Tuesday, March 23, 2010

मुस्कान घोलिए....

रह जाए टूटकर कोई ऐसा न बोलिए
ताला है दिल तो प्यार की चाबी से खोलिए
ख़ुद का कमाल देखना चाहें तो आप भी
चेहरे के हाव-भाव में मुस्कान घोलिए
खुशियाँ मिलीं तो प्यार में सबमें वो बाँट दीं
ग़र ग़म मिले तो बैठ के चुपचाप रो लिए
रहजन मिले हैं बारहा रहबर की शक्ल में
वो हम न थे जो रहजनों के साथ हो लिए
ऊँचाइयों के बाद ढलानें तो आएंगी
'कौशल' जरा सी बात पे इतना न डोलिए
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श्री मुकुंद कौशल की ग़ज़ल साभार प्रस्तुत.

Sunday, March 21, 2010

खबर बनती है.

क़त्ल करने या कराने पे खबर बनती है
अस्मतें लुटने, लुटाने पे खबर बनती है

कोई पूछेगा नहीं लिख लो किताबें कितनी
अब किताबों को जलाने पे खबर बनती है

नाचने वाले बहुत मिलते हैं इस दुनिया में
अब तो दुनिया को नचाने पे खबर बनती है

बात ईमां की करोगे तो रहोगे गुमनाम
आज तो जेल में जाने पे खबर बनती है

कुछ नहीं होगा बसाओगे जो उजड़े घर को
आग बस्ती में लगाने पे खबर बनती है

भूख से रोता है बच्चा तो उसे रोने दे
दूध पत्थर को पिलाने से खबर बनती है

कितना नादां है अनिल उसको ये मालूम नहीं
आग पानी में लगाने पे खबर बनती है
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डॉ.अनिल कुमार जैन की रचना...
नई दुनिया २१ मार्च २०१० से साभार.

Saturday, March 20, 2010

ख़ूब कही.....!

जीवन हमें जो ताश के पत्ते देता है,
उन्हें हर खिलाड़ी को स्वीकार करना पड़ता है।
लेकिन जब पत्ते हाथ में आ जाएँ,
तो खिलाड़ी को यह तय करना ही होता है कि
वह उन पत्तों को किस तरह से खेले
कि.....वह बाज़ी जीत सके।
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वाल्टेयर
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बोले या लिखे गए दुखद शब्दों में
सबसे दुखद शब्द हैं.....
" मैं यह काम कर सकता था। "
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व्हिटियर
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Saturday, March 13, 2010

परस्पर....!

अच्छा मनुष्य अच्छा मनुष्य
जरा उस मनुष्य को देखो
जो अच्छा है इसलिए रोता है
और जो रोता है इसलिए अच्छा है
रोता हुआ मनुष्य अच्छा है
या अच्छा मनुष्य रोता हुआ है
एक सड़क पर मैंने देखे दो लोग
एक अच्छा था और रोता था
एक रोता था और अच्छा था
उन्हें इसका एहसास भी नहीं था
और अब तो दोनों के चेहरे
एक दूसरे में प्रवेश कर गए थे
उलझते-झगड़ते गडमड होते हुए।
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श्री मंगलेश डबराल की कविता ....हरिभूमि के
रविवारीय अंक १४ मार्च २०१० को प्रकाशित...साभार

Friday, January 29, 2010

मत बनाओ....गाँव को अपना निशान

रहने दो
गज भर जमीन
रहने दो
माटी के घेरे
रहने दो
खुले सपने
थोड़े तेरे-थोड़े मेरे
मत बांधो-सौंधी महक
मत बांधो
पगडंडी के घेरे

कहाँ मिलेगा-
फिर खुला दालान
अतृप्त नयन
पायेंगे कहाँ
खुला आसमान
मतवाली बारिश
किन प्रेमी युगलों का
करायेगी स्नान
यौवन की धड़कन
कहाँ दौड़ पायेगी
विश्राम
उड़ते पक्षी थके-हारे
कहाँ पाएंगे अपने निशान
छोड़ दो थोड़ी जमीन
मत बनाओ
गावों को अपना निशान
हरियाली में सजी
वसुंधरा का
मत करो चिर विराम
मत बसाओ शहर को गाँवों में
बसने दो उसे अपनी अस्मिता की
सुदृढ़ बाहों में.....!
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डॉ.नलिनी पुरोहित की कविता साभार प्रस्तुत

Wednesday, December 23, 2009

सुना है आपने...?

होंठ बुदबुदाते हैं,
दुआ मांगते हैं,
वह सुनी है आपने ?
हर आरज़ू के पीछे
क्या होता है
ज़िम्मेदारी या प्यार
स्नेह, किसी कमी का
एहसास या
वह पूरी होगी ही
ऐसा अटूट विश्वास
हर ख़्वाहिश के पीछे कुछ
गूंजता है,
सुना है आपने ?
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प्रियंका शुक्ला की पंक्तियाँ, दैनिक भास्कर की
मधुरिमा से साभार...

Saturday, November 7, 2009

रिश्ते की खोज...!

मैंने तुम्हारे दुःख से
अपने को जोड़ा
और
अकेला हो गया
मैंने तुम्हारे सुख से
अपने को जोड़ा
और
छोटा हो गया
मैंने सुख-दुःख से परे
अपने को तुमसे जोड़ा
और
अर्थहीन हो गया
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सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता साभार