Monday, September 5, 2011

जाने क्यों डगमगा गए...




जाने क्यों डगमगा गए फिर चरण छंद के
जाने क्यों शब्दों का साहस टूट रहा है
पंक्ति तोड़कर अक्षर ख़ुद भी टूट रहे हैं
लगता है हर भविष्य पीछे छूट रहा है

धरती जब बादल बिजली से काँप रही हो
तब सूरज का आश्वासन दर्शन बन जाता
हरामखोरों की बस्ती में संत कह रहा
मन मारो तो सारा तन, चिंतन बन जाता

गतिशीला, सौन्दर्य-विपन्ना मरू-सिकता यह
इतिहासों के चिन्ह संजोये झूम रही है
गंगा का जल अवतारों के पाद परसकर
लहर-लहर आकाशी माथा छूम रही है

संकेतों की बात नहीं है क्रांति अभी तक
श्रद्धा से दो गज भी आगे बढ़ी नहीं है
स्वतंत्रता ने सिंहासन गढ़ मूरत गढ़ ली
युग ने अब तक कोई मूरत गढ़ी नहीं है
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जन कवि डॉ.नंदूलाल चोटिया की कविता साभार प्रस्तुत
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