Wednesday, August 28, 2013


अंग्रेजों के मानस पुत्रों को 'संस्कृत' की चुनौती 


डॉ.चन्द्रकुमार जैन 

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फ़ोर्ब्स पत्रिका की एक रिपोर्ट में संस्कृत को सभी उच्च भाषाओं की जननी माना गया है। इसका कारण हैं इसकी सर्वाधिक शुद्धता और इसीलिए यह कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर के लिए एक उपयुक्त भाषा है मीठी और दैवी संस्कृत भाषा का काव्य बहुत ही मीठा है एवं उससे भी अधिक मीठा,प्रभावशाली नैतिक शिक्षा देने वाला सुभाषित है. संस्कृत को देववाणी भी कहते हैं। इस दृष्टि से यह देवों के समान स्वातंत्र्य की भाषा है.यह बंधन काटने वाली दैवीय भाषा है. 1857 की क्रान्ति का अग्रदूत प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द संस्कृत का उद्‌भट विद्वान थे लोकमान्य  तिलक, लाला लाजपतराय, पंडित मदन मोहन मालवीय पर भी संस्कृत की अमिट छाप थी.

संस्कृत भाषा आज भी करोड़ों मनुष्यों के जीवन से एकमेक है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक समस्त जनता के धार्मिक कृत्य संस्कृत में होते हैं। प्रातः जागरण से ही अपने इष्टदेव को संस्कृत भाषा में स्मरण करते हैं। गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त सोलह संस्कार संस्कृत में होते हैं। जैन और महायानी बौद्धों का समस्त विशाल साहित्य संस्कृत और प्राकृत में भी है। विचार-विस्तार, भाषण का माध्यम संस्कृत है। आज भी हजारों विद्वान नानाविध विषयों में साहित्य से इसकी गरिमा को निरन्तर बढ़ाकर अपनी और संस्कृत की महिमा से अलंकृत हो रहे हैं। अतः संस्कृत एक जीवन्त और सशक्त भाषा है।

यह सुखद आश्चर्य की बात है कि अमेरिका विशाल देश है। उत्तरी अमेरिका के दक्षिणी भाग मैक्सिको और पनामा राज्य की सीमा का लगभग 20-22 वर्ष पूर्व अनुसन्धान किया गया। वहॉं अन्वेषण में एक मनुष्य समुदाय मिला। जाति विशारद विद्वानों ने उनके शरीर के श्वेत वर्ण के कारण उनका नाम व्हाईट इंडियन रखा और उनकी भाषा का नाम भाषा विशेषज्ञों ने ब्रोन संस्कृत रखा। इस अन्वेषण से यह सिद्ध होता है कि किसी जमाने में संस्कृत भाषा का अखण्ड राज्य था। हम सब बाली द्वीप का नाम जानते हैं। उसकी जनसंख्या लगभग पच्चीस लाख बताई जाती है। बाली द्वीप के लोगों की मातृभाषा संस्कृत है। 

इतने सबल प्रमाणों के होते हुए भी अंग्रेजों के मानस पुत्र संस्कृत को मृत भाषा कहने में नहीं चूकते। यह तो किसी को सूर्य के प्रकाश में  न दिखाई देने के समान है। इसमें सूर्य का क्या दोष है! यह सरासर अन्याय और संस्कृत भाषा के साथ जानबूझकर खिलवाड़ है। संस्कृत तो स्वयं समर्थ, विपुल साहित्य की वाहिनी, सरस, सरल और अमर भाषा है।

मनुस्मृति जब जर्मनी में पहुँची तो वहॉं के विद्वानों ने इसका और जैमिनी के पूर्व मीमांसा दर्शन का अध्ययन करके कहा- हन्त! यदि ये ग्रन्थ हमें दो वर्ष पूर्व मिल गये होते तो हमें विधान बनाने में इतना श्रम न करना पड़ता। काव्य नाटक आदि के क्षेत्र में कोई भी भाषा संस्कृत की समानता नहीं कर सकती। वाल्मीकि तथा व्यास की बात ही कुछ और है। भवभूति, भास, कालिदास की टक्कर के कवि तो भारत के ही साहित्य में हैं। विश्व के किसी और देश में ऐसे साहित्यकार कहॉं हैं? भाषा का परिष्कार अलंकार शास्त्र से भारत में ही हुआ, अन्यत्र नहीं। अभिघा, लक्षणा, व्यंजना का मार्मिक विवेचन भारतीय मनीषियों की संस्कृत साहित्य में उपलब्धि है।

लॉर्ड मेकॉले ने जब कलकत्ता में एक विद्यालय की स्थापना की तब उसने भारत के सभी भाषा विद्वानों को आमन्त्रित किया एवं उनसे पूछा कि “आप लोगों को शिक्षा किस भाषा में दी जाना चाहिये तब सब विद्वानों ने एकमत से कहा - संस्कृत भाषा में दी जाना चाहिये। परंतु लॉर्ड मेकॉले ने कहा - संस्कृत तो मृत भाषा है उसमें शिक्षा नही दी जा सकती। आप को उन्नति के शिखर पर पहुँचना है तो अंग्रेजी भाषा में शिक्षा ग्रहण करो। आपको ऊंचे पद और नौकरियाँ मिलेगी। इस प्रकार लॉर्ड मेकॉले ने अपनी शिक्षा पद्धति भारतीयों को मानसिक रूप से पूर्ण दास बनाने के लिये प्रारम्भ की और अफ़सोस है उसी का अनुसरण आज तक किया जा रहा है और हम अपनी भाषा, अपनी संस्कृति को भुलाए बैठे हैं। 

Tuesday, August 27, 2013


सामयिक 
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'अपराध' के मुद्दे पर 'अपराधीन' क्यों हैं हम ? 


डॉ.चन्द्रकुमार जैन 


धर्म,ध्यान और संस्कृति की धन्य भूमि भारत में शायद ये बहुत दुखद और त्रासद दौर ही कहा जायेगा कि इन दिनों लगातार मूल्यों के विघटन व नैतिक पतन की ख़बरें प्रकाश में आ रही हैं। लोग शर्मोहया को ताक पर रखकर कहीं भी, कभी भी, कुछ भी करने पर आमादा दिख रहे हैं . अपराध के नए-नए तरीके और आतंक व दहशत पैदा करने के निराले अंदाज़ सामने आने लगे हैं .लिहाजा, याद रहे कि इन हालातों पर अगर हम लगातार खामोश रहे तो चिंता से कहीं अधिक चिंतन और मज़बूत पहल की गुहार लगाता हमारा मौजूदा वक्त हमें कभी माफ़ नहीं करेगा . 

ताज़ा उदाहरण देखिये - श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का दिन। तमाम सोसायटी, मुहल्ले और मंदिरों में बच्चे कृष्ण और राधा के रूप में सजकर धूम मचाते रहे .दूसरों के द्वारा उन्हें दुलारे जाते देख उनके माता-पिता खूब प्रसन्न हुए .लेकिन,गाजीपुर की रहने वाली सुनीता और उनके पति सुनील इनमें शामिल नहीं हो सके क्योंकि राजधानी के नामचीन अस्पतालों के एक भी डाक्टर का दिल उनकी 26 दिन की बीमार बच्ची पर नहीं पसीजा। 

सात घंटे तक अस्पतालों के चक्कर लगाने के बाद बच्ची ने एक बड़े अस्पताल पहुंचकर मां की गोद में ही दम तोड़ दिया। बच्ची पर रहम न खाने वालों की बेदर्दी ने ऐन जन्माष्टमी के मौके पर उनकी खुशियां छीन लीं। घंटों एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल में बच्ची को भर्ती करने के लिए भटकते रहे परिजन।  कुल मिलाकर हर अस्पताल ने दिखाई इलाज शुरू करने में विवशता,दिया टका-सा जवाब। संवेदनहीनता की हदें पार कीं, कोई डॉक्टर अपनी जिम्मेदारी मानने को तैयार नहीं हुआ।

दूसरा दृश्य - सराय रोहिल्ला थाना इलाके में स्कूल से पढ़कर घर लौट रही एक छह साल बच्ची से दुष्कर्म की कोशिश की गई। बच्ची के शोर मचाने पर लोगों ने आरोपी को पकड़ लिया। जमकर पिटाई करने के बाद उसे पुलिस के हवाले कर दिया गया। स्कूल से घर लौटते समय बच्ची को पड़ोस का एक युवक बहला-फुसला कर निर्माणाधीन इमारत में ले गया और उससे दुष्कर्म की कोशिश करने लगा। लड़की के शोर मचाने पर पड़ोसी एक महिला की नजर युवक पर पड़ गई। हालांकि इसके बाद आरोपी युवक लड़की को मौके पर छोड़कर फरार हो गया। इस बात की जानकारी जब लड़की के परिजनों को हुई तब उन्होंने पीछा कर युवक को दबोच लिया और आसपास के अन्य लोगों के साथ मिलकर युवक की धुनाई कर दी। बाद में पुलिस को सौंप दिया।

दृश्य तीन  -लीजिये एक और घटना पर गौर कीजिए जो हमारे सभी कहे जाने वाले समाज के माथे पर कलंक जैसा है  - सरूरपुर थाना क्षेत्र के एक गांव की छात्रा के साथ चार युवकों द्वारा सामूहिक दुष्कर्म करने का मामला सामने आया है। कालेज जा रही छात्रा को कार सवार चार युवकों ने तमंचे के बल पर अगवा कर दुष्कर्म किया और फरार हो गए। सोमवार सुबह वह कालेज जाने के लिए घर से रवाना हुई। वह गांव से कुछ ही दूर गई थी कि इसी बीच कार सवार चार युवक वहां पहुंचे और तमंचे के बल पर अगवा कर उसे बाडम के जंगल में ले जाकर ईख के खेत में उससे दुष्कर्म किया। इसके बाद छात्रा को वहीं छोड़कर आरोपी कार से फरार हो गए। 

दृश्य चार -  हद तो ये है कि एक अन्य मामले में छह साल की बच्ची से रेप की कोशिश के आरोप में एक अधेड़ को गिरफ्तार किया गया है। घटना सोमवार शाम बिंदापुर इलाके में हुई। बच्ची घर के नजदीक खेल रही थी। तभी आरोपी उसे बहला फुसलाकर एक मंदिर के नजदीक ले गया जहां उसने बच्ची के साथ गलत काम करने का प्रयास किया। वहां से राहगीर को गुजरते देख आरोपी ने बच्ची को छोड़ दिया था। घर जाकर बच्ची ने आरोपी की करतूत बता दी।

इधर प्रेम में पागलपन की हदें पार करते हुए पटना के एक छात्र ने मंगलवार को इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीटेक कर रही छात्रा को सरेराह जिंदा जलाने का प्रयास किया। बुरी तरह झुलसी छात्रा को अस्पताल में दाखिल कराया गया है। घटनास्थल से छात्र को गिरफ्तार कर लिया गया। दिनदहाड़े हुई इस घटना से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं में उबाल है। छात्रा स्कूटी से क्लास करने निकली थी। वहां से वापस आते वक्त एक तिराहे पर पवन विहार कालोनी के पास छात्र  को देखते ही आरोपी छात्र ने पेट्रोल में भिगो कर रखी अपनी टी-शर्ट में आग लगायी और उस पर फेंक दिया। पीठ पर लटके बैग के साथ छात्र के कपड़े में भी आग लग गयी और वह स्कूटी समेत गिर गयी। बावजूद इसके वह उठी और चीखते-चिल्लाते हुए विश्वविद्यालय की ओर भागी। 

विचारणीय है कि हमारे रहनुमाओं ने कम से कम ऐसा तो कभी सोचा ही नहीं होगा कि ज्ञान-विज्ञान की असीम प्रगति वाली इक्कीसवीं सदी के स्वतन्त्र भारत में भी इंसानियत ऐसे खतरनाक मोड़ पर पहुँच जायेगी। फिर  भी, तरक्की और तालीम की तमाम सहूलियतों के बावजूद  कोई न कोई कमी ज़रूर रह गई है कि मानव विवेक को भ्रष्ट होने का मौका बरबस मिल रहा है . हम आखिर कब तक गंभीर से गंभीर अपराध को महज़ संकट या साधारण सी समस्या मानकर नज़रंदाज़ करते रहेंगे ? ह्त्या, बलात्कार, सामूहिक दुष्कर्म, यौन उत्पीडन, बाल विवाह, भ्रूण ह्त्या, घरेलू हिंसा, नशीली दवाओं का अवैध व्यापार, अवैध हथियारों पर मिलकियत की जिद, वन्य प्राणियों का शिकार, जंगलों का विनाश , साइबर अपराध, भष्टाचार, कर चोरी, विदेशी प्रवासियों के विरुद्ध अपराध जैसे मामलों को 'सब चलता है' की तर्ज़ पर लेने की आदत से बाज़ हम क्यों नहीं आते ? 

एकबारगी प्रतीत होता है कि भष्टाचार के अनगिन रूप ,पारिवारिक विश्वास और संबंधों में प्रतिबद्धता का अभाव और युवाओं में व्याप्त बहुस्तरीय आक्रोश व असंतोष के अलावा रातों रात अमीर बनने के सपने शायद बढ़ते अपराध के बड़े कारण हैं। हर व्यक्ति यदि अपने स्तर पर सहयोग के लिए समझदार हस्तक्षेप के लिए तैयार हो जाये तो तय मानिए कि 'अपराध' को लेकर हमारी 'अपराधीनता' से कुछ हद तक ही सही, छुटकारे का पथ प्रशस्त हो सकता है। इसके लिए सबसे पहले गलत को गलत कहने का साहस चाहिए,क्योंकि जो गलत को गलत नहीं कहते वो गलत को सही नहीं करते !


डिग्री के साथ जॉब के बढ़ते अवसर 

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डॉ .चन्द्रकुमार जैन 


कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में डिग्री कोर्स के साथ-साथ पार्टटाइम सर्टिफिकेट या एड ऑन कोर्स अब युवाओं की जरूरत बन गई है। ज्यादातर छात्रों के मन में यह बात घर कर गई है कि डिग्री लेने से ही नौकरी नहीं मिल जाती। रोजगार के बाजार में प्रोफेशनल स्किल्स की मांग ज्यादा है। इन जरूरतों को देखते हुए ही संस्थानों ने अपने यहां किसी फील्ड या प्रोफेशन विशेष का स्किल सिखाने के लिए तरह-तरह के कोर्स शुरू किए हैं डिग्री भी, जॉब भी। देश के प्रतिष्ठित संस्थानों से ये कोर्स कर ज्ञान और अवसर दोनों से लाभान्वित हो सकते हैं। 

कहीं कंप्यूटर से जुड़ा कोर्स है तो कहीं मीडिया, टूर एंड ट्रैवल से संबंधित कोर्स । कहीं अंग्रेजी स्पीकिंग का कोर्स है तो कहीं पर्सनालिटी डेवलपमेंट का। आमतौर पर तीन माह से लेकर एक साल के इन कोर्सेज को ही पार्ट टर्म या पार्टटाइम कोर्स कहा गया है। इन कोर्सेज के पाठ्यक्रम को कहीं घंटों में बांटा गया है तो कहीं महीने या सत्र में। मसलन, फिंगर प्रिंट्स का कोर्स का एक सेशन 50 घंटे की क्लास से पूरा हो ता है। इसी तरह पर्सनालिटी डेवलपमेंट के कोर्स की अवधि 100 घंटे है। कोर्स का मकसद छात्रों को डिग्री के साथ-साथ रो जगार के लिए अतिरिक्त हुनर सिखाना है । इससे छात्रों को अपना बॉयोडाटा भी मजबूत करने में मदद मिलती है । तीन साल का स्नातक या दो साल के एमए की डिग्री के साथ-साथ कोई छात्र पार्ट टाइम के रूप में दो या तीन कोर्स कर सकता है।

एड ऑन कोर्स की तरह- तरह की वेरायटी है जो अलग टेस्ट भी देता है। अगर साइंस का छात्र हों तो वह अपने विषय से हटकर मीडिया स्टडीज या थियेटर का कोर्स कर सकता है। ट्रैवल टूरिज्म का पाठ पढ़ सकता है। इसी तरह आर्ट्स का छात्र भी चाहे तो टैक्स मैनेजमेंट या नैनो टेक्नोलॉजी का कोर्स कर सकता है। हालांकि साइंस ही नहीं, इस तरह के कोर्स में ज्यादातर कोर्सेज में सभी डिसिप्लिन के छात्र शामिल हो सकते हैं। कॉलेजों में आर्ट्स, साइंस व कॉमर्स तीनों से जुड़े एड ऑन कोर्स चल रहे हैं। कहीं कॉलेज खुद चला रहा है तो कहीं निजी संस्थाओं की मदद से यह संचालित हो रहा है। कोर्स की वेरायटी कॉलेजों और शिक्षण संस्थाओं में आमतौर पर इसकी तीन वेरायटी है। पहला सॉफ्ट स्किल का है। इसमें व्यक्तित्व विकास, अंग्रेजी बोलना, थियेटर, प्रभावशाली कम्युनिकेशन, कम्युनिकेशन स्किल, फिल्म एप्रीसिएशन और काउंसलिंग जैसे कोर्स शामिल हैं। दूसरे सीधे-सीधे प्रोफेशनल कोर्स हैं जो किसी छात्र को थियरी के साथ-साथ ऑन हैंड ट्रेनिंग देता है। टाइपिंग, कंप्यूटर, फोटोग्राफी, मीडिया, ट्रैवल एंड टूरिज्म, वेब डिजाइनिंग, एनिमेशन, नैनोटेक्नोलॉजी, एयर एंड फेयर टिकटिंग और ऑफिस मैनेजमेंट का कोर्स इसी श्रेणी का है। तीसरी श्रेणी के तहत लैंग्वेज कोर्स हैं। इनमें विदेशी भाषा के कोर्स कराए जाते हैं। 

यूरोपियन और दक्षिणी एशिया से जुड़े देशों की भाषाएं मसलन फ्रेंच, स्पेनिश, जर्मन, इटैलियन, रशियन, कोरियन, चीनी और जापानी आदि भाषाएं सिखाने के लिए कॉलेजों में सर्टिफिकेट और डिप्लोमा कोर्स हैं। गर्मी की छुट्टियों में तोहफा आमतौर पर विश्वविद्यालयों में सत्र के साथ ही पार्टटाइम कोर्स चलते हैं। लेकिन गर्मी की छुट्टियों में बहुत सारे कॉलेज इस तरह के कोर्स जो दो से तीन माह के बीच के है, गर्मी की छुट्टियों में संचालित किये जाते हैं। छात्रों के लिए यह सुविधाजनक भी है। वह चाहे तो दो या तीन माह में अंग्रेजी स्पीकिंग, कंप्यूटर से जुड़े शार्ट टर्म कोर्स, फोटोग्राफी, टूर एंड ट्रैवेल्स, बीमा एजेंट, इंश्योरेंस स्किल या पर्सनालिटी डेवलपमेंट का कोर्स कर सकते हैं। सरकारी संस्थानों में इसकी फीस निजी के मुकाबले काफी कम होती है। कोर्स का महत्व विशेषज्ञों की मानें तो आज के दौर में डिग्री के साथ-साथ एड ऑन कोर्स का महत्व किसी रोजगार के क्षेत्र में जाने के लिए बेसिक जानकारी हासिल करने से है। 

इस तरह के कोर्स छात्रों को अलग राह दिखाते हैं। इसमें दक्षता हासिल करने पर छात्रों को काम मिलता है। कुछ के लिए इसका महत्व अतिरिक्त ज्ञान हासिल करना भी है। खास बात यह है कि कामकाजी या नौकरीपेशा को भी अतिरिक्त स्किल हासिल करने के लिए ऐसे कोर्स में आने का मौका मिलता है। फोरेंसिक साइंस के प्रोफेसर सुरेन्द्र नाथ कहते हैं, इसमें सेवानिवृत्त या कामकाजी लोग भी पार्टटाइम के रूप में ज्वाइन करते हैं। अगर कोई वकील है तो वह पार्टटाइम के रूप में फिंगर प्रिंट्स का कोर्स करता है। इसी तरह मनोविज्ञान के छात्र काउंसलिंग या साइकोलॉजिकल एसेसमेंट से जुड़े कोर्स करते हैं। 

इतिहास के छात्र टूर एंड ट्रेवल का कोर्स करते हैं। फोटोग्राफी का शौक रखने वाले छात्र इससे जुड़ा कोर्स करते हैं। याद रहे कि इन कोर्सेज में रेग्यूलर कोर्सेज की तरह दाखिले के लिए ज्यादा माथापच्ची नहीं करनी पड़ती। विश्वविद्यालयों में 12वीं या स्नातक पास छात्रों को इनमें सीटों के हिसाब से मेरिट को देखते हए दाखिला दिया जाता है।

Sunday, August 25, 2013

'आज' को सर्वोत्तम दें ; 'कल' स्वयं सँवर जाएगा 

डॉ.चन्द्रकुमार जैन 

राजनांदगांव. मो. 9301054300 


बहुत विचित्र है मानव मन. कभी यह मन अपने अदृश्य पंखों से हिमालय की ऊँचाइयों तक पहुँचना चाहता है, कभी उन्हीं पंखों को समेटकर सागर की गहराइयाँ नापना चाहता है. कभी धूमिल आतीत को याद करता है, तो कभी स्वप्निल भविष्य में खो जाता है हमारा मन. सिर्फ़ वर्तमान को छोड़कर काल के सभी खण्डों में भटकने का आदी हो जाता है मानव मन.

परन्तु, जीवन इतना भोला भी नहीं है की मन की यायावरी के खाते में,मनचाही सारी चीज़ें डाल दे. न ही जीवन इतना क्रूर है कि जो मन आज की सच्चाई को जिए और हक़ीकत के रूबरू हो उसे बरबस बिसार दे. इसलिए याद रखना होगा कि जीवन का एक ही अर्थ है वह जो है आज और अभी. कहीं और नहीं, बस यहीं. जो अपने साथ है, अपने सामने है और जिससे मुलाक़ात मुमकिन है, उस पल को छोड़कर बीते हुए या आने वाले कल की बातों या ख्यालों में डूबे रहने से कुछ हासिल होने वाला नहीं. 

यकीन मानिए आप इस क्षण में जहाँ हैं, वहाँ जो हैं, जैसे भी हैं, जीवन की संभावना जीवित है. जीवन, वर्तमान का दूसरा नाम है. गहराई में पहुँचकर देखें तो मन के हटते ही जीवन का सूर्य चमक उठता है. इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि मन को लेकर मन भर बोझ लिए चलने वाले के हाथों ज़िन्दगी के संगीत का सितार कभी झंकृत नहीं हो सकता. किसी शायर ने क्या खूब कहा है- बेवज़ह मन पे कोई बोझ न भारी रखिए/ ज़िन्दगी ज़ंग है, इस ज़ंग को जारी रखिए. 

जहाँ जीवन है वहाँ यह चंचल मन पल भर भी ठहर नहीं सकता. आप जो घट चुका है,उसमें कण भर भी न तो कुछ घटा सकते हैं और न ही उसमें रत्ती भर कुछ जोड़ना संभव है. दरअसल जो घट चुका वह अब है ही नहीं. और जो अभी घटा ही नहीं है वह भी आपकी पहुँच से बाहर है. फिर वह क्या है जिसे कहीं और खोजने की कोई ज़रुरत नहीं है ?

ज़ाहिर है कि है तो केवल वही जो अभी है, यहीं है. इस क्षण है. वह जो न तो घटा है और न घटेगा बल्कि वह जो घट रहा है. यहाँ अगर थोड़ी सी भी चूक हुई कि आप भटक जायेंगे. क्योंकि हाथों में आया एक पल, पलक झपकते ही फिसल जाता है. वह क्षण जो आपको अनंत के द्वार तक ले जाने की शक्ति रखता है. आपकी ज़रा सी चूक या भूल हुई कि वही क्षण सिमटकर विगत बन जाएगा. फिर वह आपके चेतन का नहीं,, मन का हिस्सा बन जाएगा. मीरा ने यदि कहा है कि 'प्रेम गली अति सांकरी' और जीसस ने भी पुकारा है कि समझो 'द्वार बहुत संकरा है' तो उसके पीछे शास्वत की लय है. अनंत का स्वर है. 

जीवन का जो क्षण हाथ में है उसमें जी लेने का सीधा अर्थ है भटकाव की समाप्ति. वहाँ न अतीत का दुःख है, न भविष्य की चिंता. यही वह बिंदु है जहाँ आप विचलित हुए कि जीवन आपसे दूर जाने तैयार रहता है. हाथ में आए जीवन के किसी भी क्षण की उपेक्षा, क्षण-क्षण की गयी शास्वत की उपेक्षा है. यह भी याद रखना होगा कि क्षण को नज़र अंदाज़ करने पर वही मिल सकता है जो क्षणभंगुर है, जो टिकने वाला नहीं है. वहाँ अनंत या शांत चित्त का आलोक ठहर नहीं सकता. वहाँ इत्मीनान और चैन की बात भी बेमानी है. 

शायद वर्तमान छोटा होने कारण भी आपके समीप अधिक टिक न पाता हो. क्योंकि बीता हुआ समय बहुत लंबा है और जो आने वाला है उसकी भी सीमा तय करना आसान नहीं है. इसलिए, मन उसके पक्ष में चला जाता है जिसमें ऊपर का विस्तार हो. वह अतीत में जीता है या भविष्य में खो जाता है. सोचता है मन कि अभी तो बरसों जीना है. आज और अभी ऐसी क्या जल्दी है कि बेबस और बेचैन रहा जाए ? 

महान दार्शनिक एपिक्तॆतस  ने क्या खूब कहा है कि क्षण आपके सामने है,उसकी देखभाल करें। उसकी बारीकियों में अपने आपको डुबा दीजिए। जो व्‍यक्ति आपके सामने है, जो चुनौती आपके सामने है, जो काम आपके सामने है, उस पर ध्‍यान दें। इधर-उधर के बहकावों में न पड़ें। अपने आपको अनावश्‍यक कष्‍ट न दें।

जीवन क्षणों को मिला कर बनता है। अत: आप अपने को जिस क्षण में पा रहे हैं, उसे पूरी तरह से आबाद करें। तटस्‍थ दर्शक न बने रहें। हिस्‍सा लें। अपना सर्वोत्तम पेश करें। नियति के साथ अपनी साझेदारी का सम्‍मान करें। बार-बार अपने आपसे सवाल करें : यह काम मैं किस तरह करूँ कि यह प्रकृति की इच्‍छा के अनुकूल हो? जो उत्तर फूटता है, उसे ध्‍यान दे कर सुनें और काम में लग जाएँ।

यह न भूलें कि जब आपके दरवाजे बंद हैं और आपके कमरे में अँधेरा है, तब भी आप अकेले नहीं हैं। प्रकृति की इच्‍छा आपके भीतर मौजूद है, जैसे आपकी प्राकृतिक प्रतिभा आपके भीतर मौजूद है। उसके आग्रहों को सुनें। उसके निर्देशों का पालन करें। जहाँ तक जीने की कला का सवाल है, यह सीधे आपके जीवन से ताल्‍लुक रखता है इसलिए आपको प्रतिक्षण सावधान रहना होगा।

लेकिन अधीर होने से कोई लाभ नहीं है। कोई भी बड़ी चीज अचानक नहीं तैयार होती। उसमें समय लगता है। वर्तमान में आप जीवन को अपना सर्वोत्तम दें : भविष्‍य अपनी चिंता स्‍वयं करेगा। अपने वर्तमान को भुलाकर कुछ भी हासिल किया जा सके यह मुमकिन नहीं है. द्वार तक पहुँचकर स्वयं द्वार बंद कर देना समझदारी तो नहीं है न ? 

अतीत की अति से बचने और भविष्य को भ्रान्ति से बचाने का एक ही उपाय है कि अपने आज का निर्माण किया जाए. जिसने यह कर लिया समझिये वह मन के भरोसे जीने की जगह पर मन को जीतने में सफल हो गया. प्रकृति अभी है, यहीं है. जाने या आने वाले की फ़िक्र नहीं, जो है उसका ज़िक्र ही ज़िन्दगी है....बस ! 

Friday, August 23, 2013

'अंधविश्वास' पर 'विश्वास' की मुहर आखिर कब तक ?

डॉ.चन्द्रकुमार जैन


अंधविश्वास विरोधी कार्यकर्ता डॉ.नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के एक दिन बाद महाराष्ट्र सरकार ने बुधवार को काला जादू, अंध श्रद्धा और अंध विश्वास को खत्म करने संबंधी लंबे समय से लंबित विधेयक को अध्यादेश के जरिए लागू करने का फैसला किया। देश में यह अपनी तरह का पहला कानून होगा। याद रहे कि हाल ही में अंधविश्वास जैसे मसलों पर तीन दशक से जन जागरूकता अभियान चलाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता दाभोलकर की हत्या के बाद उठे जन आक्रोश और चुनौतीपूर्ण समाज कार्य की आजादी के आगे पैदा हुए सवालिया निशान के मद्देनज़र स्वाभाविक आशा थी कि इस दिशा में कोई अहम कदम उठाया जाएगा . बहरहाल क़ानून तो अमल के बाद ही समाजोपयोगी बन पाता है, फिर भी उम्मीद है कि  इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में  पहुँच चुके हमारे समाज को इस ऐतिहासिक क़ानून की आंच में विश्वास और अंध विश्वास के बीच अंतर समझने में कुछ तो मदद मिलेगी .

गौरतलब है कि विश्वास और अंध विश्वास; श्रद्धा और अंधश्रद्धा में फर्क है.श्रद्धा,खुद पर विश्वास का दूसरा नाम कहा जा सकता है . श्रद्धा हमें विवेकवान बनाती है, संशय का परिहार करती,तर्क बुद्धि को धार देती है,जबकि अंधश्रद्धा विवेक को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है, संदेह को बल देती है, तर्क का तिरस्कार करती है. श्रद्धा कब और कहाँ पहुंच कर अंधश्रद्धा का रूप ले लेती है, मालूम नहीं चल पाता।  यही कारण है कि जाने-अनजाने में भोले-भाले लोग उसकी चपेट में आकर अंधश्रद्धा को ही धर्म और यहाँ तक जीवन का कर्तव्य मान बैठते हैं।  

आज से करीब छह शताब्दी पहले संत कबीरदास ने अंधश्रद्धा के अमानवीय चेहरों पर जमकर प्रहार किया था कि लोग जागीं और सत्य के सही स्वरूप को पहचानें। कबीर संत थे. ईश्वर में गहरी आस्था रखते थे,किन्तु  ईश्वर के विधान के नाम पर समाज में व्याप्त अंधविश्वासों की उन्होंने न सिर्फ़ आलोचना की, बल्कि उसके प्रचलित और छुपे हुए रूपों को खुलकर उजागर भी किया। 
इन अंधविश्वासों के नाम पर होने वाले आडम्बर पूर्ण कार्यों, सामाजिक भेदभाव,अस्पृश्यता की अमानवीयता के खिलाफ कबीर ने  विकट संघर्ष किया. उसमें छिपे शोषण को उजागर किया. याद रहे कि अपने दौर में उन्हें भी काफी विरोधों का सामना करना पड़ा। और  दुर्भाग्य है कि आज आश्चर्यकारी  सूचना क्रांति और तमाम तरक्की के बावजूद 21वीं सदी में भी यह संघर्ष जारी है। खैर, संघर्ष तक बात होती तो कोई बात नहीं, दुःख तो इस बात का है कि अब प्राणों का ही संकट झेलकर लड़ाई लड़ने की नौबत आ पहुंची है . 

अंधविश्वासों के खिलाफ जागृति फैलानेवाले डॉ नरेंद्र दाभोलकर की प्राणाहुति इस संघर्ष के खतरों से मानव समाज को आगाह कर रही है। महाराष्ट्र में अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की स्थापना करनेवाले दाभोलकर का पूरा जीवन लोगों में जागरूकता पैदा करने को समर्पित था. इसके लिए उन्हें अपने सुख-चैन तक की परवाह नहीं थी।

पेशे से डॉक्टर रहे दाभोलकर तंत्र-मंत्र,जादू-टोना व दूसरे अंधविश्वासों को दूर करने के मिशन में जिस तरह से लगे हुए थे। उनकी पहल श्रद्धा के पहरुए बने तथाकथित स्वयंभू लोगों को शायद रास नहीं आई। मामला जो भी हो पर बिलाशक कहा जा सकता है कि दाभोलकर की हत्या सिर्फ एक व्यक्ति की हत्या नहीं है, यह लंबे संघर्ष के बाद मानव सभ्यता द्वारा अर्जित  किये गये आधुनिक विचारों और खुली सोच का गला घोंटने की कोशिश है। दाभोलकर की जंग न व्यक्तिगत थी, न किसी व्यक्ति या समूह के खिलाफ थी। जानकारों का कहना है कि वे उन तर्क सम्मत विचारों का प्रतिनिधित्व और प्रचार कर रहे थे, जो रूढ़ियों का विरोध करते  हैं .वह विचार,जो कबीर के ‘आंखन देखी’ की तरह तर्क को अहमियत देता है और जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पक्षधर है। 

आज हम उत्तर आधुनिक होने का दावा कर रहे हैं, वैश्विक हो गए हैं हम सब ! हमारा कद इतना बड़ा हो गया है कि हमें पूरी दुनिया बहुत छोटी दिखाई देती है। पर यह सच्चाई हमारी सोच के साथ साथ हमारी कथनी और करनी के अंतर को रेशा-रेशा कर उद्घाटित करने वाली है कि आज भी समाज में अंधविश्वासों के नाम पर दमन और शोषण का कुचक्र जारी है। हमारे समाज से आने वाली शिशु नरबलि, चुड़ैल कह कर औरतों की हत्या की खबरें, टोनही प्रताड़ना जैसे हालात इस बात के अत्यंत कष्टप्रद प्रमाण हैं।  आर्थिक-सामाजिक शोषण के दूसरे रूप तो प्रचलन में हैं ही। 
 
यह सही है कि समाज ने अंधविश्वासों के खिलाफ एक लंबी जंग लड़ी है, लेकिन डॉ . दाभोलकर की हत्या हमें सचेत कर रही है कि यह लड़ाई अभी अधूरी है। अंध विश्वास के विरुद्ध पारदर्शी और अडिग विचारों को पोषण देने लड़ाई अगर थम गई तो कोई  आश्चर्य न होगा कि हम आदिम युग के आधुनिक कहलाने का 'गौरव' मात्र हासिल कर जीते रह जायेंगे !

Tuesday, August 20, 2013

महामानव पंडित सुन्दरलाल शर्मा

डॉ.चन्द्रकुमार जैन 



वक्त की ख़ामोशियों को तोड़कर आगे बढ़ो

अपने ग़म, अपनी हँसी को छोड़कर आगे बढ़ो

ज़िन्दगी को इस तरह जीने की आदत डाल लो

हर नदी की धार को तुम मोड़कर आगे बढ़ो

छत्तीसगढ़ में भारत की आजादी की लड़ाई में सबसे पहले जेहाद का बिगुल फूंककर अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने की त्याग वृत्ति के साथ मातृभूमि की सेवा का दिव्य आराधन करने वालों में पंडित सुन्दरलाल शर्मा का नाम इतिहास में सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा. भाग्य के बल पर निर्भर रहने के स्थान पर कर्म के संबल से राष्ट्रीय चेतना को स्वर और दिशा देने वाले ऐसे कर्मवीरों से हमारी यह पावन भूमि गौरवान्वित हुई है. 

मार्ग की हर बाधा को पुण्य मानने वाले और हर चुनौती को सौभाग्य मानकर उस पर विजय अभियान को सतत जारी रखने वाले ऐसे धीर-वीर-गंभीर महामानवों ने भारत भूमिऔर छतीसगढ़ महतारी के ऋण से मुक्त होने की अदम्य अभिलाषा को ही जैसे अपने जीवन का परम लक्ष्य बना लिया था. यही कारण है कि अपनी समस्त सुख-सुविधाओं का त्याग पर वे पथ के बाधक को भी साधक बनाने का महान अवसर नहीं चूके, जिससे अंततः भारत माता को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त करने का महाभियान सफल हो सका. पंडित शर्मा ऐसे ही अभियान के महारथी थे जिन्हें त्याग, तप, उत्सर्ग के संगम के साथ-साथ व्यक्तित्व और कृतित्व के इन्द्रधनुषी महामानव के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है. 

सच ही कहा गया है कि बाधा जितनी बड़ी हो, उसे पार करने कि प्रसिद्धि उतनी ही बड़ी होती है. कुशल नाविक भयानक तूफानों और झंझावातों में ही मशहूर होते हैं. पंडित शर्मा इसकी जीवंत मिसाल कहे जा सकते हैं. छतीसगढ़ के गांधी के नाम से उन्हें ऐसे ही नहीं पुकारा गया. दरअसल हरिजनों को उनका हक और सम्मान दिलाने के लिए जो साहसिक भूमिका उन्होंने निभायी उसमें उनके अचल-अडिग स्वभाव के साथ-साथ उपेक्षित, तिरस्कृत या बहिष्कृत जन  के प्रति उनकी गहन सहानुभूति, संवेदना तथा उनके जीवन स्वप्न से सक्रिय सरोकार का ही परिचय मिलता है. 

वरना कट्टर विचारों के उस माहौल में तब जबकि गांधी जी हरिजन उद्धार का शंखनाद कर रहे थे, घर-घर पहुंचकर हरिजनों को जनेऊ पहनाने, उन्हें मंदिरों और वर्जित स्थानों में प्रवेश दिलवाने का भागीरथ अनुष्ठान आखिर कैसे संभव हो पाता ? इस असंभव को पंडित जी ने संभव कर दिखाया. सत्य से मत डिगो-चाहे जियो चाहे मरो का नारा देकर उन्होंने अपने जीवन दर्शन की साफ़-साफ़ तस्वीर दुनिया के सामने रख दी थी. 

सचमुच वह असाधारण दिन था जब, जैसा कि इतिहास गवाह है सन १९३३ में पंडित सुन्दरलाल शर्मा के प्रयास से जब गांधी जी का दूसरी बार छत्तीसगढ़ की माटी में पदार्पण हुआ था, तब राजिम-नवापारा में हुई महती सभा को संबोधित करते हुए बापू ने सहज ही कहा था कि पंडित सुन्दरलाल शर्मा उम्र में तो मुझसे छोटे हैं, परन्तु हरिजन उद्धार के कार्य में मुझसे बड़े हैं. उस दौर में गाधी जी का यह कथन कितना महत्वपूर्ण था यह कहने की जरूरत ही नहीं है पर आज भी छत्तीसगढ़ में ऐसे माटी के सपूत के होने का गर्व-बोध समस्त छतीसगढ़ वासियों को होना स्वाभाविक ही है. ऐसे ही प्रयासों और प्रसंगों की यादों को बार-बार ताज़ा किया जाना चाहिए जिससे अपनी धरोहर और शक्ति का परिचय नई पीढी को मिलता रहे. 

Sunday, August 18, 2013

साफ़ हों निगाहें तो मिल ही जाता है मुकम्मल ज़हां 

डॉ.चन्द्रकुमार जैन 


दो वक्त की रोटी की खातिर दूसरों के घरों में झाड़ू-पोंछा लगाने वाली एक प्रतिभा बेबी हालदार का नाम आपने सूना ही होगा . किन्तु उसका का लेखक बन जाना किसी फ़िल्म की कल्पित कहानी जैसा लगता है. पर यह सच है कि चमत्कार सचमुच हुआ है और बेबी हालदार अब बाक़ायदा एक लेखिका हैं.इस दास्तान से पता चलता कि भीतर का दर्द किस तरह अपना ही आकाश बड़ा करके पूरी दुनिया के दर्द को वाणी देने की ताकत रखता है। 

बहरहाल  याद रहे कि बेबी हालदार की पहली किताब “आलो आंधारि” कुछ बरस पहले हिंदी में प्रकाशित हुई और अब तक उसके अनेक संस्करण छप चुके हैं.इसका बांग्ला संस्करण भी प्रकाशित हुआ और विमोचन सुपरिचित लेखिका तस्लीमा नसरीन द्वारा किया गया।
“आलो आंधारि” छपने के बाद तो अड़ोस-पड़ोस में काम करने वाली दूसरी नौकरानियों को भी लगने लगा है कि ये उनकी ही कहानी है.

लेकिन कमाल ये है कि बेबी हालदार खुद को “काजेर मेये” (काम करने वाली) कहती हैं. 29 साल पहले जम्मू-काश्मीर के किसी ऐसी जगह में उनका जन्म हुआ, जहां उनके पिता सेना में थे. अभाव और दुख की पीड़ा झेलती बेबी अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि अपनी किताब “आलो आंधारि” को मानती हैं.

बेबी हालदार की आत्मकथा पढने का सौभाग्य मिला . तो आप भी सुनिए कुछ उन्हीं की ज़ुबानी - पिता सेना में थे, लेकिन घर से उनका सरोकार कम ही था. सेना की नौकरी से रिटायर होने के बाद पिता बिना किसी को कुछ बताए, कई-कई दिनों के लिए कहीं चले जाते. लौटते तो हर रोज़ घर में कलह होता.

एक दिन पिता कहीं गए और उसके कुछ दिन बाद मां मन में दुख और गोद में मेरे छोटे भाई को लेकर यह कह कर चली गई कि बाज़ार जा रही हैं. इसके बाद मां घर नहीं लौटीं. इधर पिता ने एक के बाद एक तीन शादियां कीं. इस दौरान मैं कभी अपनी नई मां के साथ रहती, कभी अपनी बड़ी बहन के ससुराल में और कभी अपनी बुआ के घर.

मां की अनुपस्थिति ने मन में पहाड़ जैसा दुख भर दिया था. यहां-वहां रहने और पिता की लापरवाही के कारण पढ़ने-लिखने से तो जैसे कोई रिश्ता ही नहीं बचा था. सातवीं तक की पढ़ाई करते-करते 13 वर्ष की उम्र में मेरी शादी, मुझसे लगभग दुगनी उम्र के एक युवक से कर दी गई. फिर तो जैसे अंतहीन दुखों का सिलसिला-सा शुरु हो गया.पति द्वारा अकारण मार-पीट लगभग हर रोज़ की बात थी. पति की प्रताड़ना और पैसों की तंगी के बीच ज़िल्लत भरे दिन सरकते रहे.

उसी क्रम में दो जून की रोटी की मशक़्कत के बीच पति का अत्याचार बढ़ता गया. अंततः एक दिन अपने बच्चों को लेकर घर से निकल गई. दुर्गापुर...फ़रीदाबाद...गुड़गांव. एक घर से दूसरे घर, नौकरानी के बतौर लंबे समय तक काम किया.नौकरानी के बजाय बंधुआ मज़दूर कहना ज़्यादा बेहतर होगा. सुबह से देर रात तक की हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी ख़ुशियों की कोई रोशनी कहीं नज़र नहीं आ रही थी.

ऐसे ही किसी दिन मेरे एक जान-पहचान वाले ने मुझे गुड़गाँव में एक नए घर में काम दिलवाया. यहां मैंने पाया कि इस घर का हर शख़्स मेरे साथ इस तरह व्यवहार करता था, जैसे मैं इस घर की एक सदस्य हूँ.घर के बुजुर्ग मुखिया, जिन्हें सब की तरह मैं भी तातुश कहती थी, (यह मुझे बाद में पता चला कि इसका अर्थ पिता है) अक्सर मुझसे मेरे घर-परिवार के बारे में पूछते रहते. उनकी कोशिश रहती कि हर तरह से मेरी मदद करें.

कुछ माह बाद अतिक्रमण हटाने के दौरान मेरे किराए के घर को भी ढहा दिया गया और अंततः तातुश ने मुझे अपने बच्चों के साथ अपने घर में रहने की जगह दी.इसके बाद दूसरे घरों में काम करने का सिलसिला भी ख़त्म हो गया. तातुश के घर में सैकड़ों-हज़ारों किताबें थीं.बाद में पता चला कि तातुश प्रोफ़ेसर के साथ-साथ बड़े कथाकार हैं. उनकी कहानियां और लेख इधर-उधर छपते रहते हैं.उनका नाम प्रबोध कुमार है. और यह भी कि तातुश हिंदी के सबसे बड़े उपन्यासकार प्रेमचंद के नाती हैं.अक्सर किताबों की साफ़-सफ़ाई के दौरान मैं उन्हें उलटते-पलटते पढ़ने की कोशिश करती. ख़ास तौर पर बंगला की किताबों को देखती तो मुझे अपने बचपन के दिन याद आ जाते.

तातुश ने एक दिन मुझे ऐसा करते देखा तो उन्होंने एक किताब देकर मुझे उसका नाम पढ़ने को कहा. मैंने सोचा, पढ़ तो ठीक ही लूंगी लेकिन ग़लती हो गयी तो? फिर तातुश ने टोका तो मैंने झट से किताब का नाम पढ़ दिया-“आमार मेये बेला, तसलीमा नसरीन!”तातुश ने किताब देते हुए कहा कि जब भी फुर्सत मिले, इस किताब को पढ़ जाना.

फिर एक दिन कॉपी-पेन देते हुए तातुश ने अपने जीवन के बारे में लिखने को कहा. मेरे लिए इतने दिनों बाद कुछ लिखने के लिए कलम पकड़ना किसी परीक्षा से कम न था.मैंने हर रोज़ काम ख़त्म करने के बाद देर रात गए तक अपने बारे में लिखना शुरु किया.पन्नों पर अपने बारे में लिखना ऐसा लगता था, जैसे फिर से उन्हीं दुखों से सामना हो रहा हो.

तातुश उन पन्नों को पढ़ते, उन्हें सुधारते और उनकी ज़ेराक्स करवाते. लिखने का यह काम महीनों चलता रहा.एक दिन मेरे नाम एक पैकेट आया, जिसमें कुछ पत्रिकाएं थीं. अंदर देखा तो देखती रह गयी. अपने बच्चों को दिखाया और उन्हें पढ़ने को कहा. मेरी बेटी ने पढ़ा - बेबी हालदार! मेरे बच्चे चौंक गए-“मां, किताब में तुम्हारा नाम.”तातुश के कहानीकार दोस्त अशोक सेकसरिया और रमेश गोस्वामी ने कहा-ये तो एन फ्रैंक की डायरी से भी अच्छी रचना है.

बेबी हालदार कहती हैं - मैं अपनी कहानी लिखती गई..लिखती गई.फिर एक दिन एक प्रकाशक आए. वो मेरी किताब छापना चाहते थे.तातुश ने मेरी बंगला में लिखी आत्मकथा का पूरा अनुवाद हिंदी में कर दिया था. इस तरह मेरी पहली किताब छपी- “आलो आंधारि.”
कोलकाता के रोशनाई प्रकाशन ने इस किताब को प्रकाशित किया है.कुछ ही समय में किताब का दूसरा संस्करण निकला... फिर इसका बांगला संस्करण। ये कहानी कहती है कि इंसान के लिए अच्छा यही है कि वह काम को छोटे या बड़े के रूप में देखने के बदले अपनी नज़र वहां रखे जहां से उसकी ज़िन्दगी को कोई मुक़म्मल जहां हासिल हो सके।