Sunday, June 29, 2008

गीत ख़ुशी से गा लेना....!


तुम अपने एहसास के दामन को रंगीन बना लेना
जब भी आए याद हमारी,गीत खुशी से गा लेना

जिन गलियों में कभी अकेले मिलकर बिछुड़ गए थे हम
उन गलियों में फिर आ जाना हमको गले लगा लेना

हमने अपने लिए आज तक कहाँ कभी कुछ भी माँगा
तुम हमसे कुछ चाह रहे हो चुपके से बतला देना

ज़र्रा-ज़र्रा बनकर हीरा चमक उठेगा तय मानो
तुम सज धज के बज़्म में आना एक झलक दिखला देना

दिल भी घायल,रूह भी ज़ख्मी, उम्मीदें भी टूट चुकीं
हमदर्दी की ओढ़ के चादर हमसे नज़र मिला लेना

जीवन खुली किताब हमारी और सबक इसके सच्चे
सीख अगर कुछ मिल जाए तो दिल में उसे बसा लेना
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Friday, June 27, 2008

क़द...!


अपने क़द को

ध्यान में रखकर

उसने खड़ी कीं

ऊँची दीवारें

और बनाया

एक आलीशान महल

अब देखिए

महल ऊँचा हो गया

और उसका क़द....!

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Monday, June 23, 2008

पावस की सुरभि बिछा दूँ ...


तुम अगर रुदन को छोड़ तनिक मुस्का दो
मैं जीवन में पावस की सुरभि बिछा दूँ.

क्या सिंधु सुखा सकता है भानु तपन से ?
तुम चढ़े रहो शैतानों की छाती पर
क्या मृत्यु रोक पाई जीवन की धारा ?
तुम अड़े रहो बलिदानों की माटी पर
तुम वीणा के तारों पर हाथ घुमा दो
मैं कर्म-क्षेत्र में गीत भैरवी गा दूँ.

जब करुणा का सागर हिलोरें लेता है
कोई नौका तब नहीं डुबोयी जाती
मत रोओं, सहो वेदना अभी समय है
अनमोल नई गरिमा तब जोड़ी जाती
तुम बाँहों में अपनी पतवार थमा दो
मैं मझधारों से तट पर तुम्हें बिठा दूँ.

तुम अगर रुदन को छोड़ तनिक मुस्का दो
मैं जीवन में पावस की सुरभि बिछा दूँ.
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Sunday, June 22, 2008

मासूम रातें...ग़मों के सबेरे !


ये ऐसी ज़मीं है जहाँ रहने वाले
बखुद अपने घर का पता पूछते हैं !

ये फकीरी का आलम,ये भूखों के डेरे
ये मासूम रातें, ग़मों के सबेरे
ये बुझते दिए, टिमटिमाते सितारे
अंधेरों से राहे फतह पूछते हैं !

ये फ़ाका परस्ती,ये नफ़रत का साया
यतीमों की हालत पे,तरस किसको आया ?
मज़ारे शहीदों के सिसकते ज़नाज़े
क्यों सूखी महकती लता पूछते हैं !

ये ऐसी ज़मीं है......!
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Saturday, June 21, 2008

ज़िंदगी मेरी नहीं उधार !


नहीं चाहिए मुझे
किसी और के बगीचे के
फूलों की महक या माला
मुझे तो है
अपने ही बगीचे के
काँटों से प्यार !
तुम ख़ूब नगद ज़िंदगी
अपनी समझ रहे पर
ये कम नहीं कि
ज़िंदगी मेरी नहीं उधार !
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Friday, June 20, 2008

हीरा...हीरा है !


फूल, फूल है आँखों में बस जाता है
शूल, शूल है पाँवों में गड़ जाता है
काँच, काँच है बेशक चमकेगा लेकिन
जो हीरा है,मुकुट-मणि बन जाता है
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Thursday, June 19, 2008

आज है.....कल नहीं है !


फूल खिले झर गए
काँटे मिले बिखर गए
सुख आया चला गया
दुःख आया नहीं रहा
मिलना और बिछुड़ जाना
यही तो है
जीवन का ताना-बाना
नियम बस यही है
जो आज है
वह कल नहीं है.

Wednesday, June 18, 2008

इतनी-सी चाहत...!


चाहता हूँ
मन खुले
ऊन के गोले की तरह
कि बुन सकूँ
स्वेटर कविता की.
चाहता हूँ
धुना जाए यह मन
कपास की तरह
कि पिरो सकूँ धागों में
जीवन के बिखरे फूलों को
बना सकूँ एक माला
नई अनुभूति की.

Tuesday, June 17, 2008

आख़िर क्या है आदमी....?


आदमी क्या है, डोली के कहारों से पूछो
आदमी क्या है, यौवन की बहारों से पूछो
आदमी क्या है, लकड़ी के सहारों से पूछो
आदमी क्या है, चिता के अंगारों से पूछो

Monday, June 16, 2008

दुःख देखे पर दुखी न हुआ...!


दुःख कहने की बात नहीं सहना होता है
सुख जम सका कहाँ उसको बहना होता है
दुःख देखे पर कभी न दुःख से दुखी हुआ जो
इंसान नहीं,भगवान उसे कहना होता है
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Saturday, June 14, 2008

यूँ ही जाता नहीं बदल कोई....!


पहचान न पाए जो किसी को वो आदमी
कितना भी समझदार हो गहरा नहीं होता
- नरोत्तम शर्मा

मैं तो अपने आपको तेरी तरह समझता हूँ
मेरी नज़र में मेरा ऐतबार कम कर दे
- डा.बशीर 'बद्र'

मेरी ज़िंदगी के मालिक मेरे दिल पे हाथ रखना
तेरे आने की खुशी में मेरा दम निकल न जाए
- अनवर मिर्ज़ापुरी

जिसकी शोहरत है उसी नाम के जलते हैं चराग़
कितने ही नाम हैं ऐसे जो उजालों में नहीं
- ज़फर 'कलीम'

आदमी है कि वो ज़माना है
यूँ तो जाता नहीं बदल कोई
- सूर्यभानु गुप्त

जो आने वाले हैं मौसम उन्हें शुमार में रख
जो दिन गुज़र गए उनको गिना नहीं करते
- मोहसिन भोपाली

मुश्किल से हाथों में खज़ाना पड़ता है
पहले बरसों आना-जाना पड़ता है
- डा.राहत इन्दौरी
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Thursday, June 12, 2008

कलम की धार से जीतो....!


कली को जीतना है तो मधुर मुस्कान से जीतो

हिरण-मन जीतना है तो सरस-झंकार से जीतो

किसी को जीतना क्या है अरे तलवार से,बम से

किसी को जीतना है तो कलम की धार से जीतो

इतिहास बदल सकता है....!


आदमी चाहे तो विश्वास बदल सकता है
ये घटा और ये आकाश बदल सकता है
आदमी ही यहाँ इतिहास लिखा करता है
आदमी चाहे तो इतिहास बदल सकता है
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Tuesday, June 10, 2008

जरा-सी प्यास चाहिए...


एहसास नहीं मन को विश्वास चाहिए
तूफ़ान नहीं जीने को साँस चाहिए
लाख समंदर भी कम होंगे ज़िंदगी में
बस अधरों पर जरा-सी प्यास चाहिए
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हार को जीत में बदलने की कला सीखो
रुदन को गीत में बदलने की कला सीखो
ज़िंदगी की हकीक़त पा जाओगे मगर
घृणा को प्रीत में बदलने की कला सीखो
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Monday, June 9, 2008

अगर वक़्त मिला होता....!


हमारे शहर में, 'मुक्तिबोध-स्मारक' के लोकार्पण प्रसंग पर
११-१२ सितम्बर २००५ को
प्रख्यात कवि-समालोचक श्री अशोक वाजपेयी के साथ मुझे
'त्रिधारा' साहित्य-संवाद में सहभागिता और संयोजन का सौभाग्य मिला था।
उनकी ये कविता मैंने उद्भावना कवितांक ४७-४८ में पढ़ी थी।
सोचा कि आपको भी बताऊँ कि क्या होता ...अगर वक़्त मिला होता !
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अगर वक़्त मिला होता
तो मैं दुनिया को कुछ बदलने की कोशिश करता।
आपकी दुनिया को नहीं/अपनी दुनिया को
जिसको सम्हालने-समझने
और बिखरने से बचाने में ही वक़्त बीत गया।

वैसे वक़्त का टोटा नहीं था
कुल मिलाकर ठीक-ठाक मिल ही गया
पर पता नहीं क्यों पूरा नहीं पड़ा।
अनंत पर इतना एकाग्र रहा
कि शायद इतिहास पर नज़र डालना भूल गया।

उस वक़्त में प्रेम किया,भोजन का जुगाड़ किया,
छप्पर नहीं जुटा लेकिन लोगों के संग-साथ की /
गरमाहट ने सहारा दिया,
कविताएँ लिखीं, कुछ दूसरों की मदद की/
कुछ बेवज़ह विवाद में फँसा
नौकरी की और शिखर पर पहुँचने में सफल नहीं हुआ,
झंझटों से बिना कुम्हलाये निकल आया
पर न सुख दे सका,न पा सका।

हँसने के लिए महफिलें बहुत थीं
रोने के लिए कंधे कम मिले
जब-तब भीड़ में पहचान लिया गया
पर इसीलिए चेहरे के सारे दाग़ जग-ज़ाहिर होते रहे।
पुरखों की याद करने का मौका कम आया
और पड़ोस के कई लोगों के चेहरे /गैब में गुम होते रहे
मुझे कोई भ्रम नहीं है/कि मेरे बदले
दुनिया जरा भी बदल सकती है
पर अगर वक़्त मिलता/तो एक छोटी सी कोशिश की जा सकती थी,
हारी होड़ सही/लगाई जा सकती थी।

दुनिया यों बड़ी मेहनत-मशक्कत से/ बदलती होगी
फौज़-फाँटे और औजारों-बाज़ारों से,
लेकिन शब्दों का एक छोटा सा लुहार/और नहीं तो
अपनी आत्मा की भट्टी में तपते हुए/इस दुनिया के लिए
एक नए किस्म का चका ढालने की
ज़ुर्रत कर ही सकता था -

अगर वक़्त
मिला होता
तो दुनिया की हरदम डगमगाती गाड़ी में
एक बेहतर चका लगाकर उसका सफ़र आरामदेह बनाने की,
उसे थोड़ा सा बदलने की गुस्ताखी तो की ही जा सकती थी।
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लिखा कुछ भी नहीं....!


ये अलग बात है कि ख़ामोश खड़े रहते हैं

फिर भी जो लोग बड़े हैं, वो बड़े रहते हैं

- डा.राहत इन्दौरी

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खुशनुमां देखें जो दीवार की दर की सूरत

खूबसूरत नज़र आयेगी नगर की सूरत

- शम्स रम्ज़ी

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शर्म से झुक गई हों जब नज़रें

फिर क़यामत उठा नहीं करती

- साजन पेशावरी

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मेरे सीने पे वो सर रखे हुए सोता रहा

जाने क्या थी बात,मैं जागा किया रोता रहा

- डा.बशीर बद्र

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दोस्तो बज़्म सजेगी न कभी मेरे बाद

रतजगे याद जब आयेंगे तो पछताओगे

- शहीद 'शैदाई'

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मुहब्बत को गले का हार भी करते नहीं बनता

कुछ ऐसी बात है इनकार भी करते नहीं बनता

- महबूब 'खिजां'

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वो भी शायद रो पड़ें वीरान काग़ज़ देख के

मैंने उनको आख़िरी ख़त में लिखा कुछ भी नहीं

- निज़ाम 'रामपुरी'

Sunday, June 8, 2008

छोटी सी बात ...!


जैसे धरती पर क्यारी के लिए
क्यारी में डाली के लिए
डाली में फूल के लिए
फूल में फल के लिए
होती है जगह, थोड़ी सी या बहुत
वैसे ही हर इंसान के लिए रहे
थोड़ी सी जगह, धरती पर
ताकि फल-फूल सके
संस्कृति मानवता की
और जीवित रहे एक दूसरे की
एक दूसरे को जगह देने की परम्परा...!

Saturday, June 7, 2008

सीप के मोती...!


तल्ख़ बातें हमें पसंद नहीं
जो भी पूछो वो प्यार से पूछो
- नामालूम
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ये बरगद आड़ में साए की छल करते हैं दूबों से
पता है धूप का इन पर करम होना ज़रूरी है
- जिगर श्योपुरी
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मैं देर तक तुझे ख़ुद न रोकता लेकिन
तू जिस अदा से उठा है उसी का रोना है
- फ़िराक गोरखपुरी
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चमकते लफ्ज़ सितारों से छीन लाये हैं
हम आसमां से ग़ज़ल की ज़मीन लाये हैं
- डा.राहत इन्दौरी
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सच है मेरी बात का क्या ऐतबार
सच कहूँगा झूठ मानी जायेगी
- दिल शाह्ज़हांपुरी
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लेने वाले तेरा करम होगा
मौत के बदले ज़िंदगी ले ले
- कमेश्वरदयाल 'हज़ीं'
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Thursday, June 5, 2008

एक और ग़ज़ल ...


जब बगावत ज़ुल्म से करने लगे हैं
लोग हमसे बेसबब डरने लगे हैं

सिर्फ़ जीना ही है मक़सद ज़िंदगी का
इस तरह जी-जी के हम मरने लगे हैं

कल्पना और आस्था के बीज बोकर
सेज़ पर काटों की हम चलने लगे हैं

रोशनी की चाह दिल में जब से आई
क्यों अँधेरे मेरे घर पलने लगे हैं

जो कभी उभरे थे सूरज की तरह वो
शाम जब होने लगी ढलने लगे हैं

Wednesday, June 4, 2008

चमन को बहार दे ...


हम मीर से कहते हैं तू न रोया कर


हँस-खेल के टुक चैन से भी सोया कर


- मीर तकी 'मीर'


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जब आए थे तो रोते हुए आए थे


अब जायेंगे, औरों को रुला जायेंगे


- अब्राहिम ज़ौक


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दुःख जी को पसंद आ गया है ग़ालिब


दिल रूककर बंद हो गया है ग़ालिब


- मिर्ज़ा ग़ालिब


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रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह


अटका कहीं जो आपका दिल भी मेरी तरह


- मोमिन खां 'मोमिन'


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परवरदिगार ही तो है, गुल दे कि खार दे


जी चाहे जिस तरह वो चमन को बहार दे


- हीरालाल 'फ़लक'


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आदमी हूँ गुनाह करता हूँ


इसमें ऐ रब मेरी खता क्या है


- कृष्णकुमार 'चमन'


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पंछी उड़े तो सूखे हुए पेड़ ने कहा


रुत फिर गयी तो ये भी मुझे छोड़कर चले


- नौबहार 'साबिर'


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Tuesday, June 3, 2008

चेहरों का हाल.....!


मुझसे वैसे चेहरों का हाल मत पूछो
आदमी की है दुरंगी चाल मत पूछो

बेचकर ईमान जो हैं जीतते अक़्सर
झूठ है मज़बूत उनकी ढाल मत पूछो

आईना पढ़ लेता जो चेहरा तो बात थी
है मुझे किस बात का मलाल मत पूछो

वक्त आने पर दूंगा सौ सवालों के ज़वाब
पर कभी बेवक्त तुम सवाल मत पूछो

हादसे में जो मरा वो आदमी था और क्या
हादसे पर क्यों हुआ बवाल मत पूछो

Monday, June 2, 2008

नई ताज़गी चाहिए !


ज़िन्दगी के लिए बंदगी चाहिए
है अँधेरा घना रोशनी चाहिए

तुम नहीं हो तो है ज़िन्दगी बेमज़ा
जिस तरह चाँद को चाँदनी चाहिए

सजनी हो तो साजन से क्यों दूर हो
चाँदनी को तो बस चाँद ही चाहिए

लाज की लालिमा आँखों में सपन
आरज़ू को कहो क्या नहीं चाहिए

मैं बताऊँ तुम्हें ज़िन्दगी के लिए
हर क़दम पर नई ताज़गी चाहिए

तू जो भूखा रहे मैं भी खा न सकूँ
आदमी बस रहे आदमी चाहिए

बूँद भर नर्म उजाला....!


थके हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें


सलीकामंद शाखों का लचक जाना ज़रूरी है


- वसीम बरेलवी


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आ गया मैं किसी जुगनू के नज़र में कैसे


बूँद भर नर्म उजाला मेरे घर में कैसे


- मुज़फ्फ़र हनफी


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ख़ुद मुसीबत में मुसीबत हर तरफ़ से घिर गई


मेरे घर आई तो लेकिन आ के पछताई बहुत


- सलीम अहमद ज़ख्मी


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हमीं को क़त्ल करते हैं,हमीं से पूछते हैं वो


शहीदे-नाज़ बतलाओ मेरी तलवार कैसी है


- नामालूम


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हाल घर का न कोई पूछने वाला आया


दोस्त भी आए तो मौसम की सुनाने आए


- नामालूम


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