Wednesday, December 29, 2010

होना चाहता हूँ मैं बीज...!


बीज से सीखा है मैंने.
सीखा है मैंने
उर्वर-धरती की कोख में
ख़मोशी से
उतर जाना
घुल-मिल जाना
इसकी प्यारी मिट्टी से.
अँखुआना
चुप्पी तोड़ना
और ज़मीं फाड़कर बाहर आना
बीज से ही सीखा है
लहलहाना
कैद परतों से
बाहर आना
धरती की खुली सतह पर
मुस्तैद खड़ी उस फसल के मानिंद
इसलिए -
होना चाहता हूँ मैं बीज...
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श्री रामेश्वर की कविता साभार प्रस्तुत.

Thursday, December 23, 2010

कविता ; क्षणांश भी....!


पत्थर मारने पर भी
फूल देते हैं वृक्ष
नुकीले हल से
वक्ष को छलनी करने पर भी
फसल देती है धरती
तिल-तिल जलकर भी
खाना पकाती है आग
धुआँ घोलने पर भी
प्राण वायु देती है हवा
सूरज लोहे जैसा लाल तपकर भी
देता है रोशनी
यह सब नहीं सोचता
शांत मन से मनुष्य
वरना उसे इंसान बनने में
नहीं लगता क्षणांश भी !
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श्री विजय राठौर की कविता साभार प्रस्तुत.

Saturday, December 4, 2010

चिंतन : जीवन है वर्तमान का दूसरा नाम...!


बहुत विचित्र है मानव मन. कभी यह मन अपने अदृश्य पंखों से हिमालय की ऊँचाइयों तक पहुँचना चाहता है, कभी उन्हीं पंखों को समेटकर सागर की गहराइयाँ नापना चाहता है. कभी धूमिल अतीत को याद करता है, तो कभी स्वप्निल भविष्य में खो जाता है हमारा मन.सिर्फ़ वर्तमान को छोड़कर काल के सभी खण्डों में भटकने का आदी हो जाता है मानव मन.

परन्तु, जीवन इतना भोला भी नहीं है की मन की यायावरी के खाते में,मनचाही सारी चीज़ें डाल दे. न ही जीवन इतना क्रूर है कि जो मन आज की सच्चाई को जिए, हक़ीकत के रूबरू हो उसे बरबस बिसार दे. इसलिए स्मरण रखना होगा कि जीवन का एक ही अर्थ है वह जो है आज और अभी. कहीं और नहीं, बस यहीं.

आप इस क्षण में जहाँ हैं, वहाँ जो हैं, जैसे भी हैं, जीवन की संभावना जीवित है। जीवन वर्तमान का दूसरा नाम है. गहराई में पहुँचकर देखें तो मन के हटते ही जीवन का सूर्य चमक उठता है. इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि मन को लेकर मन भर बोझ लिए चलने वाले के हाथों ज़िन्दगी के संगीत का सितार कभी झंकृत नहीं हो सकता.

जहाँ जीवन है वहाँ यह चंचल मन पल भर भी ठहर नहीं सकता. आप जो घट चुका है,उसमें कण भर भी न तो कुछ घटा सकते हैं और न ही उसमें रत्ती भर कुछ जोड़ना संभव है. दरअसल जो घट चुका वह अब है ही नहीं. और जो अभी घटा ही नहीं है वह भी आपकी पहुँच से बाहर है. फिर वह क्या है जिसे कहीं और खोजने की कोई ज़रुरत नहीं है ?

ज़ाहिर है कि है तो केवल वही जो अभी है, यहीं है. इस क्षण है. वह जो न तो घटा है और न घटेगा बल्कि वह जो घट रहा है. यहाँ अगर थोड़ी सी भी चूक हुई कि आप भटक जायेंगे. क्योंकि हाथों में आया एक पल, पलक झपकते ही फिसल जाता है. वह क्षण जो आपको अनंत के द्वार तक ले जाने की शक्ति रखता है. आपकी ज़रा सी चूक या भूल हुई कि वही क्षण सिमटकर विगत बन जाएगा. फिर वह आपके चेतन का नहीं,, मन का हिस्सा बन जाएगा. मीरा ने यदि कहा है कि 'प्रेम गली अति सांकरी' और जीसस ने भी पुकारा है कि समझो 'द्वार बहुत संकरा है' तो उसके पीछे शाश्वत की लय है. अनंत का स्वर है.

जीवन का जो क्षण हाथ में है उसमें जी लेने का सीधा अर्थ है भटकाव की समाप्ति। वहाँ न अतीत का दुःख-द्वंद्व है, न भविष्य की चिंता. यही वह बिंदु है जहाँ आप विचलित हुए कि जीवन आपसे दूर जाने तैयार रहता है. हाथ में आए जीवन के किसी भी क्षण की उपेक्षा, क्षण-क्षण की गयी शाश्वत की उपेक्षा है. यह भी याद रखना होगा कि क्षण को नज़रंदाज़ करने पर वही मिल सकता है जो क्षणभंगुर है. वहाँ अनंत या शांत चित्त का आलोक ठहर नहीं सकता.

शायद वर्तमान छोटा होने कारण भी आपके समीप अधिक टिक न पाता हो. ,क्योंकि बीता हुआ समय बहुत लंबा है और जो आने वाला है उसकी भी सीमा तय करना आसान नहीं है. इसलिए, मन उसके पक्ष में चला जाता है जिसमें ऊपर का विस्तार हो. वह अतीत में जीता है या भविष्य में खो जाता है. सोचता है मन कि अभी तो बरसों जीना है. आज और अभी ऐसी क्या जल्दी है कि बेबस और बेचैन रहा जाए ?

पर भूलना नहीं चाहिए कि अपने वर्तमान को भुलाकर कुछ भी हासिल किया जा सके यह मुमकिन नहीं है. द्वार तक पहुँचकर स्वयं द्वार बंद कर देना समझदारी तो नहीं है न ? 'अतीत' की अति से बचने और 'भविष्य' को भ्रान्ति से बचाने का एक ही उपाय है कि अपने 'वर्तमान' का निर्माण किया जाए. जिसने यह कर लिया समझिये वह मन के भरोसे जीने की जगह पर मन को जीतने में सफल हो गया। प्रकृति अभी है, यहीं है. जाने या आने वाले की फ़िक्र नहीं, जो है उसका ज़िक्र ही ज़िन्दगी है... ज़िन्दगी जिसकी मांग बस इतनी है कि आप हर क्षण को सिर आँखों पर बिठाएँ, जीवन का कर्ज़ चुकाएँ.
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