Tuesday, March 31, 2009

न सीखी होशियारी...!


सुबह-सबेरे आज मिला हमें

हैप्पी अप्रेल फूल का संदेश !

हमें आ गया ज़रा आवेश !!

हम चौंके

मगर संभलकर सोचने लगे

कि आज की दुनिया में

बुद्धिमानी बेमानी है !

सोच-समझ वालों को

हर ज़गह परेशानी है !!

जो जितना नादान है

उसका रास्ता

उतना ही आसान है !

इसलिए दिले नादाँ

संदेश पर दिमाग मत खपा

सोच कि मूर्खता कब है खता ?

फिर क्या -

संदेश का भेज दिया हमने आभार !

कोई क्या सोचेगा न किया विचार !!

और लिख दिया कि आप हैं

आज सब पर भारी !

सब कुछ सीखा हमने

न सीखी होशियारी !!

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Monday, March 30, 2009

अंदाज़े बयां...!


यूँ ही पढ़ते-पढ़ते मन हुआ
कि मिर्ज़ा ग़ालिब की
शायरी के चंद रंग पेश करुँ...!....तो लीजिए..
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रोने से और इश्क में बेबाक हो गए
धोये गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए
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न सुनो गर बुरा कहे कोई
न कहो गर बुरा कहे कोई
रोक लो गर ग़लत चले कोई
बख्श दो गर ख़ता करे कोई
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लाज़िम था कि देखो मेरा रास्ता कोई दिन और
तन्हां गए क्यों ? अब रहो तन्हां कोई दिन और
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नादां हो जो कहते हो कि क्यों जीते हो 'ग़ालिब'
किस्मत में है मरने की तमन्ना कोई दिन और
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जौर से बाज़ आए पर बाज़ आए क्या ?
कहते हैं हम तुमको मुँह दिखलायें क्या ?
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पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या ?
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Sunday, March 29, 2009

एक बूँद...!


यदाकदा
रंगों की एक बूँद से ही
बन जाती है
महान कलाकृति
स्याही की एक बूँद से ही
बन जाती है सुंदर कविता
आँसू की एक बूँद से ही
गूँजने लगती है किलकारी
तेल की एक बूँद से ही
बढ़ जाती है
बुझते दिए की रौशनी
ओस की एक बूँद से ही
सतरंगी इन्द्रधनुष है चमकता
लाल स्याही की एक बूँद से ही
बन जाता परीक्षार्थी का भविष्य !
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कृष्णकुमार अजनबी की कविता
देशबंधु,रायपुर से साभार।

Friday, March 27, 2009

गुल खिले थे चांदनी में.


गुल खिले थे चांदनी में
वे नज़ारे बन गए
जब सुहानी रात आई
तो सितारे बन गए
***
हमसफ़र बनने को आए
वो हमारी राह में
दे सके मंज़िल न हमको
पर हमारे बन गए
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क्यों मेरे ज़ज्बों की दुनिया
यूँ उड़ाती है हँसी
ज़िंदगी के सारे ग़म
मुझको दुधारे बन गए
***
दिल में रहकर भी हमारे
हमसफ़र न बन सके
अनगिनत इस ज़िंदगी के
अब किनारे बन गए
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साभार - डॉ.मनुप्रताप सिंह की रचना

Thursday, March 26, 2009

सीता का हरण होगा.


कब तक यूँ बहारों में

पतझड़ का चलन होगा

कलियों की चिता होगी

फूलों का हवन होगा

***

हर धर्म की रामायण

युग-युग से ये कहती है

सोने का हिरन लोगे

सीता का हरण होगा

***

जब प्यार किसी दिल का

पूजा में बदल जाए

हर स्वर में आरती और

हर शब्द भजन होगा

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तुम गम के अंधेरों से

मायूस हो न जाना

हर रात की मुट्ठी में

सूरज का रतन होगा

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प्रो.उदयभानु 'हंस' की रचना

हरिभूमि से साभार.

Wednesday, March 25, 2009

बसंत.


टूटता है मौन
फूलों का
हवाओं का
सुरों का
टूटता है मौन...

टूटती है नींद
वृक्षों की
समय के
नए बीजों की
टूटती है नींद...

टूटती है देह मेरी
टूटता है वादा
पुराना।
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देशबंधु, रायपुर में
श्री राकेश रंजन की रचना...साभार.

Thursday, March 19, 2009

नज़्म उलझी हुई है सीने में.


नज़्म उलझी हुई है सीने में

मिसरे अटके हुए हैं होठों पर

उड़ते-उड़ते हैं तितलियों की तरह

लफ्ज़ कागज़ पे बैठते ही नहीं

कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम

सादे कागज़ पे लिख के नाम तेरा

बस तेरा नाम ही मुक़म्मल है

इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी

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गुलज़ार साहब की रचना

सांध्य दैनिक 'छत्तीसगढ़',रायपुर से साभार.

Monday, March 16, 2009

फ़र्क दिखाई कैसे देगा !


कुंठित मन को, क्रंदन जग का
कभी सुनाई कैसे देगा !
दूषित तन, जग को पावनता
की ऊँचाई कैसे देगा !
टीस, दर्द आसान नहीं मिलना
जीने वालों को जग में,
विचलित जीवन को सुख-दुःख में,
फ़र्क दिखाई कैसे देगा !
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Friday, March 13, 2009

दोस्ती हम कर रहे हैं...!


चेहरे से दोस्त बनकर

दुश्मनी जो कर रहे हैं

ऐसे लोगों से ही हम

सहमे हुए से, डर रहे हैं

पर जो दुश्मन मुखौटों से

दूरियाँ दिल से रखे हैं

सच बताएँ उनसे ही अब

दोस्ती हम कर रहे हैं !

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Thursday, March 12, 2009

रंग चढ़े एक पल...दूजे में उतर गए !


खेली जो कल गई

वो होली बीत गई

खेली जो जानी है

अब भी बाकी है

रंग चढ़े एक पल

दूजे में उतर गए

बात और है कोई

निशानी बाकी है

मतलब तो तब है

जब होली पे लब पर

बोली रंगों की

बरबस आबाद रहे

जिसके सुर में सहज

झूम जाए तन-मन

राग-रंग से परे

रवानी बाकी है

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Tuesday, March 10, 2009

रंगों में मन की बोली हो...!


सब आशाओं को रंग मिलें

रंगों में मन की बोली हो

सब नेह-प्रेम हों बाँट रहे

संग-संग में हँसी-ठिठोली हो

भीतर का कलुष न मिट पाया

तो राग-रंग बेमानी है

अनबन की बात बने ऐसी

इस बरस सभी की होली हो

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विराट की एक जानदार ग़ज़ल


जो न करना था कर गया हूँ मैं
चलते-चलते ठहर गया हूँ मैं

फ़िर किसी रूप के दिल के भीतर
सीढ़ी-सीढ़ी उतर गया हूँ मैं

आज दर्पण में देखकर ख़ुद को
अपने आप से डर गया हूँ मैं

आख़री मील का जो पत्थर था
उससे आगे गुज़र गया हूँ मैं

अब समेटा न जा सकूँ शायद
पारा-पारा बिखर गया हूँ मैं

एक सूरत थी शीश पर जिसके
फूल की तरह बिखर गया हूँ मैं

सोहबतें करके गीत गज़लों की
बिगड़ना था, सुधर गया हूँ मैं

ओढ़ करके जतन से ज्यों की त्यों
अपनी चादर न धर गया हूँ मैं

कोई जाता नहीं जिधर भूले
सोचकर ही उधर गया हूँ मैं

मैं भी सिद्धार्थ हूँ घर छोड़ा तो
लौट कर फ़िर न घर गया हूँ मैं

मैं तो अपने लिखे में ज़िंदा हूँ
कौन कहता है मर गया हूँ मैं
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चंद्रसेन विराट की देशबंधु रायपुर में
10 मार्च को प्रकाशित ग़ज़ल...साभार

Wednesday, March 4, 2009

निदा फाज़ली...देखा हुआ सा कुछ


निदा साहब को हफ़्ते भर से पढ़ते-पढ़ते
गुनगुनाने लगा ये लाईनें....आप भी
गुनगुना लें....

देखा हुआ सा कुछ है
तो सोचा हुआ सा कुछ
हर वक़्त मेरे साथ है
उलझा हुआ सा कुछ

होता है यूँ भी रास्ता
खुलता नहीं कहीं
जंगल सा फैल जाता है
खोया हुआ सा कुछ

साहिल की गीली रेत पर
बच्चों के खेल-सा
हर लम्हा मुझ में बनता
बिखरता हुआ सा कुछ

फ़ुरसत में आज घर को
सजाया कुछ इस तरह
हर शय से मुस्कुराता है
रोया हुआ सा कुछ

धुंधली-सी एक याद किसी
कब्र का दिया
और मेरे आस-पास
चमकता हुआ सा कुछ
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