवहार वैसा ही परिलक्षित होगा। हम विचार और मन के तिलिस्म और संबंधों को समझने का प्रयास करें। शांत मन रखकर हम हर समस्या का समाधान प्राप्त कर सकते हैं। 

हम अपने मन को इस योग्य बना लें कि वह खुद ऐलान कर दे कि निराश मत हो, जीवन में बाधाएं तो आएंगी ही। जैसे सागर के जल से लहरों को अलग नहीं किया जा सकता है, ठीक इसी प्रकार जीवन से समस्याओं को दूर नहीं किया जा सकता है। इनसे तो जूझना ही पड़ता है। पानी की तरह रास्ता ढूंढऩा पड़ता है, और यह निश्चित है कि हर समस्या का समाधान है बशर्ते कि मनुष्य हिम्मत और विवेक से काम ले। 

जीवन में छोटी अथवा बड़ी बाधा हमारे हमारी हिम्मत की परीक्षा लेने आती है। सोने को भी अग्नि में परीक्षा देनी होती है, तभी वह कुंदन बनता है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य महान तभी बनता है, जब वह बाधाओं की भट्टियों में तपता है। संसार के सभी महापुरूष अवश्य तपे हैं तभी उनका जीवन निखरा है। फूल को पत्ते कितना भी छिपा लें, उसकी खुशबू को कोई छिपा नहीं सकता। जो इरादे का धनी होता है, उसे मंजिल-ए-मकसूद से कोई रोक नहीं सकता।

जीवन का मूल्य मृत्यु से नहीं चुकता। जीवन का मूल्य जीवन से ही पूरा होता है। हम जीवन के प्रति जितने आशावान होंगे, जीवन हममें उतना ही विश्वास भरेगा। 
जीवन पेड़ से टूटे हुए पत्ते की तरह नहीं कि पवन जहां ले जाए उड़ता चले,  वह कागज की नाव भी नहीं है कि लहरें अपने साथ बहने के लिए मज़बूर कर दें।  जीवन मन की लगाम कसकर, शरीर, विचार और भाव की योग साधना का अपूर्व अवसर है। इस अवसर को कभी खोना नहीं है।  

हम जीवन पर अपनी पकड़ रहते ही तय कर लें कि हमारे लिए योग्य क्या है और अयोग्य क्या है ? हम अनुचित का चिंतन बंद कर दें। अनावश्यक को पीछे छोड़ दें। उन्हें साफ़ शब्दों में पूरी शक्ति से कह दें कि हमें उनकी कोई ज़रुरत नहीं है। फिर पूरा ध्यान अपने काम में लगाएं और काम के दौरान सिर्फ काम करें, उस पर चिंतन करके काम में बाधा पैदा न करें। परिणाम की चिंता भी छोड़ दें। अपने प्रयास पर पूरा भरोसा रखें। 

हम हमेशा याद रखें कि  जहां चाह, वहां राह। पानी को बाधा रोकती है, किंतु एक दिन वह भी आता है कि पानी बाधा के सिर के ऊपर से बहता है, बाधा का नामोनिशान मिटा देता है। फिर हम हिम्मत क्यों निराशा में मन को डुबोएँ ? 
आखिर क्यों मायूस होकर चुचाप बैठ जाएँ ? नहीं, आज और अभी उठने, चलने और आगे बढ़ने का संकल्प करें। उपनिषद के इन शब्दों को याद रखें - उतिष्ठं जाग्रत: चरैवेति-चरैवेति।