Sunday, September 30, 2012

छोटे-छोटे काम करें बड़े दिल से...

डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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आम तौर पर मदर टेरेसा के कोलकाता स्थित
अनाथालय की दीवार पर एक
कवितानुमा सुभाषित पढ़कर आप
दो पल के लिए ही सही, ठहर जायेंगे और
कुछ सोचने-समझने
के लिए भी विवश हो जायेंगे.
अंग्रेजी में लिखित केंट केथ की उन पंक्तियों का भावानुवाद
यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ. अनुवाद मैंने स्वयं किया है.
 मदर टेरेसा के प्रति श्रद्धा भाव पूर्वक
सिर्फ़ एक विनम्र प्रयास -
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लोग आपके प्रति

अक्सर अवास्तविक,

अतार्किक और आत्मकेंद्रित हो सकते हैं.

फिर भी आप उन्हें माफ़ कर दें.
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हो सकता है आप दयालु हों

लेकिन लोग आपको स्वार्थी

और छुपी हुई मंशा का व्यक्ति मान सकते हैं

फिर भी

आप उनके प्रति दयालु बने रहें.
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आप अगर सफल होते हैं तो

आपके हिस्से आयेंगे

कुछ गलत मित्र और कुछ सही दुश्मन !

फिर भी

आप आगे बढ़ते रहें.
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अगर आप ईमानदार और दो टूक हैं

लोग आपको धोखा दे सकते हैं

फिर भी

ईमानदारी और बेबाकी मत छोड़ें.
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आपने वर्षों मेहनत करके

जो निर्माण किया है

लोग उसे रातों रात नष्ट कर सकते हैं

फिर भी आप सृजन जारी रखें.
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अगर आप सुखी और शांत हैं

लोग आपसे ईर्ष्या कर सकते हैं

फिर भी आप खुशमिजाजी बनाए रखें.
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आप अगर आज कोई भलाई करते हैं

लोग उसे कल भुला सकते हैं

फिर भी

भलाई की राह न छोड़ें.
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अगर आपने दुनिया को

अपना सर्वश्रेष्ठ भी दे दिया हो

और वह भी कम पड़े

फिर भी बेहतर देने का ज़ज्बा न छोड़ें.
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आप अंततः देखेंगे कि ज़िन्दगी में

सब कुछ

आपके और ईश्वर के बीच ही घटित होता है

किसी भी तरह से

आपके और लोगों के बीच नहीं !
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याद रखें,

हम कोई बड़ा काम भले ही न कर सकते हों  

लेकिन छोटे-छोटे काम

बड़े दिल से जरूर कर सकते हैं !

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Friday, September 28, 2012

सुर साम्राज्ञी पढ़ीं कम पर मिली छह डाक्टरेट !

डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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दुनिया में तकनीकी क्रांति के सूत्रधार स्टीव जॉब्स  
अब संसार में नहीं रहे. सिलिकॉन वैली के आइकन
स्टीव भले ही पूरी शिक्षा नहीं ले पाए हों लेकिन
जिंदगी के हर इम्तिहान में उन्होंने कामयाबी हासिल की।
स्टीव आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन हमारे देश में भी
कई ऎसी कामयाब हस्तियां हैं, जो किसी कारणवश
 भले ही पूरी पढ़ाई नहीं कर पाए हों लेकिन जिंदगी
की रेस में वो बहुत आगे हैं।

30 हजार से ज्यादा गाने गाने वाली

सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर को दुनिया के

छह विश्वविद्यालयों ने डॉक्टरेट की डिग्री दी है।

लेकिन सच्चाई ये है कि लता मंगेशकर ने सिर्फ

कुछ महीने ही स्कूल में बिताए हैं।
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एक और नाम है मिकी मुकेश जगतियानी। दुबई में रहते हैं और उनकी रिटेल कंपनी लैंडमार्क ने दुनियाभर में कामयाबी के झंडे गाड़ रखे हैं। भारत, पाकिस्तान, खाड़ी देशों के अलावा स्पेन और चाइना समेत 15 देशों में उनके 900 से ज्यादा रिटेल स्टोर हैं। उन्हें लोग "रिटेल किंग" के नाम से भी जानते हैं। पिछले दिनों खाड़ी सहयोग परिषद ने गल्फ देशों में सबसे अमीर भारतीयों की एक लिस्ट जारी की, जिसमें सबसे ऊपर मिकी जगतियानी का ही नाम है। 3.2 अरब डॉलर के साम्राज्य के मालिक मिकी जगतियानी ने बीच में पढ़ाई छोड़ दी थी और कारोबार में लग गए।

उनकी स्कूली शिक्षा मुंबई से शुरू हुई। इसके बाद लंदन अकाउंटिंग स्कूल में उनका एडमिशन हुआ, लेकिन जगतियानी का मन पढ़ाई लिखाई में लगा नहीं और उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। 1973 में उन्होंने लैंडमार्क कंपनी बनाई और बहरीन में अपना पहला स्टोर खोला और आज जगतियानी कामयाबी की बुलंदी पर हैं। 31 हजार लोग उनकी कंपनी में नौकरी कर रहे हैं। यही नहीं जगतियानी समाजसेवा में भी बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हैं।

लाइफ यानी लैंडमार्क इंटरनेशनल फाउंडेशन फॉर एम्पावरमेंट नाम से उनका एक ट्रस्ट भी है जो हिंदुस्तान में एक लाख से ज्यादा बच्चों की पढ़ाई लिखाई, वोकेशनल ट्रेनिंग और मेडिकल सुविधाओं का जिम्मा उठा रहा है। मिकी भले ही पढ़ाई के मामले में ड्रॉपआउट हों, लेकिन जिंदगी के इम्तिहान में हमेशा अव्वल रहे हैं। जो कुछ बने अपने दम पर बने, जो कुछ बनाया, अपने दम पर बनाया।

सॉफ्टवेयर निर्माण से जुड़ी दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक विप्रो के चेयरमैन अजीम प्रेमजी का नाम दुनिया के सबसे अमीर लोगों में शुमार है। फ़ोर्ब्स मैगजीन के मुताबिक वे दुनिया के 26वें नंबर के अमीर इंसान हैं। मैग्जीन ने उन्हें भारत का बिल गेट्स का खिताब दिया है। 64 वर्षीय अजीम प्रेमजी भारत में विश्व स्तरीय शिक्षा के द्वार खोलने में लगे हुए हैं। इसके लिए उन्होंने 450 करोड़ रूपए का दान भी दिया है। यही नहीं पिछले साल गरीब बच्चों की पढ़ाई पर खर्च के लिए अजीम प्रेमजी ने 9000 करोड़ रूपए का दान दिया था।

ये शायद इस वजह से भी हो कि खुद अजीम प्रेमजी ज्यादा पढ़ लिख नहीं पाए। 1966 में अजीम प्रेमजी इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने अमरीका के स्टैंडफोर्ड यूनिवर्सिटी गए थे। लेकिन इसी साल उनके पिता का देहांत हो गया, लिहाजा फैमिली बिजनेस संभानले के लिए उन्हें घर लौटना पड़ा। उस वक्त अजीम प्रेमजी की उम्र सिर्फ 21 साल थी। पढ़ाई छूट गई और बिजनेस में रम गए अजीम प्रेमजी। अपनी मेहनत और लगन से साबुन और तेल बेचने वाली कंपनी विप्रो को अजीम प्रेमजी ने दुनिया की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनियों में शामिल कर दिया। आज दौलत उनके कदम चूमती है। एक बात उन्हें हमेशा कचोटती है कि वे अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए। शायद इसीलिए बात शिक्षा की हो तो इसके लिए अजीम प्रेमजी दिल खोलकर दान देते हैं।

भारत के मीडिया मुगल कहे जाने वाले सुभाष चंद्रा का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। उनकी जिंदगी की कहानी जर्रे से आफताब बनने की कहानी जैसी है। एस्सेल ग्रुप के चेयरमैन सुभाष चंद्रा देश में सेटेलाइट टेलीविजन क्रांति के जनक माने जाते हैं। उनके जी नेटवर्क के दो दर्जन से ज्यादा चैनल चल रहे हैं। 60 साल के सुभाष चंद्रा बड़े-बड़े जोखिम लेना जानते हैं। कुछ सालों पहले तो उन्होंने बीसीसीआई को चुनौती देते हुए इंडियन क्रिकेट लीग तक बना ली थी। सुभाष चंद्रा ने तालीम रिसर्च फाउंडेशन ट्रस्ट की भी स्थापना की, वे एकल विद्यालय फाउंडेशन के चेयरमैन भी हैं, लेकिन खुद सुभाष चंद्रा को कभी पढ़ाई से ज्यादा प्यार नहीं रहा। कॉपी किताबों से दूर भागते थे। हरियाणा के हिसार में जन्मे सुभाष चंद्रा ने 12वीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी।19 साल की उम्र में उन्होंने वेजिटेबल ऑयल की यूनिट लगाई और कारोबार शुरू किया। फिर चावल का व्यापार करने लगे। इसके बाद सुभाष चंद्रा अनाज एक्सपोर्ट के व्यवसाय में लग गए।

1981 में सुभाष चंद्रा एक पैकेजिंग एक्जिबिशन में गए तो वहीं उन्हें एस्सेल पैकेजिंग कंपनी बनाने का ख्याल आया और उन्होंने कंपनी बनाई भी। धीरे धीरे सुभाष चंद्रा का कारोबार बढ़ता गया। बाद में वे ब्रॉडकास्टिंग के बिजनेस में उतर गए। 2 अक्टूबर 1992 में उन्होंने जी टीवी के नाम से देश का पहला प्राइवेट सेटेलाइट चैनल शुरू किया। इसके बाद तो चैनल पर चैनल आते गए। सुभाष चंद्रा आज अरबों रूपए की संपत्ति के मालिक हैं, लेकिन आज भी उनका जमीन से रिश्ता टूटा नहीं है।

बाबा रामदेव जब वेद, वेदांत और दर्शन पर बोलते हैं तो ऎसा लगता है कि जैसे धर्म, अध्यात्म और दर्शन में उन्होंने पीएचडी कर रखी है, लेकिन आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि योग गुरू बाबा रामदेव भी स्कूल ड्रॉपआउट हैं। बाबा रामदेव का जन्म 1965 में हरियाणा के मेहरानगढ़ जिले के अली सैयदपुर गांव में हुआ था। उनका नाम रखा गया था रामकृष्ण यादव। सिर्फ 9 साल की उम्र में बाबा ने घर छोड़ दिया था। उन्होंने खानपुर में आदर्श गुरूकुल ज्वाइन किया जहां उन्होंने संस्कृत और योग की शिक्षा ली। इसके बाद उन्होंने पढ़ाई आगे नहीं बढ़ाई। बाबा ने योग और आयुर्वेद को एक नई जिंदगी दी। अपने दम पर उन्होंने पूरा साम्राज्य खड़ा कर लिया है।

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Wednesday, September 26, 2012

उच्च शिक्षा में 'क्रेडिट ट्रांसफर सिस्टम' पर रज़ामंदी


डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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मो.9301054300

पिछले दिनों देश के करीब 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की
एक बैठक में उच्च शिक्षा के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए,
जिनके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।
बैठक में यह निर्णय लिया गया कि देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में
स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर प्रवेश के लिए एक अभियोग्यता परीक्षा कराई जाए।
इस संदर्भ में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति
बीबी भट्टाचार्य की अध्यक्षता में एक समिति भी बना दी गई है.
प्रस्ताव के अनुसार केंद्रीय विश्वविद्यालयों में
बीए, बीएससी और बीकॉम आदि स्नातक स्तर की कक्षाओं में प्रवेश के लिए
एक संयुक्त परीक्षा कराई जाएगी।
इसके अलावा क्रेडिट ट्रांसफर पद्धति का लाभ भी
प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को मिलेगा.

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आरंभ में तो प्रस्ताव था कि सिर्फ इस अभियोग्यता परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर मेरिट से उम्मीदवारों को अपनी वरीयता के आधार पर विभिन्न केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश दिया जाए। हालांकि यह अच्छा हुआ कि इसी बैठक में केवल इस परीक्षा के अंकों के आधार पर ही प्रवेश को नकार दिया गया। यह निर्णय लिया गया है कि इन अंकों के अतिरिक्त बारहवीं की परीक्षा में प्राप्त अंकों को भी एडमिशन आधार बनाया जाए। अर्थात दोनों के अंकों को जोड़कर योग्यता सूची बनाई जाएगी। बारहवीं के अंकों को सिरे से खारिज कर देना एक तरह से उस सारे ज्ञान और मेहनत पर पानी फेर देना होता, जो विद्यार्थियों ने अब तक हासिल किया था।

फिर संयुक्त अभिरुचि परीक्षा का जो प्रस्तावित प्रारूप है, वह भी थोड़ा शहरी और कान्वेंट स्कूलों की ओर झुका सा है, जिससे ग्रामीण और छोटे शहरों-कस्बों के विद्यार्थियों को अपेक्षाकृत कठिनाई होगी। परीक्षा के प्रारूप में सामान्य ज्ञान और व्यक्तित्व परीक्षण विषयों से संबंधित सवाल पूछे जाने का प्रस्ताव था। जाहिर है कि इन विषयों में गांवों-कस्बों के अति प्रतिभाशाली विद्यार्थी भी पीछे रह जाते हैं क्योंकि न तो उन स्कूलों में पर्याप्त संसाधन, आधुनिक आधारभूत संरचनाएं और व्यवस्था होती है और न ही उपरोक्त विषय में उनका वैसा शिक्षण-प्रशिक्षण होता है। अत: यह पैटर्न तो उनके विरुद्ध ही जाएगा। दरअसल, इस तरह की अभिरुचि और अभियोग्यता परीक्षा की अवधारणा अमेरिका के स्कोलास्टिक असेसमेंट टेस्ट (सैट) पर आधारित है।

अमेरिकी विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तर पर प्रवेश सैट स्कोर के आधार पर किया जाता है। वैसे वहां भी कुछ विश्वविद्यालयों ने सिर्फ सैट के आधार पर एडमिशन का विरोध किया है। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के कुलपति रिचर्ड एटकिंसन ने 2001 में सैट पर बहुत ज्यादा जोर देने का विरोध किया था। हालांकि सैट का परीक्षा पैटर्न काफी संतुलित है। इसमें गणित, विवेचनात्मक पठन और लेखन पर सवाल होते हैं, जिनमें सिर्फ कान्वेंट स्कूलों का वर्चस्व नहीं होता। फिर वहां सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में हमारे यहां जैसा कोई ज्यादा अंतर भी नहीं होता।आशाहै कि इस परीक्षा का प्रारूप बनाते वक्त देश के ग्रामीण और कस्बाई स्कूलों की स्थिति को ध्यान में रखा जाएगा। इसी से जुड़ा हुआ एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा है बारहवीं के अंकों का।

कई शिक्षाविदों का कहना है कि बारहवीं के अंकों में भी एक स्केलिंग या समायोजन किया जाए। होता यह है कि सीबीएसई बोर्ड अथवा आईसीएसई बोर्ड परीक्षा में 90 फीसदी अंक लाना अत्यंत कठिन नहीं है। हजारों छात्र इससे अधिक अंक ले आते हैं। जबकि झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा आदि अन्य बोडरें में 85 प्रतिशत अंक तो टॉपर भी यदाकदा ही ला पाते हैं। ऐसे में बहुत जरूरी है कि विभिन्न बोर्डों की परीक्षा प्रणाली में समानता हो, जिससे विभिन्न राज्यों के प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को भेदभाव का शिकार न होना पड़े।

क्रेडिट ट्रांसफर क्या है ?
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इस बैठक का एक महत्वपूर्ण बिंदु था-क्रेडिट ट्रांसफर की व्यवस्था पर रजामंदी। यह अपने आपमें एक क्रांतिकारी व्यवस्था है, जिसमें कोई प्रतिभाशाली छात्र उन विषयों की पढ़ाई दूसरे विश्वविद्यालयों में कर सकता है, जिनकी पढ़ाई उसके विश्वविद्यालय में नहीं होती और वहां प्राप्त क्रेडिट या अंक उसके कुल अंकों में जुड़ जाएंगे। अमेरिका और यूरोप में यह व्यवस्था बहुत पहले से है। इन देशों में तो न केवल एक विश्वविद्यालय से दूसरे विश्वविद्यालय में क्रेडिट ट्रांसफर होता है, बल्कि एक देश से दूसरे देश के विश्वविद्यालय में भी यह संभव है।

कुछ ऐसी ही स्थिति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने देश में भी संभव है, जिसमें हमारे छात्र बाहर और विदेशी छात्र हमारे यहां शिक्षा ग्रहण कर सकेंगे। इससे हमारे छात्रों को जहां श्रेष्ठ विदेशी विश्र्वविद्यालयों में पढ़ने का मौका मिल सकेगा, वहीं विदेशी छात्रों के आगमन से हमें विदेशी मुद्रा तो मिलगी ही, साथ ही हमारा सॉफ्ट पावर भी इससे बढ़ेगा। लेकिन इस प्रस्ताव में एक बहुत बड़ी कमी यह है कि यह प्रावधान सिर्फ केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए है। राज्य-विश्वविद्यालय इससे बाहर होंगे। यह सच है कि हमारे कॉलेज और राज्य स्तरीय विश्वविद्यालय उत्कृष्ट कोटि के नहीं हैं, लेकिन इसका कारण वहां प्रतिभा की कमी न होकर धन की कमी, राजनीति और प्रशासनिक अकुशलता है, जिसे दृढ़ इच्छाशक्ति से ही दूर किया जा सकता है।

इस बैठक में यह भी तय किया गया कि बीए-बीएड और बीएससी-बीएड का चार साल का एकीकृत कोर्से भी शुरू किया जाएगा। दरअसल भारतीय शिक्षा प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन की बात काफी समय से चल रही है, खास तौर पर उच्च शिक्षा में। याद रहे कि अंग्रेजीदां नीति नियामक हिंदीभाषी जनता को नजरअंदाज किए रहते हैं। कई सुधारात्मक कदम तो ऐसे हैं जो अमेरिकी या पश्चिमी यूरोप के देशों की तर्ज पर लिए गए हैं। यह तो ठीक है कि ये देश दुनिया के सर्वाधिक विकसित देश होने के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी सिरमौर हैं। उनसे हम सबक तो ले सकते हैं, लेकिन उनकी नीतियां और नियम उनके अपने देश की परिस्थितियों के हिसाब से बनाए गए हैं। अत: यह जरूरी है कि पाश्चात्य देशों के अंधानुकरण की जगह हम अपनी शिक्षा नीति अपनी जरूरतों और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर बनाएं।

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Monday, September 24, 2012

भ्रष्टाचार : कागज पर बेतरतीब फैलती स्याही !


डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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कहा जाता है अक्सर   कि

भारत से अंग्रेज तो चले गए

पर अंग्रेजियत नहीं गई.

यहाँ सवाल पैदा होता है कि

अंग्रेजों की विरासत में क्या

भारत के भ्रष्टाचार को भी शुमार माना जाये ?

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अंग्रेजों ने भारत के राजा-महाराजाओं  को भ्रष्ट करके भारत को दासता की गिरफ्त में पहुंचाया. उसके बाद उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से भारत में भ्रष्टाचार को शह दी और भ्रष्टाचार को गुलाम बनाये रखने के प्रभावी हथियार की तरह इस्तेमाल किया. देश में भ्रष्टाचार भले ही वर्तमान में सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है, लेकिन भ्रष्टाचार ब्रिटिश शासनकाल में ही होने लगा था जो हमारे राजनेताओं को विरासत में दे गए थे.

भारत छोड़कर जाते-जाते भी अंग्रेजों की कुटिल बुद्धि ने भारत को और भी गारत करने सोच लिया था इसीलिए एक लम्बे अरसे से षड़यन्त्र पूर्वक इस देश में में नफरत फैलाना शुरू कर दिया था. धर्मेन्द्र गौड़ की पुस्तक “मैं अंग्रेजों का जासूस था” उनके द्वारा भारत छोड़ने के नफरत फैलाने का साक्ष्य है. भारत को विभाजन की आग में झोंकने की कुटिल योजना पहले से ही उन्होंने बना रखी थी.

इतनी अधिक अराजकता इस देश में अंग्रेजों के आने से पहले कभी नहीं थी.आमतौर पर भ्रष्टाचार तथा गरीबी भारत में कहीं भी कभी भी देखने को नहीं मिलती थी.यदि यह कहा जाए कि गरीबी, सामान्य राजनीति और प्रशासनिक भ्रष्टाचार अंग्रेजों की देन है, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. मुंबई के प्रसिद्ध प्रकाशक और व्यवसायी शानबाग लेखकों और साहित्यकारों में काफी प्रसिद्ध रहे हैं. फोर्ट में उनकी पुस्तकों की दुकान स्ट्रेंड बुक स्टाल एक ग्रंथ तीर्थ ही माना जाता है. अपने देहांत से पहले शानबाग ने भारतीय संपदा और पाठकों पर बड़ा उपकार किया, जब उन्होंने विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार एवं चिंतक विल डूरा की दुर्लभ एवं लुप्तप्राय पुस्तक "द केस फॉर इंडिया" का पुन: प्रकाशन किया. यह पुस्तक अंग्रेजों द्वारा भारत की लूट ही नहीं, बल्कि भारत के प्राचीन संस्कारों, विद्या और चरित्र पर इतिहास के सबसे बड़े आक्रमण का तथ्यात्मक वर्णन करती है. इसमें उन्होंने लिखा है कि भारत केवल एक राष्ट्र ही नहीं था, बल्कि सभ्यता, संस्कृति और भाषा में विश्व का मातृ संस्थान था. भारतभूमि हमारे दर्शन, संस्कृति और सभ्यता की मां कही जा सकती है. विश्व का ऎसा कोई श्रेष्ठता का क्षेत्र नहीं था, जिसमें भारत ने सर्वोच्च स्थान न हासिल किया हो। चाहे वह वस्त्र निर्माण हो, आभूषण और जवाहरात का क्षेत्र हो, कविता और साहित्य का क्षेत्र हो, बर्तनों और महान वास्तुशिल्प का क्षेत्र हो अथवा समुद्री जहाज का निर्माण क्षेत्र हो, हर क्षेत्र में भारत ने दुनिया को अपना प्रभाव दिखाया.

परन्तु, जब अंग्रेज भारत आए, तो उन्होंने राजनीतिक दृष्टि से कमजोर, लेकिन आर्थिक दृष्टि से अत्यंत वैभव और ऎश्वर्य संपन्न भारत को पाया. ऎसे देश में अंग्रेजों ने धोखाधड़ी, अनैतिकता एवं भ्रष्टाचार के माध्यम से राज्य हड़पे, अमानुषिक टैक्स लगाए, करोड़ों को गरीबी और भुखमरी के गर्त में धकेला तथा भारत की सारी संपदा व वैभव लूटकर ब्रिटेन को मालामाल किया. उन्होंने मद्रास, कोलकाता और मुंबई में हिंदू शासकों से व्यापारिक चौकियां भाड़े पर लीं और बिना अनुमति के वहां अपनी तौपें और सेनाएं रखीं. 1756 में बंगाल के राजा ने इस प्रकार के आक्रमण का जब विरोध किया और अंग्रेजों के दुर्ग फोर्ट विलियम पर हमला करके उस पर कब्जा कर लिया, तो एक साल बाद रॉबर्ट क्लाइव ने प्लासी के युद्ध में बंगाल को हराकर उस पर कब्जा कर लिया और एक नवाब को दूसरे से लड़ा कर लूट शुरू कर दी। सिर्फ एक साल में क्लाइव ने 11 लाख 70 हजार डॉलर की रिश्वत ली और 1 लाख 40 हजार डॉलर सालाना नजराना लेना शुरू किया। जांच में उसे गुनहगार पाया गया, लेकिन ब्रिटेन की सेवा के बदले उसे माफी दे दी गई। विल ड्यूरा लिखते हैं कि भारत से 20 लाख का सामान खरीद कर ब्रिटेन में एक करोड़ में बेचा जाता है. अंग्रेजों ने अवध के नवाब को अपनी मां और दादी का खजाना लूट कर अंग्रेजों को 50 लाख डॉलर देने पर मजबूर किया फिर उस पर कब्जा कर लिया और 25 लाख डॉलर में एक दूसरे नवाब को बेच दिया।

अंग्रेजी भाषा चलाने और अंग्रेजों के प्रति दासता मजबूत करने के लिए भारतीय विद्यालय बंद किए गए. 1911 में गोपालकृष्ण गोखले ने संपूर्ण भारतवर्ष में प्रत्येक भारतीय बच्चे के लिए अनिवार्य प्राइमरी शिक्षा का विधेयक लाने की कोशिश की, लेकिन उसे अंग्रेजों ने विफल कर दिया। 1916 में यह विधेयक फिर से लाने की कोशिश की, ताकि संपूर्ण भारतीयों को शिक्षित किया जा सके, लेकिन इसे भी अंग्रेजों ने विफल कर दिया। भारतीय सांख्यिकी के महानिदेशक सर विलियम हंटर ने लिखा है कि भारत में 4 करोड़ लोग ऎसे थे, जो कभी भी अपना पेट नहीं भर पाते थे। भूख और गरीबी की ओर धकेल दिए गए समृद्ध भारतीय शारीरिक दृष्टि से कमजोर होकर महामारी के शिकार होने लगे। 1901 में विदेश से आए प्लेग के कारण 2 लाख 72 हजार भारतीय मर गए, 1902 में 50 लाख भारतीय मरे, 1903 में 8 लाख भारतीय मारे गए और 1904 में 10 लाख भारतीय भूख, कुपोषण और प्लेग जैसी महामारी के कारण मारे गए। 1918 में 12 करोड़ 50 लाख भारतीय इनफ्लूएंजा रोग के शिकार हुए, जिनमें से 1 करोड़ 25 लाख लोगों की मौत सरकारी तौर पर दर्ज हुई। समान काम के लिए अंग्रेजों को भारतीयों से 10 गुना ज्यादा वेतन दिया जाता था और अंग्रेजों से 10 गुना अधिक विद्वान भारतीय को उनकी योग्यता के अनुरूप पद नहीं दिया जाता था.

कहाँ है वह गौरव ?
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सब तरफ सर चढ़कर बोल रहा नितांत निर्लज्ज भ्रष्टाचार का बोलबाला यह दर्शाता है कि जिसे जो करना है वह कुछ लेन-देन कर अपना उल्लू सीधा कर लेता है ,पर लोगों को कानों-कान खबर नहीं होती। होती भी है तो हर व्यक्ति खरीदे जाने के लिए तैयार है। गवाहों का उलट जाना, जांचों का अनंतकाल तक चलते रहना, सत्य को सामने न आने देना, ये सब एक पिछडे समाज के अति दुखदायी पहलू हैं। इस भ्रष्टाचार का कोई पारावार नहीं। यह उस कागज और स्याही को भी लील सकता है जिससे ये शब्द लिखे जा रहे हैं. अगर कागज पर स्याही फैलने लगे तो हमारी भाषा और भाव किसी काम के नहीं रह जाएंगे. हम तो अपने प्रथम उसूल ‘सत्यमेव जयते’ पर गर्व करते हैं. कहां है हमारा वह गौरवशाली आचरण?

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Thursday, September 20, 2012

राम कथा का नहीं है अंत ; वेदों की महिमा अनंत


-डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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जन मानस में लोक रक्षक श्री राम का चरित सहज अंकित है लेकिन यह जानना गर्व की बात होगी कि भारत-भूमि के कण-कण में रमे हुए लोकनायक श्रीराम की कथा सिर्फ वाल्मीकि और गोस्वामी तुलसीदास ने ही नहीं, अनेक अहिन्दी भाषी कवियों ने भी लिखी है. इससे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की लोक जीवन में सर्व व्यापकता प्रमाणित होती है .

हिन्दी के आरंभिक रूप प्राकृत के बाद की भाषाएँ अपभ्रंश कहलाईं. इसके प्रमुख कवि स्वयंभू ने जैन मत के प्रवक्ता होकर भी रामकथा पर आधारित 'पउम चरिउ' जैसी बारह हज़ार पदों वाली कृति की रचना की। लगभग सातवीं शताब्दी में असमिया साहित्य के प्रथम काल के सबसे बड़े कवि माधव कंदलि ने वाल्मीकि रामायण का सरल अनुवाद असमिया छंद में किया। शंकरदेव ने 'रामविजय' नामक नाटक की भी रचना की। उड़िया-साहित्य के प्रथम प्रतिनिधि कवि सारलादास ने 'विलंका रामायण' की रचना की। अर्जुनदास ने 'राम विभा' नाम से रामोपाख्यान प्रस्तुत किया। परंतु, कवि बलरामदास द्वारा रचित रामायण उड़ीसा का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ माना जाता है. इसके बाद १९वीं शती में आधुनिक युग में फकीर मोहन सेनापति ने 'रामायण' का पद्यानुवाद किया.

एक अत्यंत प्रसिद्ध कन्नड़ कवि नागचंद्र ने भी रामायण की रचना की। रामचंद्रचरित पुराण अथवा पंप रामायण कन्नड़ की उपलब्ध रामकथाओं में सबसे प्राचीन है।तत्पश्चात 15वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी के बीच नरहरि अथवा कुमार वाल्मीकि नामक एक कवि ने वाल्मीकि रामायण के आधार पर तोरवे रामायण की रचना की। उन्नीसवीं शती में देवचंदर नामक एक जैन कवि ने 'रामकथावतार' लिखकर जैन रामायण की परंपरा को आगे बढ़ाया। सन 1750 से 1900 के मध्य के प्रकाश राम ने रामायण की रचना की। 18वीं शती के अंत में दिवाकर प्रकाश भट्ट ने भी 'कश्मीरी रामायण' की रचना की।14वीं शती में आशासत में गुजराती में रामलीला विषयक पदावली की रचना की। वर्तमान में समूचे गुजरात में १९वीं शताब्दी की गिरधरदास 'रामायण' सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक लोकप्रिय मानी जाती है.

तमिल भाषा चक्रवर्ती महाकवि कंबन हुए, जिन्होंने 'कंब रामायण' नामक प्रबंध काव्य की रचना की। तेलुगू साहित्य के दूसरे पुराण युग में सबसे पहले रंगनाथ रामायण और फिर भास्कर रामायण की रचना हुई। भास्कर रामायण को तेलुगू का सबसे कलात्मक रामकाव्य माना जाता है। सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह जी न केवल धर्म गुरु थे वरन वे एक महान संत, योद्धा और कवि भी थे। उनके द्वारा रचे गए कुल 11 ग्रंथों में से एक 'रामावतार' को गोविंद रामायण कहा जाता है। पंजाबी भाषा की यह रचना महान है. तुलसीदास से एक शताब्दी पूर्व बंगला के संत कवि पंडित कृत्तिवास ओझा ने 'रामायण पांचाली' नामक रामायण की रचना की।

महाराष्ट्र में संत एकनाथ गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन थे। उन्होंने काशी में तुलसीदास जी से भेंट की थी। उन्होंने 'भावार्थ रामायण' की रचना की थी। चौदहवीं शताब्दी में 'रामायण' के युद्ध कांड की कथा के आधार पर प्राचीन तिरुवनांकोर के राजा ने रामचरित नामक काव्य ग्रंथ की रचना की। इसे मलयालम भाषा का प्रथम काव्य ग्रंथ माना जाता है। अहिंदी भाषी रामकाव्य में 'रावणवहो' (रावण वध) महाराष्ट्री प्राकृत भाषा का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसकी रचना कश्मीर के राजा प्रवरसेन द्वितीय ने की थी। प्राकृत साहित्य की इस अनुपम रचना का संस्कृत भाषा में सेतुबंध के नाम से अनुवाद हुआ। १९वीं शताब्दी में कवि भानुभट्ट ने नेपाली भाषा में संपूर्ण रामायण लिखी। इस रामायण का आज नेपाल में वही मान है, जो भारत में तुलसीकृत रामचरितमानस का है। रामायण रचना के ऐसे अन्य अनेक उदाहरण हैं जिनसे ज़ाहिर होता है कि श्री राम का पावन चरित्र सचमुच जन-मन का प्रतिबिम्ब है.

वेदों की महिमा अनन्त
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यह अकस्मात नहीं हैं कि यूनेस्को ने ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है ताकि इन्हें भावी पीढ़ियों के लिए संरक्षित किया जा सके। वस्तुतः वेदों में निहित ज्ञान राशि में स्वतः विश्व चेतना के स्वर निहित हैं. उन्हें दुनिया के इतहास के सबसे पुराने साहित्यिक अभिलेख होने का गौरव भी प्राप्त है.

वेदों को विश्व संस्कृति के अभूतपूर्व साहित्यिक दस्तावेज़ के रूप में स्वीकार किया गया है. वेदों की 28 हज़ार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ विशेष महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विश्व विरासत सूची में शामिल किया है।

यूनेस्को ने ऋग्वेद के साथ 37 और दस्तावेज़ों को इस धरोहर सूची में शामिल किया है। इस सूची में दुनिया की पहली फ़ीचर-लेंथ फ़िल्म, स्वीडन के अल्फ़्रेड नोबेल के परिवार के अभिलेख और दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले नेता नेल्सन मंडेला पर चलाए गए मुक़दमे के काग़ज़ात भी शामिल हैं। इन दस्तावेज़ों को संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) की तरफ से बनाए गए 'मेमोरी ऑफ़ द वर्ल्ड रजिस्टर' में जगह दी गई है।

भारत को विश्व गुरु मानने के पीछे ऐसे ही साक्ष्य अहम भूमिका निभाते हैं. हमारे प्राचीन ग्रंथों में लगभग सभी धर्मों और मान्यताओं के उत्कृष्ट विचारों का समावेश है जिनके मूल में मानवता, बंधुत्व और विश्व शांति का वैभव है. उन्होंने कहा कि वेदों का ज्ञान समग्रता का प्रतीक है. वह स्वयं विश्व विरासत है. दुनिया जिस देश की साहित्यिक-सांस्कृतिक धरोहर को निर्विवाद रूप से सर्वोपरि मान रही है, उसे संजोकर रखना प्रत्येक भारतवासी का सहज कर्तव्य होना चाहिए.

बहरहाल यूनेस्को के रजिस्टर में वेदों के साथ ऐसे दस्तावेज़ों की संख्या 160 से भी ऊपर तक पहुँच गई है। 1992 में दुनिया के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ों को संरक्षित करने और विशेषज्ञों को जानकारी उपलब्ध कराने के उद्देश्य से यह कार्यक्रम शुरू किया गया था। इसके तहत उन दस्तावेजों को भी शामिल किया जा रहा है जिनका अस्तित्व खतरे में है.

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Wednesday, September 19, 2012

ज़िन्दगी ज़ंग है, इस ज़ंग को जारी रखिए !


डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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राजनांदगांव. मो. 9301054300

बहुत विचित्र है मानव मन. कभी यह मन अपने अदृश्य पंखों से हिमालय की ऊँचाइयों तक पहुँचना चाहता है, कभी उन्हीं पंखों को समेटकर सागर की गहराइयाँ नापना चाहता है. कभी धूमिल आतीत को याद करता है, तो कभी स्वप्निल भविष्य में खो जाता है हमारा मन. सिर्फ़ वर्तमान को छोड़कर काल के सभी खण्डों में भटकने का आदी हो जाता है मानव मन.

परन्तु, जीवन इतना भोला भी नहीं है की मन की यायावरी के खाते में,मनचाही सारी चीज़ें डाल दे. न ही जीवन इतना क्रूर है कि जो मन आज की सच्चाई को जिए और हक़ीकत के रूबरू हो उसे बरबस बिसार दे. इसलिए याद रखना होगा कि जीवन का एक ही अर्थ है वह जो है आज और अभी. कहीं और नहीं, बस यहीं. जो अपने साथ है, अपने सामने है और जिससे मुलाक़ात मुमकिन है, उस पल को छोड़कर बीते हुए या आने वाले कल की बातों या ख्यालों में डूबे रहने से कुछ हासिल होने वाला नहीं.

यकीन मानिए आप इस क्षण में जहाँ हैं, वहाँ जो हैं, जैसे भी हैं, जीवन की संभावना जीवित है. जीवन, वर्तमान का दूसरा नाम है. गहराई में पहुँचकर देखें तो मन के हटते ही जीवन का सूर्य चमक उठता है. इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि मन को लेकर मन भर बोझ लिए चलने वाले के हाथों ज़िन्दगी के संगीत का सितार कभी झंकृत नहीं हो सकता. किसी शायर ने क्या खूब कहा है- बेवज़ह मन पे कोई बोझ न भारी रखिए/ ज़िन्दगी ज़ंग है, इस ज़ंग को जारी रखिए.

जहाँ जीवन है वहाँ यह चंचल मन पल भर भी ठहर नहीं सकता. आप जो घट चुका है,उसमें कण भर भी न तो कुछ घटा सकते हैं और न ही उसमें रत्ती भर कुछ जोड़ना संभव है. दरअसल जो घट चुका वह अब है ही नहीं. और जो अभी घटा ही नहीं है वह भी आपकी पहुँच से बाहर है. फिर वह क्या है जिसे कहीं और खोजने की कोई ज़रुरत नहीं है ?

ज़ाहिर है कि है तो केवल वही जो अभी है, यहीं है. इस क्षण है. वह जो न तो घटा है और न घटेगा बल्कि वह जो घट रहा है. यहाँ अगर थोड़ी सी भी चूक हुई कि आप भटक जायेंगे. क्योंकि हाथों में आया एक पल, पलक झपकते ही फिसल जाता है. वह क्षण जो आपको अनंत के द्वार तक ले जाने की शक्ति रखता है. आपकी ज़रा सी चूक या भूल हुई कि वही क्षण सिमटकर विगत बन जाएगा. फिर वह आपके चेतन का नहीं,, मन का हिस्सा बन जाएगा. मीरा ने यदि कहा है कि 'प्रेम गली अति सांकरी' और जीसस ने भी पुकारा है कि समझो 'द्वार बहुत संकरा है' तो उसके पीछे शास्वत की लय है. अनंत का स्वर है.

जीवन का जो क्षण हाथ में है उसमें जी लेने का सीधा अर्थ है भटकाव की समाप्ति. वहाँ न अतीत का दुःख-द्वंद्व है, न भविष्य की चिंता. यही वह बिंदु है जहाँ आप विचलित हुए कि जीवन आपसे दूर जाने तैयार रहता है. हाथ में आए जीवन के किसी भी क्षण की उपेक्षा, क्षण-क्षण की गयी शास्वत की उपेक्षा है. यह भी याद रखना होगा कि क्षण को नज़र अंदाज़ करने पर वही मिल सकता है जो क्षणभंगुर है, जो टिकने वाला नहीं है. वहाँ अनंत या शांत चित्त का आलोक ठहर नहीं सकता. वहाँ इत्मीनान और चैन की बात भी बेमानी है.

शायद वर्तमान छोटा होने कारण भी आपके समीप अधिक टिक न पाता हो. क्योंकि बीता हुआ समय बहुत लंबा है और जो आने वाला है उसकी भी सीमा तय करना आसान नहीं है. इसलिए, मन उसके पक्ष में चला जाता है जिसमें ऊपर का विस्तार हो. वह अतीत में जीता है या भविष्य में खो जाता है. सोचता है मन कि अभी तो बरसों जीना है. आज और अभी ऐसी क्या जल्दी है कि बेबस और बेचैन रहा जाए ?

पर भूलना नहीं चाहिए कि अपने वर्तमान को भुलाकर कुछ भी हासिल किया जा सके यह मुमकिन नहीं है. द्वार तक पहुँचकर स्वयं द्वार बंद कर देना समझदारी तो नहीं है न ? अतीत की अति से बचने और भविष्य को भ्रान्ति से बचाने का एक ही उपाय है कि अपने आज का निर्माण किया जाए. जिसने यह कर लिया समझिये वह मन के भरोसे जीने की जगह पर मन को जीतने में सफल हो गया. प्रकृति अभी है, यहीं है. जाने या आने वाले की फ़िक्र नहीं, जो है उसका ज़िक्र ही ज़िन्दगी है....बस !

Tuesday, September 18, 2012

छोटे ह्रदय में दर्द के लिए जगह नहीं होती भाई !

डॉ.चन्द्रकुमार जैन


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मो. 9301054300

घटना है वर्ष १९६० की. स्थान था यूरोप का भव्य ऐतिहासिक नगर तथा इटली की राजधानी रोम। सारे विश्व की निगाहें २५ अगस्त से ११ सितंबर तक होने वाले ओलंपिक खेलों पर टिकी हुई थीं। इन्हीं ओलंपिक खेलों में एक बीस वर्षीय अश्वेत बालिका भी भाग ले रही थी. वह इतनी तेज़ दौड़ी, इतनी तेज़ दौड़ी कि १९६० के ओलंपिक मुक़ाबलों में तीन स्वर्ण पदक जीत कर दुनिया की सबसे तेज़ धाविका बन गई.


रोम ओलंपिक में लोग ८३ देशों के ५३४६ खिलाड़ियों में इस बीस वर्षीय बालिका का असाधारण पराक्रम देखने के लिए इसलिए उत्सुक नहीं थे कि विल्मा रुडोल्फ नामक यह बालिका अश्वेत थी अपितु यह वह बालिका थी जिसे चार वर्ष की आयु में डबल निमोनिया और काला बुखार होने से पोलियो हो गया और फलस्वरूप उसे पैरों में ब्रेस पहननी पड़ी। विल्मा रुडोल्फ़ ग्यारह वर्ष की उम्र तक चल-फिर भी नहीं सकती थी लेकिन उसने एक सपना पाल रखा था कि उसे दुनिया की सबसे तेज़ धाविका बनना है। उस सपने को यथार्थ में परिवर्तित होता देखने वे लिए ही इतने उत्सुक थे पूरी दुनिया वे लोग और खेल-प्रेमी.

डॉक्टर के मना करने के बावजूद विल्मा रुडोल्फ़ ने अपने पैरों की ब्रेस उतार फेंकी और स्वयं को मानसिक रूप से तैयार कर अभ्यास में जुट गई. अपने सपने को मन में प्रगाढ़ किए हुए वह निरंतर अभ्यास करती रही. उसने अपने आत्मविश्वास को इतना ऊँचा कर लिया कि असंभव-सी बात पूरी कर दिखलाई. एक साथ तीन स्वर्ण पदक हासिल कर दिखाए। सच यदि व्यक्ति में पूर्ण आत्मविश्वास है तो शारीरिक विकलांगता भी उसकी राह में बाधा नहीं बन सकती.

लेखक सीताराम गुप्ता ने सच्ची घटना पर आधारित इस लघु कथा में वैसे तो हौसले की जीत की एक प्रचलित सी चित्रकारी की है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसा साहस, ऐसा जीवट, कभी घुटने नहीं टेकने वाली ऎसी लगन इस दुनिया में कोई आम बात भी नहीं है. कोई बड़े दिल का व्यक्ति ही परमात्मा का ऋण चुकाने के लिए, अपनी सारी सीमाओं, समस्त अभावों को ताक पर रखकर इस तरह प्रदर्शन कर दिखाता है जैसा रुडोल्फ ने किया. वरना प्रकृति की मार या किसी दुर्घटना का शिकार होने के बाद तो अक्सर यही देखने में आता है कि इंसान खुद को दुनिया वालों से बिलकुल खपा सा जीने लगता है. दरअसल ज़िन्दगी में, अगर गहराई में जाकर समझने की कोशिश करें तो दर्द सचमुच बड़े नसीब वालों के हिस्से में आता है. इसे राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर जी ने इस ख़याल को बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति दी हैं. उनकी पंक्तियाँ एक बार पढ़िए तो सही -

ह्रदय अगर छोटा हो

तो दुःख उसमें नहीं समाएगा

और दर्द,

दस्तक दिए बिना ही लौट जाएगा.

टीस उसे उठती है

जिसका भाग्य खुलता है,

वेदना गोद में उठाकर

सबको निहाल नहीं करती

जिसका पुण्य प्रबल होता है

वही अपने आँसुओं से धुलता है.

तो है न यह पते कि बात ? वास्तव में इस दुनिया में हौसले की हार कभी नहीं होती. सबसे बड़ी बात है जो जैसा है, जहाँ पर है, जिस हालात में भी है, वहाँ से एक कदम आगे बढ़ने, कुछ नया, कुछ अलग कर दिखाने के लिए वह तैयार है या नहीं ? शिकस्त कोशिश की कभी नहीं होती. हर अगर होती भी है तो इंसान की इस सोच के कारण कि वह चुक गया है. जबकि देखा जाये तो बुरे से बुरे दिन गुज़ार रहे आदमी के लिए भी कुछ न कुछ अच्छा कर दिखाने की संभावना हमेशा जीवित रहती है.

आइये, कुछ पल के लिए यदि आप खुद को सुखी या समर्थ नहीं मानते हैं तो कुछ ऐसे हालातों की कल्पना करें जिन्हें आप अक्सर नज़रंदाज़ कर दिया करते हैं. उदाहरण के लिए

अगर बारिश में आपको घर से निकलने में डर लग रहा हो तो उस व्यक्ति के विषय में आप क्या कहना चाहेंगे जो मात्र दो वर्ष के अपने कलेजे के टुकड़े को भारी बाढ़ के बीच खुद लगभग गले तक
नदी के पानी में डूबे रहकर भी उसे अपने सिर पर एक टोकरी में रखे हुए किनारे तक पहुँचने की हरसंभव कोशिश कर रहा हो ? इसी तरह जब कभी आपको लगे की आपकी तनख्वाह कम है या आमदनी पर्याप्त नहीं है तब पल भर के लिए उस गरीब बच्चे के बारे में सोचें जिसे उसके माँ-बाप का अता-पता नहीं है और जो अपने पावों से लाचार भी है, उस पर भी वह पूरी हिम्मत से घिसट-घिसट कर ही सही, लेकिन मदद की गुहार लेकर आप जैसे कई कई भाग्यवान लोगों तक पहुँचने से नहीं कतराता.

ठहरिये, एक और सीन देखिये. फ़र्ज़ कीजिए कि आप किन्हीं कारणों से जिंदगी की जंग अब और लड़ने के लिए तैयार नहीं है यानी मैदान छोड़ देने में ही भलाई समझ रहे हैं. यदि भगवान न करे फिर भी अगर हालात ऐसे ही बन पड़े हैं तो पल भर रूककर एक ऐसे पिता की कल्पाना कीजिए जो बैसाखी के सहारे मुश्किल से एक ही जख्मी पाँव से चल पाता हो. फिर भी मात्र छह वर्ष के अपने लाडले की रनिंग सायकिल के कैरियर को थामे हुए मीलों का सफ़र तय करने की खातिर तैयार हो.

सच ही कहा गया है कि अगर हम गौर करें हो ऊपर वाले ने हर हाल में हमें इतनी नेमत बख्सी है कि हम चाहें तो उसे सौभाग्य में बदल सकते हैं. जरूरत इस बात की है कि हम शिकायत करना छोड़कर समाधान की राह पर चलना शुरू कर दें.

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Wednesday, September 12, 2012

हिन्दी में बोलती है भारत की आत्मा


डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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राजनांदगांव. 9301054300


भारत न केवल क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृष्टि से विशाल देश हैं अपितु हमें इस बात पर भी गर्व हैं कि हमारे देश में लगभग 1652 विकसित एवं समृद्ध बोलियाँ प्रचलित हैं। इन बोलियों का प्रयोग करने वाले विभिन्न समुदाय अपनी-अपनी बोली को महत्त्वपूर्ण मानने के साथ-साथ उसे बोली के स्थान पर भाषा कह कर पुकारते हैं और समझते हैं कि उनकी बोली में वे सभी गुण विद्यमान हैं जो किसी भी समर्थ भाषा में होने चाहिये। यही बात हमारी छत्तीसगढ़ी के सन्दर्भ में भी सटीक बैठती है. बोलियों की ऎसी विशेषता वाले भारत देश में हिन्दी की अपनी अलग गरिमा और महिमा है. वास्तव में यदि गौर करें तो हिन्दी में देश की आत्मा बोलती है.

सुखद आश्चर्य की बात है देश में सबसे पहले हिंदी में एम.ए.कक्षा के अध्ययन- अध्यापन की व्यवस्था कोलकाता विश्व विद्यालय में हुई,जिसकी स्थापना श्री आशुतोष मुखर्जी ने की थी. देश में सबसे पहले व्यक्ति जिन्होंने हिंदी में एम.ए. की परीक्षा पास की, श्री नलिनी कान्त सान्याल महोदय थे जो बंगाल के थे। हिंदी को बेचारी और असहाय कहने की परम्परा अब टूट चुकी है। हिंदी एक सशक्त भाषा के रूप में उभर कर सामने आई है हिंदी आज भारत की ही नहीं बल्कि विश्व की एक महत्वपूर्ण भाषा के रूप में अपने आपको स्थापित करने में सफल रही है।

जहाँ तक हिंदी में उपलब्ध साहित्य का प्रश्न है, हिंदी का साहित्य किसी भी भाषा के साहित्य की तुलना में कम नहीं है। कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, बिहारी, देव, घनानंद, गुरु गोबिंदसिंह, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रसाद, पन्त, निराला, महादेवी वर्मा, धर्मवीर भारती, मुक्तिबोध, अज्ञेय आदि कवियों की रचनाओं ने यह सिद्ध कर दिया है हिंदी में अपने भावों और विचारों को अभिव्यक्त करने की अद्भुत शक्ति है। आज तो स्थिति यह है की कविता, नाटक, एकांकी, उपन्यास, कहानी, निबंध, आलोचना, जीवनी, डायरी, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि साहित्यिक विधायों के माध्यम से हिंदी भाषा समृद्ध हो चुकी है और हो रही है। इधर अंतरजाल पर हिन्दी की बढ़ती पैठ ने उसकी वैश्विक क्षमता का एक बिलकुल नया परिवेश निर्मित कर दिया है. हिंदी साहित्य को सम्पूर्ण विश्व में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।

अमेरिका के लगभग 100 महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। लगभग सात वर्ष पूर्व अमेरिका सरकार ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ टेक्सस (ऑस्टन नगर) को हिन्दी की शिक्षा को अमेरिका में बढ़ाने के लिये एक विशाल हिन्दी कार्यक्रम के लिये एक बहुत बड़ी राशि का अनुदान दिया। यह हिन्दी उर्दू फ़्लैगशिप नामक कार्यक्रम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडियन स्टडीज़, जो लगभग 60 विश्वविद्यालयों की छात्र-संस्था है, विभिन्न भारतीय भाषाओं के लिये पिछले लगभग 50 वर्षों से अमरीकी विद्यार्थियों के लिये विशेष भाषा-कार्यक्रम भारत में चला रही है।

यूनिकोड नामक एनकोडिंग सिस्टम ने हिंदी को इंग्लिश के समान ही सक्षम बना दिया है और लगभग इसी समय भारतीय बाज़ार में ज़बर्दस्त विस्तार आया है। कंपनियों के व्यापारिक हितों और हिंदी की ताक़त का मेल ऐसे में अपना चमत्कार दिखा रहा है। इसमें कंपनियों का भला है और हिंदी का भी। फिर भी चुनौतियों की कमी नहीं है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में मानकीकरण (स्टैंडर्डाइजेशन) आज भी एक बहुत बड़ी समस्या है। यूनिकोड के ज़रिए हम मानकीकरण की दिशा में एक बहुत बड़ी छलाँग लगा चुके हैं। उसने हमारी बहुत सारी समस्याओं को हल कर दिया है।

भारत का आधिकारिक की-बोर्ड मानक इनस्क्रिप्ट है। यह एक बेहद स्मार्ट किस्म की, अत्यंत सरल और बहुत तेज़ी से टाइप करने वाली की-बोर्ड प्रणाली है। लेकिन मैंने जब पिछली गिनती की थी तो हिंदी में टाइपिंग करने के कोई डेढ़ सौ तरीके, जिन्हें तकनीकी भाषा में की-बोर्ड लेआउट्स कहते हैं, मौजूद थे। फ़ॉटों की असमानता की समस्या का समाधान तो पास दिख रहा है, लेकिन की-बोर्डों की अराजकता का मामला उलझा हुआ है। ट्रांसलिटरेशन जैसी तकनीकों से हम लोगों को हिंदी के क़रीब तो ला रहे हैं, लेकिन की-बोर्ड के मानकीकरण को उतना ही मुश्किल बनाते जा रहे हैं। यूनिकोड को अपनाकर भी हम अर्ध मानकीकरण तक ही पहुँच पाए हैं। हिंदी में आईटी को और गति देने के लिए हिंदी कंप्यूटर टाइपिंग की ट्रेनिंग की ओर भी अब तक ध्यान नहीं दिया गया है।

आज़ादी आई और हमने संविधान बनाने का उपक्रम शुरू किया। संविधान का प्रारूप अंग्रेज़ी में बना, संविधान की बहस अधिकांशतः अंग्रेज़ी में हुई। यहाँ तक कि हिंदी के अधिकांश पक्षधर भी अंग्रेज़ी भाषा में ही बोले। यह बहस 12 सितंबर, 1949 को 4 बजे दोपहर में शुरू हुई और 14 सितंबर, 1949 के दिन समाप्त हुई। प्रारंभ में संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अंग्रेज़ी में ही एक संक्षिप्त भाषण दिया। उन्होंने कहा कि भाषा के विषय में आवेश उत्पन्न करने या भावनाओं को उत्तेजित करने के लिए कोई अपील नहीं होनी चाहिए और भाषा के प्रश्न पर संविधान सभा का विनिश्चय समूचे देश को मान्य होना चाहिए। उन्होंने बताया कि भाषा संबंधी अनुच्छेदों पर लगभग तीन सौ या उससे भी अधिक संशोधन प्रस्तुत हुए।

14 सितंबर की शाम बहस के समापन के बाद जब भाषा संबंधी संविधान का तत्कालीन भाग 14 क और वर्तमान भाग 17, संविधान का भाग बन गया तब डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपने भाषण में बधाई के कुछ शब्द कहे। वे शब्द आज भी प्रतिध्वनित होते हैं। उन्होंने तब कहा था, ''आज पहली ही बार ऐसा संविधान बना है जब कि हमने अपने संविधान में एक भाषा रखी है, जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी।'' उन्होंने कहा, ''इस अपूर्व अध्याय का देश के निर्माण पर बहुत प्रभाव पड़ेगा।'' उन्होंने इस बात पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की कि संविधान सभा ने अत्यधिक बहुमत से भाषा-विषयक प्रावधानों को स्वीकार किया। अपने वक्तव्य के उपसंहार में उन्होंने जो कहा वह अविस्मरणीय है। उन्होंने कहा, ''यह मानसिक दशा का भी प्रश्न है जिसका हमारे समस्त जीवन पर प्रभाव पड़ेगा। हम केंद्र में जिस भाषा का प्रयोग करेंगे उससे हम एक-दूसरे के निकटतर आते जाएँगे। आख़िर अंग्रेज़ी से हम निकटतर आए हैं, क्यों कि वह एक भाषा थी। अंग्रेज़ी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया है। इससे अवश्यमेव हमारे संबंध घनिष्ठतर होंगे, विशेषतः इसलिए कि हमारी परंपराएँ एक ही हैं, हमारी संस्कृति एक ही है और हमारी सभ्यता में सब बातें एक ही हैं। अतएव यदि हम इस सूत्र को स्वीकार नहीं करते तो परिणाम यह होता कि या तो इस देश में बहुत-सी भाषाओं का प्रयोग होता या वे प्रांत पृथक हो जाते जो बाध्य होकर किसी भाषा विशेष को स्वीकार करना नहीं चाहते थे। हमने यथासंभव बुद्धिमानी का कार्य किया है और मुझे हर्ष है, मुझे प्रसन्नता है और मुझे आशा है कि भावी संतति इसके लिए हमारी सराहना करेगी।''

हिंदी के प्रचार-प्रसार में हिंदी सिनेमा का योगदान सबसे अधिक है। फ़िल्म 'शोले' और 'दीवार' के वाक्य कई विज्ञापनों में प्रयोग किए गए। हिंदी फ़िल्मों का तो ब्रिटेन में एक फ़ैशन-सा चल पड़ा है। भारत से तो फ़िल्में इंपोर्ट की ही गई पर ब्रिटेन में भी हिंदी फ़िल्में बनी और दिखाई गई। यद्यपि अधिकांश फ़िल्में सब टाइटल्ड या डब होती हैं फिर भी भाषा और संस्कृति का प्रभाव तो लोगों पर पड़ता ही है। महाभारत और रामायण के विडियो टेप शिक्षित अंग्रेज़ और अधिकांश भारतीयों के घरों में संग्रहीत हैं।

हिंदी के प्रचार एवं प्रसार कार्य में भारत सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों डॉलर व्यय करती रही है अब तक के सारे ही छै सम्मेलनों में भारत सरकार ने करोड़ों डॉलर व्यय किए हैं, तब ही ये विश्व हिंदी सम्मेलन सफल हो सके किंतु इस नई शताब्दी में समय नहीं है कि हम परछिद्रान्वेषण एवं अन्यों की टीका-टिप्पणी करने में अधिक समय नष्ट कर सकें समय आ गया है कि हम सरकार की बैसाखी पकड़कर चलने तथा आलोचना करने के स्थान पर उसकी वरद छत्र-छाया में स्वावलंबी बनकर प्राण-प्रण से हिंदी का प्रचार एवं प्रसार करें हमें समय की पुकार सुनकर जागरूक हो जाना चाहिए और हिंदी के वर्तमान को सुधार कर सुरक्षित स्वर्णिम भविष्य की नींव डालना चाहिए हमें इन देशों की स्वतः चरमराती हुई जाति-पाति, प्रांत तथा प्रांतीय मातृभाषा की सीमाओं से बाहर निकलकर भारतीय संस्कृति की संवाहिका भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी को समुचित स्थान एवं सम्मान देना चाहिए.

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Saturday, September 8, 2012

अच्छा बोलना एक शक्ति और कला भी है


डॉ. चन्द्रकुमार जैन
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मो. 9301054300

इक्कीसवीं सदी का यह नया दौर ही कहा जा सकता है की संस्थानों में प्रबंधकों के चयन में संचार कौशल को सर्वाधिक महत्त्व दिया जा रहा है. पिट्सबर्ग यूनिवर्सिटी से इस सिलसिले में कराये गए एक सर्वे में कहा है कि मौखिक और लिखित संचार और संवाद के साथ किसी संस्थान में समूह के बीच रहकर काम करने तथा संस्था के हितों को प्रगतिगामी बनाने पर ही उसकी सफलता निर्भर करती है. लेकिन, यह अफ़सोस और आश्चर्य की बात भी है कि बोलने की कला और अभिव्यक्ति के तौर तरीकों पर इतना जोर दिए जाने के बावजूद बहुतेरे लोग हैं जिनके लिए यह काम पहाड़ जैसा है.

झिझक, संकोच. भय, आशंका, आत्महीनता न जाने कितनी चीजें बोलने वालों की राह में अवरोधक बनकर खड़ी हो जाती हैं. कभी वे चाह कर भी बोल नहीं पाते हैं, कभी उनके भीतर अपनी बात कहने की तत्परता ही नहीं दिखती, पर सच तो यह है कि बोलना अक्सर उनके लिए एक दूभर कार्य हो होता है. लिहाज़ा होता यह है कि ठीक समय पर, सही ढंग से अपनी बात न कह पाने के कारण वे प्रगति की दौड़ में पीछे रह जाते हैं. कई बार सिर्फ अपनी योग्यता की सटीक प्रस्तुति के अभाव में उन्हें पदोन्नति या अपनी मेहनत के वास्तविक प्रतिफल से भी हाथ धोना पड़ जाता है.

समझ का रिश्ता ज़रूरी
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सब जानते हैं कि संचार के लिए कहने और सुनने वाले के अतिरिक्त एक माध्यम की आवश्यकता होती है. लेकिन, प्रभावशाली संचार की परिभाषा आज यहीं तक सीमित नहीं है. दरअसल संचार सफल व पूर्ण तभी कहा जायेगा जब कहने वाला शिद्दत से, संतुलित ढंग से अपना सन्देश बगैर किसी रुकावट या व्यवधान के किसी उपयुक्त माध्यम से, अपने लक्ष्य यानी सुनने वाले तक पहुँचा सके. पर इतने से बात नहीं बनेगी. कहे हुए को उसी तरह सुना जाना और समझा जाना भी जरूरी है, जिस तरह दरअसल वह कहा गया है. तब कहीं जाकर संचार अपनी मंजिल तय कर पाता है. ज़ाहिर है कि सधे हुए संचार में कहने और सुनने और सुनकर प्रत्युत्तर देने का एक ऐसा सफ़र पूरा होना चाहिए जिसमें भ्रम या संशय की कोई स्थिति न रह जाए.

कहना न होगा कि सफलता, संचार और संवाद कुशलता की समानुपाती है. इसके लिए गहराई से समझना जरूरी है कि आपका सन्देश क्या है, यानी आप वास्तव में क्या कहना और सुनने वाले तक क्या पहुंचाना चाहते हैं. यह भी कि समय और आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए आपने सही माध्यम का चुनाव किया भी है या नहीं. इसके अलावा यह भी गौर करना होगा कि आपका सन्देश उचित रीति से उचित व्यक्ति या समूह तक पहुँच रहा है. इसके लिए अपने और संबंधित परिवेश का ज्ञान होना भी महत्वपूर्ण है.

कहने को ढहने से बचाएँ
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हम यहाँ संचार के विषयगत या तकनीकी पक्ष की अधिक चर्चा नहीं करना चाहते, पर व्यावहारिक दृष्टि से यह देखना मुनासिब होगा कि वे कौन से गुण हैं जो संवाद कौशल की पहचान और जान भी हैं. दूसरे यह कि वह कौन सी बाधाएं हैं जो कहने की कोशिश को ढहने के मकाम तक पहुँचा देती हैं. एक और पहलू यह भी कि सुनने में भी सावधानी क्यों जरूरी है कि सुनने वाला वही सुने जो कहा जा रहा है, उसे उस तरह न सुन ले जैसा वह पहले से समझता आ रहा है. बहरहाल, बात साफ़ है कि नया युग संचार और संवाद की कुशलता को ही प्रगति का आधार मानता है. इस कसौटी पर जो खरे न उतर सकें उन्हें आने वाला समय अपनी तेज़ रफ़्तार आगोश में कुछ इस तरह ले लेगा कि न कुछ कहते बनेगा न ही आगत चुनौतियों को सहना मुमकिन होगा.

जब संचार की बात आती है तब कुछ प्रचलित शब्द जैसे सेंडर-इनकोडिंग-चैनल-डिकोडिंग-रिसीवर-फीडबैक आदि सहज रूप से मानस पटल पर उभर आते हैं. इनके अलावा संचार का एक ख़ास सन्दर्भ भी होता है, जिसे नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता. इन सब का सार वही है जो हम पहले कह चुके हैं. अब सौ टके का सवाल यह है कि संचार कला में प्रवीण कैसे बन सकते हैं ? क्या यह जन्म जात गुण है कि कोई बड़ी आसानी से अपनी बात कह लेता है और दूसरा इस मोर्चे पर सिवा परेशानी के और कुछ हासिल नहीं कर पाता है . ठहरिए, यहाँ यह जान लेना भी शायद बेहतर होगा कि कतिपय प्राकृतिक बाधाओं को छोड़कर संचार की कला में निपुणता, सही प्रयास और सटीक अभ्यास से अर्जित की जा सकती है. इसलिए निराश होने की कोई वज़ह नहीं है. तैयारी और लगन से श्रेष्ठ संचार संभव है.

फीडबैक की अहमियत
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संचार प्रक्रिया के दौरान सन्देश सम्प्रेषण से लेकर प्रत्युत्तर यानी फीडबैक तक सुलझे हुए अंदाज़ और पारस्परिक समझ का होना अपरिहार्य है. सन्देश भेजने वाले को भलीभांति मालूम रहे कि वह क्या कहना चाहता है, किससे कहना है और किस तरह कहा जाना चाहिए कि उसकी बातों का वही आशय समझा जाये जो अपेक्षित है. इसी तरह सन्देश ग्रहण करने में भी पर्याप्त सावधानी कि दरकार होती है. सन्देश क्या है, किसने प्रेषित किया है, उसका सार क्या है, यह सब धैर्य पूर्वक समझकर दिया गया प्रत्युत्तर सन्देश प्रेषक को संतुष्ट करने में समर्थ होता है कि कहने और सुनने के बीच अब लक्ष्य के अनुरूप साझेदारी का रास्ता साफ़ हो गया है. इस प्रक्रिया के अंतराल में जैसा कि पहले भी कहा गया माध्यम और सन्दर्भ की भूमिका भी अहम होगी.

अब ज़ाहिर सी बात है कि अपने सन्देश को प्रभावशाली ढंग से निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए संचार के इन सभी स्तरों पर किसी भी प्रकार की बाधा को दूर करना पड़ेगा मिसाल की तौर पर सन्देश को ही लीजिये. यदि सन्देश बहुत लंबा. अस्पष्ट या अनगढ़ होगा तो उसकी सार्थकता नहीं रह जायेगी. यह भी संभव है कि आपकी बात का गलत अर्थ निकाल लिया जाये या फिर उसकी किसी अन्य सन्दर्भ में गलत व्याख्या कर दी जाये. इतना ही नहीं आपके उच्चारण या दैहिक भाषा में भी अगर कोई दोष रहा तो तय मानिये कि आपका सन्देश, संदेह का कारण बन सकता है.

अंदाज़े  बयां कुछ और हो
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अब जहाँ तक सन्दर्भ का प्रश्न है याद रखना होगा कि समय और प्रसंग के मद्देनज़र कम शब्दों में सारभूत कहने के नतीजे अक्सर बेहतर मिलते हैं, बजाय आज की तेज़ रफ़्तार आपाधापी की ज़िन्दगी को दरकिनार कर अपनी बात कहने की जिद की जगह पर अगर आप संक्षेप में सन्देश संप्रेषित करने की प्राथमिकता समझ जाते हैं तो कोई कारण नहीं कि आप समय पर सटीक फीडबैक हासिल न कर सकें. इस सिलसिले में अपने श्रोताओं यानी सन्देश ग्राहकों की संस्कृति, परिवेश और भाषा का ज्ञान भी अलग अहमियत रखता है. इसके अभाव में संचार कभी सम्पूर्ण नहीं हो सकता. गौर तलब है कि संचार की ये बुनियादी बातें आपको प्रथम प्रभाव के योग्य बनाती हैं, लेकिन अच्छा बोलने के लिए, अपना अंदाज़े बयां दुरुस्त बनाने और कहने और सुनने के बीच परिणामों का सार्थक पुल बनाने के लिए सबसे उत्तम राजमार्ग सतत आभास ही है.

कुछ लोग हैं जिनके पास कहने योग्य कुछ भी नही होता पर वो अक्सर कुछ न कुछ कह बैठते हैं. दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं जिनके पार कहने के लिए एक पूरा खजाना ही साथ साथ चलता है पर दुर्भाग्य ही समझिये कि वे चाहकर भी कुछ बोल नहीं पाते हैं.

इसलिए जिन्हें अभिव्यक्ति की शक्ति का भान है वे कुछ कहने की साथ-साथ अच्छा कहे हुए को
सुनने के लिए सदैव तत्पर देखे जा सकते हैं. और उनकी तो चर्चा ही व्यर्थ है जो कहने और सुनने के बदले महज़ कहा-सुनी में मशगूल होते है. यहाँ संचार के सारे नियम ध्वस्त हो जाते हों तो आश्चर्य क्या है ?

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Thursday, September 6, 2012

ये हैं हिन्दी की शान बढ़ाने वाले विदेशी विद्वान


डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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राजनांदगांव. मो. 9301054300
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केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक रहे प्रतिष्ठित लेखक व चिन्तक प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने अपने विशेष अध्ययन के निष्कर्ष में ठीक ही कहा है कि अंग्रेजों के शासनकाल में बहुत से विदेशियों ने निष्ठापूर्वक हिन्दी सीखी और अनेक ग्रंथों का लेखन किया। उनके अध्ययन आज के भाषा वैज्ञानिक विश्लेषण एवं पद्धति के अनुरूप भले ही न हों किन्तु हिन्दी भाषा के अध्ययन की दृष्टि से उनका ऐतिहासिक महत्व है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता.

वास्तव में अंग्रेजों के शासनकाल में भारत में केवल ब्रिटिश नागरिक ही नहीं आए; हालैण्ड, जर्मनी, फ्रांस, रूस एवं अमेरिका आदि देशों के नागरिक भी आए। आगत विदेशी पादरियों, कर्मचारियों, प्रशासकों में से बहुत से विदेशियों ने श्रम एवं निष्ठापूर्वक हिन्दी सीखी तथा हिन्दी सीखकर हिन्दी की पाठ्य पुस्तकों, हिन्दी के व्याकरणों एवं कोशों का निर्माण किया। उनके अध्ययन आज के भाषा वैज्ञानिक विश्लेषण एवं पद्धति के अनुरूप भले ही न हों किन्तु हिन्दी भाषा के वाड्.मीमांसापरक अध्ययन की दृष्टि से उनका ऐतिहासिक महत्व बहुत अधिक है। इन विदेशी विद्वानों में डॉ0 हार्नले, डॉ0 ग्रियर्सन तथा डॉ0 टर्नर जैसे प्रख्यात एवं मेधावी भाषाविद् भी हैं। इनके कार्यों से न केवल हिन्दी भाषा का विकास हुआ अपितु भारतीय आर्यभाषाओं की अध्ययन -परम्परा का मार्ग भी प्रशस्त हुआ।

भारत विद्या के क्षेत्र में कार्य करने वाले विदेशी विद्वानों की संख्या शताधिक है, जिसकी जानकारी हिन्दी के विद्यार्थियों एवं हिन्दी सेवी रचनाकारों को भी हो इस दृष्टि से यहाँ चंद विदेशी हिन्दी के विद्वानों के योगदान की चर्चा की जा रही है.

जान जेशुआ केटलेर  - डच भाषी केटलेर व्यापार के लिए सूरत शहर में आए। व्यापार के लिए इन्हें सूरत से दिल्ली, आगरा और लाहौर आना पड़ता था। भारत आने के बाद इन्होंने हिन्दी सीखी तथा अपने देश के लोगों के लिए डच भाषा में हिन्दुस्तानी भाषा का व्याकरण लिखा। इस डच मूल की नकल इसाक फान दर हूफ नामक हॉलैण्डवासी ने सन् 1698 ईसवी में की। इसका अनुवाद दावीद मिल ने लैटिन भाषा में किया। हॉलैण्ड के लाइडन नगर से लैटिन भाषा में सन् 1743 ईस्वी में यह पुस्तक प्रकाशित हुई। इस प्रकाशित पुस्तक की एक प्रति कोलकता की नेशनल लाईब्रेरी में उपलब्ध है। इस व्याकरण का विवरण सर्वप्रथम डॉ0 ग्रियर्सन ने प्रस्तुत किया.

बेंजामिन शूल्ज़ - डेनिश भाषी डॉ0 शूल्ज़ प्रोटेस्टेन्ट मिशनरी थे। ये पहले तमिलनाडु में कार्यरत थे, बाद में हैदराबाद आ गए। आपकी मृत्यु सन् 1760 ई0 में जर्मनी के हाले नगर में हुई। कार्य करते हुए इनको दायित्व-बोध हुआ कि भारत में आने वाले मिशनरियों को हिन्दुस्तानी भाषा से अवगत कराना चाहिए। हिन्दुस्तानी भाषा के सम्बन्ध में लेखक ने अपनी भूमिका में लिखा - यह भाषा अपने आप में बहुत ही सरल है। मैं जब यह भाषा सीखने लगा तो मुझे अत्यधिक कठिनाई का अनुभव हुआ, लेकिन इस भाषा को सीखने की तीव्र इच्छा के कारण लगातार दो महीने के परिश्रम के फलस्वरूप सारी कठिनाई जाती रही। आरम्भ में ही मैंने इस भाषा के ज्ञान की आवश्यक बातों, विशेष रूप से शब्द-क्रम को लिख लिया था। धीरे-धीरे एक व्याकरण की सामग्री एकत्र हो गयी। बाद में इसे क्रमानुसार सजाकर पुस्तक का रूप दिया गया। शूल्ज़ ने अपना व्याकरण लैटिन भाषा में लिखा। भूमिका की तिथि 30 जून सन् 1741 ई0 है। प्रकाशन तिथि 30 जनवरी 1745 ई0 है।

इस व्याकरण में कुल छह अध्याय हैं। अध्याय एक में वर्णमाला से सम्बन्धित विचार हैं। इसी अध्याय में लेखक ने हिन्दुस्तानी भाषा के सम्बन्ध में तमिल भाषियों की इस मान्यता का प्रतिपादन किया है कि हिन्दुस्तानी भाषा या देवनागरम सारी भाषाओं की माता है। अध्याय दो में संज्ञा एवं विशेषण, अध्याय तीन में सर्वनाम, अध्याय चार में क्रिया, अध्याय पांच में अव्यय (परसर्ग, क्रिया विशेषण, समुच्चय बोधक, विस्मयादि बोधक) तथा अध्याय छह में वाक्य रचना का विवेचन है। परिशिष्ट में प्रेरितों के विश्वास की प्रार्थना, खावंद की बंदगी, बपतिसमा, खावंद की रात की हाजिरी, दस नियम, हे पिता प्रार्थना का विश्लेषण आदि हिन्दुस्तानी भाषा में दिए गए हैं जिस पर हैदराबाद में उस समय बोली जाने वाली दक्खिनी हिन्दी का प्रभाव परिलक्षित है। शब्दों को रोमन लिपि एवं फारसी लिपि में दिया गया है।

कैसियानो बेलिगत्ती- आप कैथलिक कैपूचिन मिशनरी इटली के मचेराता नगर के रहने वाले थे। आरम्भ में इन्होंने तिब्बत में कार्य किया था। बाद में नेपाल होकर बिहार के बेतिया नगर में आ बसे। इन्होंने पटना में भी धर्म प्रचार का कार्य किया। पटना में रहकर इन्होंने ‘‘अल्फाबेतुम ब्रम्हानिकुम' का लैटिन भाषा में प्रणयन किया। इसका प्रकाशन सन् 1771 ई0 में हुआ। इसकी विशेषता यह है कि इसमें नागरी के अक्षर एवं शब्द सुन्दर टाइपों में मुद्रित हैं। ग्रियर्सन के अनुसार यह हिन्दी वर्णमाला सम्बन्धी श्रेष्ठ रचना है.

जॉर्ज हेडले - ग्रैमेटिकल रिमार्क्स ऑन द प्रैक्टिकल एण्ड वल्गर डाइलेक्ट ऑफ द हिन्दोस्तान लैंग्वेज. यह रचना लन्दन से सन् 1773 में प्रकाशित हुई। डॉ0 ग्रियर्सन ने जार्ज हेडले के इस व्याकरण से हिन्दी व्याकरण परम्परा में एक नवीन युग का आरम्भ माना है। इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हुए। लखनऊ के मिर्जा मुहम्मद फितरत ने इसमें परिवर्धन एवं संशोधन किया। सन् 1801 ई0 में लन्दन से इसका परिवर्धित एवं संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ। इस संस्करण के भी कई अन्य संस्करण बाद के वर्षों में प्रकाशित हुए.

जॉन बार्थविक गिलक्राइस्ट - इंग्लिश-हिन्दुस्तानी डिक्शनरी, कलकत्ता (1787) तथा हिन्दुस्तानी ग्रामर (1796). गिलक्राइस्ट का महत्व इस दृष्टि से बहुत अधिक है कि शिक्षा माध्यम के रूप में इन्होंने हिन्दी का महत्व पहचाना। माक्विस बेलेज़ली ने अपने गर्वनर जनरल के कार्यकाल (1798-1805) में अंग्रेज प्रशासकों तथा कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने तथा उन्हें भारतीय भाषाओं से परिचित कराने के लिए कलकत्ता में 4 मई सन् 1800 ई0 को फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की। सन् 1800 में कालेज के हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष के रूप में गिलक्राइस्ट को नियुक्त किया गया। आप ईस्ट इंडिया कम्पनी में सहायक सर्जन नियुक्त होकर आए थे। उत्तरी भारत के कई स्थानों में रहकर इन्होंने भारतीय भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। सन् 1800 ई0 में ही गिलक्राइस्ट के सहायक के रूप में लल्लू लाल की नियुक्ति सर्टिफिकेट मुंशी के पद पर हुई। गिलक्राइस्ट ने हिन्दी में पाठ्य पुस्तकें तैयार कराने की दिशा में प्रयास किया। गिलक्राइस्ट ने भारत में बहुप्रयुक्त भाषा रूप को ‘खड़ी बोली' की संज्ञा से अभिहित किया। ‘खड़ी बोली' को अपने भारत की खालिस या खरी बोली माना है।

हेरासिम स्तेपनोविच लेबिदोव -जैसा कि इनके नाम से स्पष्ट है कि ये रूसी भाषी थे। आप सन् 1785 से सन् 1800 ई0 की अवधि में भारत में रहे। भारत में रहकर इन्होंने हिन्दी सीखी तथा हिन्दी का व्याकरण तैयार किया। इनका व्याकरण अपेक्षाकृत अधिक प्रमाणिक है। सन् 1801 ई0 में इन्होंने यह व्याकरण अपने व्यय से लन्दन में प्रकाशित कराया। व्याकरण ग्रन्थ का नाम है - ‘ग्रामर ऑफ द प्योर एण्ड मिक्स्ड ईस्ट इंडियन डाइलेक्ट्स'।

कैप्टन जोसेफ टेलर -इन्होंने ‘हिन्दुस्तानी-अंग्रेजी' कोश अपने स्वाध्याय के लिए निर्मित किया था। कोश अत्यंत उपयोगी था। फोर्ट विलियम कॉलेज के अध्यापकों ने इसका संशोधन किया। इसका प्रकाशन सन् 1808 में डब्ल्यू हंटर द्वारा कराया गया।

विलियम हंटर- हिन्दुस्तानी-अंग्रेजी डिक्शनरी, कलकत्ता (1808) (जोसेफ टेलर द्वारा स्वाध्याय के लिए निर्मित शब्दकोश का सम्पादन) एवं ए कलेक्शन ऑफ प्रोवर्ब्स- परशियन एण्ड हिन्दुस्तानी आपका योगदान है.

जॉन शेक्सपियर - विलियम हंटर के कोश का आपने सन् 1808 में संशोधन किया। इसका चतुर्थ संस्करण सन् 1849 ई0 में प्रकाशित हुआ जिसमें ‘हिन्दुस्तानी-अंग्रेजी' के बाद ‘अंग्रेजी-हिन्दुस्तानी कोश' भी जोड़ दिया गया. इसी तरह ए ग्रामर ऑफ द हिन्दुस्तानी लैंग्वेज (1813) - इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हुए। इसी तरह इन्ट्रोडक्शन टु द हिन्दुस्तानी लैंग्वेज (1845) का भी अलग महत्त्व है.

फ्रांसिस ग्लैडविन - इनकी मृत्यु सन् 1813 ई0 में हुई। इसके पूर्व इनका फारसी-हिन्दुस्तानी-अंग्रेजी कोश सन् 1805 ई0 में प्रकाशित हुआ। लेखक को यह कृति प्राप्त नहीं हो सकी।

टामस रोएबक - एन इंगलिश एण्ड हिन्दुस्तानी नेवल डिक्शनरी ऑफ टेक्निकल ट्रम्स एण्ड सी फरेज़िज, कलकत्ता (1811) यह छोटी सी रचना है। इसका महत्व ऐतिहासिक है। इससे हिन्दी के आधुनिक पारिभाषिक कोशों की परम्परा का आरम्भ माना जा सकता है। इसी प्रकार आपने होरिस हेमैन विलसन के साथ मिलकर विलियम हंटर (दे0 क्रम सं0 9) की अपूर्ण कृति को पूर्ण किया। आपकी मृत्यु सन् 1819 ई0 में हो गई थी। आपकी मृत्यु के बाद सी0 स्मिथ ने इसे कलकत्ता से सन् 1824 ई0 में प्रकाशित कराया।

पादरी मैथ्यू थामसन एडम - ए ग्रामर ऑफ हिन्दी लैंग्वेज (हिन्दी भाषा का व्याकरण) (1827). श्री कामता प्रसाद गुरू ने हिन्दी की सर्वमान्य पुस्तकों में इसे प्रथम स्थान दिया है। हिन्दी कोश संग्रह किया हुआ पादरी एडम साहब का, कलकत्ता (1829). डॉ0 श्याम सुन्दर दास ने इसे देवनागरी अक्षरों में आधुनिक पद्यति का वर्णक्रमानुसार संयोजित पहला एक भाषीय हिन्दी कोश माना है।

गार्सां द तासी- फ्रांसीसी लेखक गार्सां द तासी की प्रतिभा बहुआयामी थी। हिन्दी साहित्य के इतिहास की जानकारी रखने वाले हिन्दी साहित्य के विद्वान इस तथ्य से परिचित हैं कि आधुनिक दृष्टि से हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने की परम्परा का सूत्रपात आपके द्वारा फ्रेंच भाषा में लिखित ‘इस्तवार द ला लित्रेत्यूर ऐंदुई -ए- ऐंदूस्तानी'(हिन्दुई तथा हिन्दुस्तानी साहित्य का इतिहास) के प्रकाशन से होता है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन पैरिस से सन् 1839 ई0 में हुआ। इसका परिवर्धित एवं संशोधित संस्करण सन् 1870 ई0 में प्रकाशित हुआ। आपने हिन्दी भाषा सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की भी रचना की।

डॉ0 एल0पी0 टेसीटॅरी - इतालवी भाषी डॉ0 टेसीटॅरी हिन्दी के प्रथम शोधकर्ता हैं जिन्हें शोधकार्य के लिए किसी विश्वविद्यालय से डॉक्टर ऑफ फिलासफी की उपाधि प्राप्त हुई। आप तुलसीदास एवं उनकी प्रमुख रचना ‘रामचरितमानस' के अनुसंधानकर्ता हैं। आपने अपने शोध में रामचरितमानस की कथावस्तु की तुलना बाल्मीकि कृत ‘रामायण' की कथावस्तु से की है। ‘इल रामचरितमानस ए इल रामायण' शीर्षक आपका शोध लेख इतालवी पत्रिका ‘ज्योर्नेल डेला सोसाइटा एशियाटिका इटालियाना' में सन् 1911 ई0 में प्रकाशित हुआ। इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘इंडियन ऐन्टिक्वेरी' में सन् 1912 से सन् 1913 ई0 में प्रकाशित हुआ।

ऐसे और भी विद्वान हैं जिन्होंने अपनी मूल भाषा अथवा जन्म स्थान की सीमाओं में न बंधकर हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार और उसमें सृजन कर्म को भी महत्त्व दिया. हिन्दी के विकास का इतिहास इन विदेशी हिन्दी शोधकर्ताओं और विद्वानों के योगदान को भुला नहीं सकता.

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Monday, September 3, 2012

डॉ.ग्रियर्सन की स्मरणीय और अनुकरणीय हिन्दी सेवा


डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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राजनांदगांव. मो. 9301054300


भारतीय अंग्रेजी सिविल सर्विस के कर्मचारी होने के बावजूद सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन की प्रतिष्ठा एक जाने-माने भारतीय विद्या विशारद और भाषा वैज्ञानिक के रूप में है. "लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इंडिया" के प्रणेता के रूप में वह अमर हैं. उनके व्यक्तित्व व कृतित्व का सिंहावलोकन करने से पता चलता है कि ग्रियर्सन को भारतीय संस्कृति और यहाँ के निवासियों के प्रति अगाध प्रेम था. नव्य भारतीय आर्यभाषाओं के अध्ययन की दृष्टि से उन्हें अति विशिष्ट माना गया है. एक सहृदय व्यक्ति के रूप में भी वे भारतवासियों सम्मान के अधिकारी बने.

डॉ. जार्ज ग्रियर्सन का जन्म डब्लिन के निकट 7 जनवरी, 1851 को हुआ था. उनके पिता आयरलैंड में क्वींस प्रिंटर थे. 1868 से डब्लिन में ही उन्होंने संस्कृत और हिन्दुस्तानी का अध्ययन प्रारंभ कर दिया था. बीज़ स्कूल श्यूजबरी, ट्रिनटी कालेज, डब्लिन और कैम्ब्रिज तथा हले (जर्मनी) में शिक्षा ग्रहण कर 1873 में वे इंडियन सिविल सर्विस के कर्मचारी के रूप में बंगाल आए और प्रारंभ से ही भारतीय आर्य तथा अन्य भारतीय भाषाओं के अध्ययन की ओर रुचि प्रकट की. 1880 में इंस्पेक्टर ऑव स्कूल्स, बिहार और 1869 तक पटना के ऐडिशनल कमिश्नर और औपियम एज़ेंट, बिहार के रूप में उन्होंने कार्य किया. सरकारी कामों से छुट्टी पाने के बाद वे अपना अतिरिक्त समय संस्कृत, प्राकृत, पुरानी हिंदी, बिहारी और बंगला भाषाओं और साहित्य के अध्ययन में लगाते थे. बताते हैं की जहाँ भी उनकी नियुक्ति होती थी वहीं की भाषा, बोली, साहित्य और लोकजीवन की ओर उनका ध्यान आकृष्ट होता था.

1873 और 1869 के कार्यकाल में डॉ. ग्रियर्सन ने अपने महत्वपूर्ण खोज कार्य किए. उत्तरी बंगाल के लोकगीत, कविता और रंगपुर की बँगला बोली-जर्नल ऑव दि एशियाटिक सोसायटी ऑव बंगाल, 1877, राजा गोपीचंद की कथा, 1878 ,मैथिली ग्रामर (1880),सेवेन ग्रामर्स आव दि डायलेक्ट्स ऑव दि बिहारी लैंग्वेज (1883-1887), इंट्रोडक्शन टु दि मैथिली लैंग्वेज; ए हैंड बुक टु दि कैथी कैरेक्टर, बिहार पेजेंट लाइफ, बीइग डेस्क्रिप्टिव कैटेलाग ऑव दि सराउंडिंग्ज ऑव दि वर्नाक्युलर्स, जर्नल ऑव दि जर्मन ओरिएंटल सोसाइटी (1895-96), कश्मीरी व्याकरण और कोश,,कश्मीरी मैनुएल,पद्मावती का संपादन (1902) महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी की सहकारिता में,बिहारीकृत सतसई (लल्लूलालकृत टीका सहित) का संपादन, नोट्स ऑन तुलसीदास, दि माडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑव हिंदुस्तान १८८९ आदि उनकी कुछ महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं.

डॉ.ग्रियर्सन की ख्याति का प्रधान आधार लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इंडिया ही है. 1885 में प्राच्य विद्याविशारदों की अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस ने विएना अधिवेशन में भारतवर्ष के भाषा सर्वेक्षण की आवश्यकता का अनुभव करते हुए भारतीय सरकार का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया. फलत: भारतीय सरकार ने 1888 में ग्रियर्सन की अध्यक्षता में सर्वेक्षण कार्य प्रारंभ किया. 1888 से 1903 तक उन्होंने इस कार्य के लिये सामग्री संकलित की. 1902 में नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् 1903 में जब उन्होंने भारत छोड़ा सर्वे के विभिन्न खंड क्रमश: प्रकाशित होने लगे. वह 21 जिल्दों में है और उसमें भारत की 179 भाषाओं और 544 बोलियों का सविस्तार सर्वेक्षण है. साथ ही भाषाविज्ञान और व्याकरण संबंधी सामग्री से भी वह पूर्ण है. ग्रियर्सन कृत सर्वे अपने ढंग का एक विशिष्ट ग्रंथ है. उसमें हमें भारतवर्ष का भाषा संबंधी मानचित्र मिलता है और उसका अत्यधिक सांस्कृतिक महत्व है. दैनिक जीवन में व्यवहृत भाषाओं और बोलियों का इतना सूक्ष्म अध्ययन पहले कभी नहीं हुआ था. बुद्ध और अशोक की धर्मलिपि के बाद डॉ. ग्रियर्सन कृत सर्वे ही एक ऐसा पहला ग्रंथ है जिसमें दैनिक जीवन में बोली जाने वाली भाषाओं और बोलियों का दिग्दर्शन प्राप्त होता है.

इन्हें सरकार की ओर से 1894 में सी.आई.ई. और 1912 में "सर" की उपाधि दी गई. अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् ये कैंबले में रहते थे. आधुनिक भारतीय भाषाओं के अध्ययन क्षेत्र में सभी विद्वान् उनका भार स्वीकार करते थे. 1876 से ही वे बंगाल की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के सदस्य थे. उनकी रचनाएँ प्रधानत: सोसायटी के जर्नल में ही प्रकाशित हुईं. 1893 में वे मंत्री के रूप में सोसाइटी की कौंसिल के सदस्य और 1904 में आनरेरी फेलो मनोनीत हुए. 1894 में उन्होंने हले से पी.एच.डी. और 1902 में ट्रिनिटी कालेज डब्लिन से डी.लिट्. की उपाधियाँ प्राप्त कीं. वे रॉयल एशियाटिक सोसायटी के भी सदस्य थे. उनका निधन 1941 में हुआ.

भारतीय भाषाओं एवं साहित्य के अध्ययन की दृष्टि से विदेशी विद्वानो में डॉ0 ग्रियर्सन का नाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. इस दृष्टि से यह तथ्य उल्लेखनीय है कि भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री की अध्यक्षता में केन्द्रीय हिन्दी संस्थान की शासी परिषद् ने सन् 1993 ई0 में अपनी बैठक में हिन्दी सेवी सम्मान योजना के अन्तर्गत प्रतिवर्ष एक विदेशी हिन्दी सेवी विद्वान को भी सम्मानित करने का निर्णय लिया तो सर्वसम्मति से पुरस्कार का नाम डॉ0 जॉर्ज ग्रियर्सन पुरस्कार रखा गया. भारत के राष्ट्रपति ने 14 सितम्बर, 1994 को आयोजित समारोह में अपने भाषण में प्रथम जॉर्ज ग्रियर्सन सम्मान प्राप्त करने वाले विदेशी विद्वान को विशेष रूप से अपनी हार्दिक बधाई दी.

साहित्येतिहास की दृष्टि से इनकी ‘मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान' ग्रन्थ का महत्व है. इसका प्रकाशन एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, कलकत्ता द्वारा सन् 1889 ई0 में हुआ. आपने ग्रामीण शब्दावली एवं लोक साहित्य पर भी कार्य सम्पन्न किए. आपने काश्मीरी भाषा पर व्याकरण एवं कोश सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों की भी रचना की। आपके बिहारी भाषाओं तथा भारत की भाषाओं से सम्बन्धित निम्न ग्रन्थों का उल्लेख करना प्रासंगिक है जिनमें हिन्दी भाषा क्षेत्र की उपभाषाओं का भी विस्तृत विवेचन समाहित है.

सन् 1894 ई0 में इन्होंने भारत के भाषा सर्वेक्षण का कार्य आरम्भ किया. 33 वर्षों के अनवरत परिश्रम के फलस्वरूप यह कार्य सन् 1927 ई0 में समाप्त हुआ। मूलतः यह ग्यारह खण्डों में विभक्त है. ग्यारह हजार पृष्ठों का यह सर्वेक्षण-कार्य विश्व में अपने ढंग का अकेला कार्य है. विश्व के किसी भी देश में भाषा-सर्वेक्षण का ऐसा विशद् कार्य नहीं हुआ है. प्रशासनिक अधिकारी होते हुए आपने भारतीय भाषाओं और बोलियों का विशाल सर्वेक्षण कार्य सम्पन्न किया. चूँकि आपका सर्वेक्षण अप्रत्यक्ष-विधि पर आधारित था, इस कारण इसमें त्रुटियों का होना स्वाभाविक है.सर्वेक्षण कार्य में जिन प्राध्यापकों, पटवारियों एवं अधिकारियों ने सहयोग दिया, अपने अपने क्षेत्रों में बोले जाने वाले भाषा रूपों का परिचय, उदाहरण, कथा-कहानियाँ आदि लिखकर भेजीं, वे स्वन-विज्ञान एवं भाषा विज्ञान के विद्वान नहीं थे. अपनी समस्त त्रुटियों एवं कमियों के बावजूद डॉ0 ग्रियर्सन का यह सर्वेक्षण कार्य अभूतपूर्व है तथा भारत की प्रत्येक भाषा एवं बोली पर कार्य करने वाला शोधकर्ता सर्वप्रथम डा0 ग्रियर्सन की मान्यता एवं उनके द्वारा प्रस्तुत व्याकरणिक ढांचे से अपना शोधकार्य आरम्भ करता है. यह कहा जा सकता है कि आपके कार्य का ऐतिहासिक महत्व अप्रतिम है.

इस तरह अंग्रेजों के शासनकाल में बहुत से विदेशियों ने श्रम एवं निष्ठापूर्वक हिन्दी सीखी तथा हिन्दी सीखकर हिन्दी की पाठ्य पुस्तकों, हिन्दी के व्याकरणों एवं कोशों का निर्माण किया. उनके अध्ययन आज के भाषा वैज्ञानिक विश्लेषण एवं पद्धति के अनुरूप भले ही न हों किन्तु हिन्दी भाषा के अध्ययन की दृष्टि से उनका ऐतिहासिक महत्व बहुत अधिक है. ऐसे विदेशी विद्वानों से सचमुच बहुत कुछ सीखा जा सकता है. प्रेरणा यह है कि हिन्दी की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाने वाले हम भारतीयों में से अनेक कम से कम माँ भारती के ऐसे पाश्चात्य सेवकों की साधना से तो कुछ न कुछ हासिल कर सकते हैं.


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