Saturday, April 25, 2009

वतन के लिए मर...!

चंदन के लिए मर
किसी कंचन के लिए मर
चाहे तू किसी रूप के
दर्पण के लिए मर
लेकिन तेरा मरना तो
कोई मौत नहीं दोस्त
मरना ही है तो शान से
वतन के लिए मर।
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श्री मुकुंद कौशल की रचना साभार

Sunday, April 19, 2009

उतनी दूर मत ब्याहना बाबा !

बाबा !
मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने जाने खातिर
घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हें

मत ब्याहना उस देश में
जहाँ आदमी से ज्यादा
ईश्वर बसते हों

जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ
वहाँ मत कर आना मेरा लगन

वहाँ तो कतई नहीं
जहाँ की सड़कों पर
मन से ज्यादा तेज़/
दौड़ती हों मोटर गाडियाँ
ऊँचे-ऊँचे मकान और
बड़ी-बड़ी दुकानें

उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
जिसमें बड़ा-सा खुला आँगन हो
मुर्गे की बांग पर होती नहीं हो जहाँ सुबह
और शाम पिछवाड़े से जहाँ
पहाड़ी का डूबता सूरज न दिखे

मत चुनना ऐसा वर
जो पोची और हडिया में डूबा रहता हो अक़्सर
काहिल-निकम्मा हो
माहिर हो मेले से लड़कियाँ उड़ा ले जाने में
ऐसा वर मत चुनना मेरी खातिर

कोई थारी-लोटा तो नहीं
कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी
अच्छा-ख़राब होने पर।
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भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित
कवयित्री निर्मला पुतुल के काव्य संग्रह
'नगाड़े की तरह बजते शब्द'की
एक लम्बी कविता का अंश..साभार.

Saturday, April 18, 2009

काग़ज़ के घर में कलम की कथा.


काग़ज़ के घर में/
कलम ने रची एक कथा
उसने सूर्य को लिखा सूर्य
चंद्रमा को चंद्रमा/
पृथ्वी को पृथ्वी
उसने सोचा और बनाया एक ईश्वर
उसमें भरी करुणा,ममता,बल/
अहंकार,मत-मतान्तर,हत्या और मृत्यु
एक राजा एक पुजारी और ढेर सारे दास

कागज़ पर एक दिन
तितली की तरह बैठ गई कलम
उसके रंग बोल रहे थे
उसकी आभा हँस रही थी
उसके प्रत्युत्तर में
कागज़ से आने लगी खुशबू
वहाँ एक सुंदर फूल था
हिलते हुए फूल पर तितली भी हिलती
यहीं से शुरू होती है कविता।
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युवा कवि अरुण देव की रचना.
भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित संग्रह
'क्या तो समय' से साभार.

दिल में समाई हो...!


सकल मेरी व्याधियों की

तुम दवाई हो।

मधुर इतनी सुधा ज्यों

सुर ने बहाई हो।।

क्या बताऊँ कल्पना भी

हो असीमित तुम।

चेतना बन चांदनी

दिल में समाई हो।।

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Thursday, April 16, 2009

दो मुक्तक.


दाँव का भरोसा करो, बल का नहीं,

काम का भरोसा करो, फल का नहीं।

भरोसवादी बनना बुरा नहीं है पर,

आज का भरोसा करो, कल का नहीं।।

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क़दम आगे बढ़ता नहीं,जोशीले नारों से क्या होगा,

पृथ्वी पर प्रकाश फैला न सके,सितारों से क्या होगा।

रचनात्मक काम ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए,

अन्यथा कार्यकर्ताओं की लम्बी कतारों से क्या होगा।।

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श्री मणिप्रभ सागर जी के मुक्तक साभार.


Wednesday, April 15, 2009

बचपन का नाम.


श्री बसंत त्रिपाठी की कविता...
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जब तक माँ है
पिता हैं जब तक
तब तक रहेगा याद
अपने बचपन का नाम

बहुत दिन बाद
जब सुनेंगे
इससे मिलती जुलती ध्वनि
तो चौंक उठेंगे
और जोर डालकर याद करेंगे
उससे अपना जुड़ाव

हमें पता भी न चलेगा
और खो देंगे बचपन का नाम
जैसे बचपन का चेहरा।
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'सहसा कुछ नहीं होता' संग्रह से साभार

Monday, April 13, 2009

शेर हैं तो सियार भी हैं...!

रोगियों को दवाओं और डाक्टरों का सहारा है,
छात्रों को गाइडों और मास्टरों का सहारा है।
महत्वाकांक्षी नेताओं और प्रचारकों को,
अपने-अपने पिट्ठुओं और पोस्टरों का सहारा है।।
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एक ही वन में शेर हैं तो सियार भी हैं,
एक ही वृक्ष पर कौवा हैं तो मराल भी हैं।
एक ही मन में अवगुण हैं तो गुण भी हैं,
एक ही देश में रेगिस्तान है तो नैनीताल भी है।।
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अपने ही स्वभाव से इंसान प्यारा बन जाता है,
अपने ही स्वभाव से इंसान खारा बन जाता है।
एक ही पिता के दो पुत्रों में से,
एक बादशाह तो दूसरा आवारा बन जाता है।।
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मणिप्रभ सागर जी के मुक्तक 'प्रतिध्वनि' से साभार.

Friday, April 10, 2009

फूलों वाले रिश्ते...!


निकल जाए कांटा, काँटे से

फिर भी कभी न भूलें हम

फूलों वाले रिश्तों को

काँटों से कभी न तौलें हम

शब्दों में मीठापन चाहे

मत घोलें पर याद रहे

अन्तर आहत करने वाली

वाणी कभी न बोलें हम

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Thursday, April 9, 2009

कुछ मुक्तक और....!


हमें पसंद नहीं है, आप विवाद मत करिए,
जितने भी विवाद हैं, उन्हें याद मत करिए।
इसी में हमारा और आपका भला है -
समय कीमती है, इसे बरबाद मत कीजिए।।
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शरीर को हिलने से रोकोगे तो अकड़ जाएगा,
मन को मिलने से रोकोगे तो बिगड़ जाएगा।
क्या फूल खिलने से रुक सकता है ?
समाज को बदलने से रोकोगे तो पिछड़ जाएगा।।
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हर हालत में ख़ुशी खोज लेना, ख़ूबी की बात है,
ख़ुश इंसान के लिए हर रात दिवाली की रात है।
गमगीनी में रोशनी भी अँधेरा है,
खुश रहना,खुश रखना इंसान के हाथ है।।
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प्रतिध्वनि में संकलित
श्री मणिप्रभ सागर जी के मुक्तक साभार.

Sunday, April 5, 2009

जीवन.

पिछले साल
ठीक आज की तारीख़
मैंने कैसे गुज़ारी थी

साल भर बाद
आज की तारीख़ का जीवन भी
संभवतः याद न रहे

क्या जीवन
याद न रहने वाली तारीखों
और घटनाओं के बीच
चुपचाप गुज़र रहा है !

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'सहसा कुछ नहीं होता' संग्रह में
श्री बसंत त्रिपाठी की रचना साभार.

Saturday, April 4, 2009

औरत की पीठ.

औरत की पीठ

उसका इतिहास है

उस पर ज़ुल्म का असर

वहाँ देखो

अपने सीने को अगर

उसने छिपा रखा हो
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श्री रघुवीर सहाय की कविता साभार.

Thursday, April 2, 2009

तट को छोड़ना पड़ेगा...!

श्रम करोगे तो तिल से तेल निकाल पाओगे
हिम्मत होगी तो कष्टों को झेल पाओगे
कर्मों के खेल का मैदान है यह ज़िंदगी
जीवन के मैदान में उतरकर ही खेल पाओगे
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मोती को पाना है तो तट को छोड़ना पड़ेगा
जल में उतर ताल से निज को जोड़ना होगा
मात्र ज्ञान से ही जीवन की गहराई नहीं दिखती
ध्यान की ओर भी स्वयं को मोड़ना होगा
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अभिमान टिकता नहीं, मिटते देर नहीं लगती
नमक के पुतले को गलते, देर नहीं लगती
घमंड तो लंका के राजा रावण का भी नहीं रहा
सोने की लंका को भी जलते देर नहीं लगती
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मुनि मणिप्रभ सागर जी के मुक्तक - 'प्रतिध्वनि' से.

Wednesday, April 1, 2009

तुम लिखो कविता.


तुम लिखो कविता...
जब समय बहुत
खुदगर्ज़ होता है
अपना आसपास बहरा
कर जाता है
तुम लिखो कविता...
तरंगों की झंकार के लिए
मैं अपने समूचे
अस्तित्व को
बदल दूँ किसी पिरामिड में
फ़िर भी तरंगें
गूंजती रहें तुम्हारे आसपास
तुम लिखो कविता...
पिरामिडों में भी
गूंजे कोई संगीत
नृत्य झंकार उठे
कोई तान सदियों को
पार करती हुई
सुरों में तब्दील हो जाए
तुम लिखो कविता...
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देशबंधु में श्री दामोदर खड़से की कविता साभार.