Thursday, August 30, 2012

सुनीता विलियम्स : एक साहसिक सफ़र

सागर की गहराई से अन्तरिक्ष की ऊँचाई तक
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन

राजनांदगांव. मो. 9301054300

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भारतीय मूल की अंतरिक्ष वैज्ञानिक सुनीता विलियम्स का नाम आज कौन नहीं जानता ! अभी-अभी की ही तो बात है उन्होंने अंतरिक्ष में अपनी मौजूदगी का एक नया और जानदार अहसास पूरी दुनिया को कराया और अनगिनत लोग उनके साहस को दाद देते हुए उनकी कामयाबी के लिए दुआएं कर रहे हैं. सुनीता विलियम्स यह नाम है एक ऐसा असाधारण महिला का, जिनके नाम अनेक रिकार्ड दर्ज हो चुके हैं. उन्होंने अंतरिक्ष में 194 दिन, 18 घंटे रहकर विश्वरिकार्ड बनाया. उनकी कहानी असाधारण इच्छाशक्ति, जुनून, तथा आत्मविश्वास की कहानी है. क्या आप जानते हैं उनके इन गुणों ने उन्हें एक पशु चिकित्सक बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाली छोटी-सी बालिका के एक अंतरिक्ष-विज्ञानी बना दिया. इससे पहले अंतरिक्ष में अपने छह माह के भ्रमण के दौरान वे दुनियाभर के लाखों लोगों के आकर्षण और कुतूहल का केंद्र बनी रहीं.

सुनीता समुद्रों में तैराकी कर चुकी हैं, महासागरों में गोताखोरी कर चुकी हैं, युद्ध और मानव-कल्याण के कार्य के लिए उड़ानें भर चुकी हैं, अंतरिक्ष तक पहुँच चुकी हैं और अंतरिक्ष से अब वापस धरती पर आ चुकी हैं और एक बार फिर इन दिनों अंतरिक्ष में रहकर सचमुच एक एक जीवन्त किंवदंती बन गई हैं. एक साधारण व्यक्तित्व से ऊपर उठकर सुनीता ने अपनी असाधारण क्षमता को पहचाना और कड़ी मेहनत तथा आत्मविश्वास के बल पर उसका भरपूर उपयोग किया. अपनी असाधारण सफलता से उन्होंने उन लोगों के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत किया है, जो आकाशीय नजारों की कठिन राह पर पर चलना चाहते हैं.यह सफलता उन्होंने अपने स्नेही और सहयोगी परिवार व मित्रों के सहयोग से प्राप्त की है.

सुनीता लिन पांड्या विलियम्स का जन्म 19 सितम्बर, 1965 को अमेरिका के ओहियो प्रांत में स्थित क्लीवलैंड में हुआ था. उनके पिता डॉ. दीपक एन पांड्या (एम.डी) हैं, जो भारत के मंगरौल से हैं। माँ बानी जालोकर पांड्या हैं. सुनी का एक बड़ा भाई जय थॉमस पांड्या और एक बड़ी बहन डायना एन पांड्या है. जब सुनीता एक वर्ष से भी कम की थी तभी परिवार जन बोस्टन आ गए थे. हालाँकि बच्चे अपने दादा-दादी, ढेर सारे चाचा-चाची और चचेरे भाई-बहनों को छो़ड़ कर ज्यादा खुश नहीं थे, लेकिन हम सभी ने श्री दीपक को उनके चिकित्सा पेशे में प्रोत्साहित किया.

सुनीता की माता ने अपने संस्मरण में कहा है - न्यू इंग्लैंड हमारा घर बन गया था और बोस्टन में रहना सभी को अच्छा लगने लगा था। हम बड़े-बड़े संगीत नाटक, पैट्रिऑट और रेड सॉक्स खेल देखने तथा नदियों, झीलों एवं समुद्र में तैरने के लिए जाया करते थे। पतझड़ के मौसम में हमें न्यू हैंपशायर और माइन के भ्रमण पर जाना अच्छा लगता था, जहाँ हम वृक्षों के हरे-हरे पत्तों को लाल, पीले और नारंगी रंगों में बदलते देखते थे. बच्चों को डंठल और कद्दू तथा हैलोवीन कपड़े बहुत अच्छे लगते थे, जो मैं उनके लिए तैयार किया करती थी. उन्हें क्रिसमस और धन्यवाद-ज्ञापन के साथ-साथ दीवाली व अन्य भारतीय त्योहार अच्छे लगते थे। इन अवसरों पर मैं उनके लिए गुगरा, हलवा, जलेबी और गुलाबजामुन आदि बनाया करती थी। सर्दियों में सुबह उठकर बर्फ की सफेद चादर देखना सभी को अच्छा लगता था. कभी-कभी डायना और जय खिड़की से बाहर झाँकते हुए सोचने लगते—अरे, आज तैराकी नहीं हो पाएगी. लेकिन उधर, सुनी पहले से तैयार होकर तैराकी के लिए जाने के लिए प्रतीक्षा कर रही होती थी.

सुनीता लिन पांड्या विलियम्स एक असाधारण एवं विलक्षण महिला हैं. उन्होंने एक फ्लाइट इंजीनियर के रूप में सेवा की. नासा के चौदहवें अभियान दल की एक सदस्या के रूप में चार बार कुल 29 घंटे 17 मिनट तक अंतरिक्ष में चलकर उन्होंने महिलाओं के लिए एक विश्व-कीर्तिमान स्थापित किया है, जिसे नासा ने ‘असाधारण वाहनीय कार्य’ का नाम दिया है. सुनीता स्वयं में एक प्रतिमान बन गई हैं. आज वह जिस ऊँचाई तक पहुँची हैं, उसमें उनके जीवन से जुड़े अनेक अनुभवों और प्रभावों का योगदान रहा है, जो उन्हें अपने परिवार और पारिवारिक पृष्ठभूमि से मिले हैं.

अपने पिता से उन्होंने सरल जीवन-शैली, आध्यात्मिक संतोष, पारिवारिक संबंधों और प्रकृति के सुखद सौंदर्य के मूल्यों की परख करना सीखा है.

अपनी माँ से उन्होंने शक्ति और सौंदर्य प्राप्त करने के साथ-साथ हमेशा सकारात्मक, रचनात्मक, प्रसन्नचित्त और तरोताजा बने रहना सीखा है. अपने भाई से उन्होंने खेल और अध्ययन में कड़ी मेहनत के महत्त्व को समझा है. उनकी बहन उन्हें जीवन भर की सहेली के रूप में मिलीं तथा उनका अनुकरण करके भी उन्होंने बहुत कुछ सीखा. तैराकी में अपने प्रतियोगियों से उन्होंने निष्ठा, प्रतिबद्धता व समर्पण तथा जीवन भर के महत्त्व को समझा। साथ ही, अपने प्रतिस्पर्धियों से आगे निकलने के लिए अपनी पूरी शारीरिक ऊर्जा का उपयोग करना सीखा।

नौसेना अकादमी से उन्होंने नेतृत्व और उत्तरजीविता के गुर सीखे तथा पुरुष-प्रधान परिस्थितियों में निडर होकर एक टीम सदस्य के रूप में काम करना सीखा.नेवी डाइविंग (नौसेना गोताखोरी) से उन्हें पानी के भीतर रहने और काम करने के व्यवहारिक कौशल मिले, जिसका लाभ उन्हें स्वयं को एक सफल अंतरिक्ष यात्री बनाने में भी मिलेगा.परीक्षण पायलट के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने चुनौतियों को स्वीकार करना सीखा और समस्याओं का हल निकालने के साथ-साथ साहस तथा दृढ़ निश्चय के साथ काम करना सीखा. अपने पति से उन्हें मित्रता, प्रेम, सम्मान और सुरक्षा का मूल्य समझने को मिला. यानी अंतरिक्ष के इतने बड़े स्टार ने धरती के हर शख्स, हर चीज़ से कुछ न कुछ सीखा. और फिर क्या, सीखने की इसी चाहत ने आज उन्हें खुद पूरी दुनिया की खातिर एक बड़ी सीख और प्रेरणा में तब्दील कर दिया है.

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Monday, August 27, 2012

चाँद को छूकर सितारों में खो गए नील आर्मस्ट्रांग

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डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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"मैं ईमानदारी से कह रहा हूँ मैंने कभी नहीं सोचा था कि उस चाँद जिसे मैं

बचपन में खिलौना समझता था पर सबसे पहले मेरे कदम पड़ेंगे” नील

आर्मस्ट्रांग के लिए चाँद पर उतरना किसी ऐसे सपने की तरह था जिसका खुमार

आज जबकि वो नहीं है तक खत्म नहीं हो पाया है. मीडिया और प्रचार से बेहद

दूर रहने वाले आर्मस्ट्रांग  के बारे में ये बात बहुत कम लोगों को पता

होगी कि उन्हें 16 वर्ष की उम्र में जब कमर्शियल पायलट का लाइसेंस मिला

था उस वक्त तक उन्हें ड्राइविंग लाइसेंस भी नहीं मिला था. उन्होंने कभी

खुद को अंतरिक्ष कार्यक्रमों से जुडी सिलिब्रिटी के तौर पर स्थापित करने

की कोशिश कीवो नेवी के फाइटर पायलट थे और मरते दम तक खुद को फाइटर पायलट

कहा जाना ही ज्यादा पसंद करते थे कैमरे से बेहद शर्माने वाले

आर्मस्ट्रांग 2010 अंतिम बार तब सार्वजनिक तौर पर दिखे जब अमेरिकी

राष्ट्रपति बराक ओबामा ने देश की अंतरिक्ष नीति में व्यापक फेरबदल की

घोषणा करते हुए निजी कंपनियों को अंतरिक्ष यान बनाने की इजाजत देने से

इनकार कर दिया था.आर्मस्ट्रोंग चाहते थे कि निजी कंपनियों की इसमें

भागीदारी हो और अंततः कांग्रेस को नील की इस जिद को स्वीकार करना पड़ा



आर्मस्ट्रांग के साथी और दुनिया के प्रसिद्ध एस्ट्रोनाट ग्लेन जिन्होंने

कभी आर्मस्ट्रांग के साथ पनामा के जंगलों में अंतरिक्ष यात्रा का

प्रशिक्षण लिया था, हमेशा कहते थे “आर्मस्ट्रांग ही दुनिया का एकमात्र

शख्स है जिसे मैं जितना प्यार करता हूँ उतनी ही ईर्ष्या करता हूँ.

आर्मस्ट्रांग ने चाँद पर भले ही फतह पा ली थी,लेकिन वो उसे हमेशा उस

निगाह से भी देखते रहे, जिस निगाह से कोई कवि चाँद को देखता है.

आर्मस्ट्रांग ने अपने जीवन में एकमात्र साक्षात्कार 2006 में एक टीवी

चैनल को दिया था जिसमे उन्होंने कहा कि चाँद की सतह सूरज की रोशनी में

ज्यादा खूबसूरत लगती है,कई बार ऐसा लगता है जैसे हम जमीन पर हों पर

आस-पास कोई शोर नहीं होता,उसी साल आर्मस्ट्रोंग की जीवनी “फर्स्ट

मैन:लाइफ आफ द नेल ए.आर्मस्ट्रोंग “बाजार में आयी. उनकी जीवनी लिखने वाले

हेनसेन बताते हैं मैंने इतना संवेदनशील इंसान कभी नहीं देखा.

अपोलो के अंतरिक्ष यात्रियों ने अपनी यात्रा की 30 वीं वर्षगांठ पर

आयोजित एक कार्यक्रम में जब नील को बुलाया तो लगभग
 30 लोगों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया ,लेकिन शर्मीले आर्मस्ट्रोंग सिर्फ
थैंक्स करके मंच से उतर आये,बाद में उन्होंने अपने लिखित सन्देश में कहा कि
“अपोलो मिशन कीसबसे बड़ी उपलब्धता दुनिया को ये बताना था कि सारी संभवनाएं मानवता में निहित हैं अगर सारी दुनिया एक हो जाए तो हम उन लक्ष्यों को भी प्राप्त कर

सकते हैं ,जिन्हें प्राप्त करना अब तक असंभव रहा है“.इस बात में कोई दो

राय नहीं कि अपोलो मिशन शीत युद्ध के कड़वे दिनों की कड़वाहट को कम करने के

काम आया.वो नील थे जिनकी पहल पर दुनिया की दो महाशक्तियां अंतरिक्ष

विज्ञान की उन्नति के लिए एक टेबल पर बैठने को तैयार हो गयी थी.



आर्मस्ट्रांग की मौत के तत्काल बाद जारी किये गए एक प्रेस रिलीज में

उनके परिवार ने कहा कि “जो लोग भी नील को अपनी श्रद्धांजलि देना चाहते

हैं,उनसे एक छोटा सा अनुरोध ये है कि जब कभी वो रात में घर बाहर निकले

और चाँद को मुस्कुराता देखें एक बार जरुर नील को याद करके अपनी आँखें बंद

कर लें“. अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने कहा है कि नील अमेरिका के महान

हीरोज में से एक रहे हैं और हमेशा रहेंगे“.



82 साल की उम्र में चांद पर पहला कदम रखने वाले नील आर्मस्ट्रॉन्ग दुनिया

को अलविदा कह गए। खराब सेहत से जूझ रहे आर्मस्ट्रॉन्ग की हाल ही में

बाइपास सर्जरी हुई थी. जुलाई 1969 को अपोलो-11 मिशन का नेतृत्व करते हुए

नील आर्मस्ट्रांग ने चांद पर पहला कदम रखा था. इस दौरान उन्होंने कहा था,

‘मनुष्य के लिए यह एक छोटा कदम, पूरी मानव जाति के लिए बड़ी छलांग साबित

होगा’. नेवी में एक ड्राइवर के तौर पर काम करने के बाद नील

आर्मस्ट्रॉंन्ग ने एरोनॉटिकल इंजिनियरिंग की स्टडी की. उन्होंने एक

रिसर्च प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर जो कि बाद में अमरीकी अंतरिक्ष

एजेंसी नासा का अहम हिस्सा बन गया.एक अंतरिक्ष यात्री के तौर पर चुने

जाने के बाद आर्मस्ट्रॉन्ग उस चालक दल का हिस्सा बने जो पहली बार

अंतरिक्ष में दो पहिया वाहन ले जाने में सफल रहा। नील आर्मस्ट्रॉंग के

हृदय की नलियां बाधित होने के चलते पिछले दिनों हॉस्पिटल में भर्ती कराया

गया था। इसके बाद उनका ऑपरेशन किया गया। पिछले रविवार को ही आर्मस्ट्रॉंग

ने 82 वर्ष की उम्र पार की थी।



चांद पर गए इस मिशन के सफल होने के बाद नील आर्मस्ट्रॉंग सुर्खियों से

दूर रहे। सितंबर 2011 में उन्होंने आर्थिक संकट के बीच नासा के भविष्य को

लेकर की जा रही चर्चा में अपना पक्ष रखा था। अपने दल के दूसरे साथियों

सहित नील आर्मस्ट्रॉंग को अमरीका का शिखर नागरिक सम्मान ‘कॉग्रेशनल गोल्ड

मेडल’ से नवाजा गया है.दरअसल, चाँद को छूने वाले आर्मस्ट्रांग अब दुनिया

को अलविदा कहकर खुद एक हमेशा चमकते रहने वाले सितारे बन गए हैं.



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Sunday, August 19, 2012

सांस्कृतिक दृष्टि : साहित्य की समझ का प्रवेश द्वार


डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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मो. 9301054300


साहित्य और संस्कृति के अंतर संबंधों पर चर्चा बहुत हुई है। एक सीमा तक साहित्य स्वायत्त भी हो सकता है। पर स्वायत्तता को उस सीमा से बाहर ले जायें और कहें कि हम अपना अलग समाज दर्शन विकसित करेंगे,इतिहास विधि विकसित करेंगे, समाजशास्त्र विकसित करेंगे, सांस्कृतिक परिवेश विकसित करेंगे तो कुछ गम्भीर प्रश्न हमारे सामने आते हैं। इतिहास के अध्ययन की जो नई विधा विकसित हो रही है, उसमें लोक साहित्य का बड़ी मात्रा में उपयोग किया जा रहा है। एक जो विवरण का इतिहास था, उससे अलग इतिहास में प्रयोग हो रहे हैं और ऐसे ग्रन्थ मौखिक विवरण पर आधारित होते हैं।

जहाँ तक सामाजिक इतिहास की बात है, जिसे एक सीमा तक आप सांस्कृतिक इतिहास कह सकते हैं, उसमें साहित्य का प्रचुर प्रयोग हुआ है। आज का दार्शनिक भी एकान्त वैयक्तिक चिन्तन में ही नहीं उलझा रहता, लोक दर्शन के प्रश्न भी दार्शनिकों के लिए और उनके एक वर्ग के लिए महत्त्वपूर्ण हो रहे हैं। जहाँ तक सामाजिक विज्ञानों की बात है हम साहित्य को छोड़ नहीं सकते, क्योंकि सामाजिक दस्तावेज के रूप में जो हमारे सामने आता है हम उसकी सामर्थ्य पर चिन्तन करें। उसकी सीमाओं पर विचार करें और सामाजिक प्रक्रियाओं को समझने के लिए चाहे वह निरन्तरता का प्रश्न हो या परिवर्तन का प्रश्न हो, साहित्य का उपयोग बहुत सार्थक रूप से किया जा सकता है। कहना न होगा कि  सामाजिक चिंताओं और प्रश्नों की यह निरंतरता, संस्कृति के आधारभूत मूल्यों पर ही अवलंबित रहती है. इससे साहित्य की संकृति निष्ठा का सहज प्रमाण मिलता है.

ऐसा नहीं है कि सिर्फ साहित्यकार ही चाहते हैं कि इतिहासकार, दार्शनिक, समाज वैज्ञानिक साहित्य के क्षेत्र में हस्तक्षेप न करें। हमारी अपनी कमजोरियाँ भी हैं। एक समय अर्थशास्त्र का ऐसा रूप था, जब प्रो. राधाकमल मुखर्जी और प्रो. डी. पी. मुखर्जी जो अर्थशास्त्री थे, लेकिन उनका क्षेत्र व्यापक था। दोनों ने नैतिक प्रश्नों को अर्थशास्त्रीय व्यवहार और सिद्धान्त से जोड़ा। डी. पी. साहित्य, संगीत, कला इनको लेते हुए चलते थे और अर्थशास्त्र को एक आकर्षक रूप देते थे, क्योंकि जीवन के सन्दर्भ उससे कटे नहीं थे। धीरे-धीरे अर्थशास्त्र का रूप बदला। राधाकमल और डी. पी. का अर्थशास्त्र कविता माना जाने लगा। इसी तरह जब दिनकर ने संस्कृति के चार अद्ध्याय लिखा तो उसका स्वागत मात्र एक ऐतिहासिक कृति के रूप में नहीं, बल्कि साहित्यिक ग्रन्थ के रूप में भी किया गया.

उसके बाद प्रकार्यवाद, संरचनावाद आया और उसके बाद हम इसमें बुरी तरह से उलझ गये कि इतिहास बेकार है, दर्शन के प्रश्न बेकार हैं, शुद्ध सामाजिक तथ्यों के ही रूप में समझना चाहिए और इसमें हमें परम्परा और इतिहास में कोई सहायता नहीं मिलती है। साहित्य और संस्कृति उनके उभरते रूप के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी इन वादों से जुड़े हैं। एक बड़ी संभ्रम की स्थिति है कि हम कहाँ जाये, कितना दूसरों से संवाद करें और कर्मकाण्डीय शुचिता जो हमारे विषयों के साथ जुड़ गई है उसमें हम नये-नये अछूत पैदा कर रहे हैं। समाजशास्त्री ने दखल दिया तो साहित्य बिगड़ जायेगा और समाजशास्त्री साहित्य से आखिर क्या सीखेगा। उसमें कल्पनाओं की उड़ान ज्यादा है।

मेरा ख्याल है कि अब समय आ गया है कि हम विषयों के अभिजात्य को छोड़कर एक अन्तरअनुशासनिक संवाद स्थापित करें जो स्वायत्ता में हस्तक्षेप न करें। किन्तु नई दृष्टियाँ विकसित करने में सहायक हो। जहां तक साहित्य की बात है, जो भी सांस्कृतिक मूल्यों में निष्ठा रखता है उसे साहित्य पढ़ना चाहिए. पारिवारिक स्थितियों का चित्रण करने के लिए राजेन्द्र यादव के 'सारा आकाश' का उपयोग हो सकता है. गाँव में जो गुटबन्दी है उस पर बोलना हो तो 'राग दरबारी' की कथा सुनायी जा सकती है.

साहित्य दर्शन के बाद कैसे हुआ इसके बारे में निश्चयात्मक रूप से कुछ कहना कठिन है। जहाँ तक वाक्शक्ति की बात है मानव स्तम्भ प्राणी जो पूरी तरह से मानव कहीं बन सका था, सीमित वाक् शक्ति उसकी विकसित कर गयी। वैसे बड़े होते-होते रह गया। पर वाक्शक्ति वाणी, शब्दों को अर्थ दे सकने की क्षमता को हमने धरोहर में पाई थी। यह ठीक है कि वह सब विषय बहुत सीमित हैं, पर यह अनुमान करना कठिन है कि उस सीमित शब्द शक्ति और मानव के अंत:संबंध कैसे विकसित हुए।

जब उसने साहित्य की रचना की, उस साहित्य के अवशिष्ट आज हमें नहीं मिलते। यह कहना कठिन है कि इस आदि साहित्य का कितना अंश परम्परा से लोक संस्कृतियों में आया और आज भी जीवित है। पर जहाँ तक सृजन सौंदर्यबोध की बात है आस्ट्रेलिया के आदिवासी संसार के सबसे विकसित आदिवासी माने जाते हैं। हालांकि इतनी संश्लिष्ट सामाजिक संरचना दुनिया में बहुत कम जगह देखी जा सकती है। पर अभी कुछ वर्ष पूर्व जो भित्तिचित्र आस्ट्रेलिया में मिले, उनमें अमूर्त कला का बहुत सुन्दर प्रदर्शन हुआ है। तो मानव का मस्तिष्क जो निर्माण करता है, सांस्कृतिक विकास के स्तर से शायद उसका बहुत सम्बन्ध नहीं होता।

भारत में, यूरोप में इस तरह की कला बहुत मिलती है जो कुछ प्रश्न हमारे सामने प्रस्तुत करती है और वह यह कि कलात्मक विकास और सांस्कृतिक विकास का कुछ सम्बन्ध हो सकता है और कला के कुछ रूप ऐसे हैं कि जिनका शायद मानव की सृजन शक्ति से ज्यादा निकट का सम्बन्ध है। निश्चय है कि मौखिकता पहले आई, लिपिबद्धता उसके बाद आई। पर मौखिकता आज भी लिपिबद्धता से अधिक महत्त्वपूर्ण है। हमें जो कहना है वह हम लिखकर भी कहते हैं, पर सम्प्रेषण की दृष्टि से मौखिकता का हमेशा आश्रय लेना पड़ता है अपने विचारों के प्रसारण के लिए।

मौखिक साहित्य के आदि रूपों के सम्बन्ध में कुछ कहना कठिन है। एक समूह जो (इस काम में जुटा) और समाज वैज्ञानिक व्यवस्था से जुड़ा उन्हें समाज में, उन्हें विश्व में पाँच हजार छ: सौ समाजों की गणना करनी पड़ी, जिन्हें स्वतन्त्र समाज माना जा सकता है। इस गणना का मानक आधार कुछ मूलभूत प्रश्न उठाता है, पर बहस की शुरूआत के लिए मेरा ख्याल है कि हम इस संख्या को मान सकते हैं।

अब इसमें अट्ठाइस समाज ऐसे मिले जिनमें लोरियाँ नहीं थी। अब गणना की भूल हो सकती है। उसके बाद उसमें एक टिप्पणी थी कि उन्हीं लोरियों की गणना की गई है, जिनके शब्दों के कुछ अर्थ होते हैं। सिर्फ ध्वनियाँ हैं जिनमें लय है ताल है पर अर्थ नहीं है उन्हें हमने लोरियाँ नहीं माना है। खैर वो तो साहित्य नहीं हो सकती। कोई ऐसा समूह नहीं है जिसमें मिथक न हो। यह सम्भव है कि उसने अपने मूल मिथकों को त्याग दिया हो और लय में स्वीकार कर लिया हो पर यह भी सच है कि एक नया धर्म एक नई संस्कृति लेने के बाद अफ्रीका में कुछ ईसाई हुए, कुछ मुसलमान बने और वहाँ मैंने उनसे पूछा कि भई ये क्या हुआ तो उनका जवाब था कि हमें तो एक पैकेज मिल रहा था और उसके साथ हमने इस्लाम भी ले लिया।

आखिर पंचतंत्र, हितोपदेश या उससे अलग हटकर सहस्त्र रजनी चरित इनका मौखिक परम्परा में विकास हुआ, ये लिपिबद्ध हुए और आश्चर्य की बात यह है कि इस लिपिबद्ध परम्परा ने नई मौखिक परम्पराओं को जन्म दिया। सहस्त्र-रजनी-चरित्र ईरान में तीन रूपों में मिलता है और पुस्तकों में आ जाने के बाद इन पुस्तकों का व्यापक प्रसार हुआ और यही कहानियां नये चरित्र के साथ आकृति कृत हुई जिसके बारे में हमें पता है, प्रामाणिक सन्दर्भ उपलब्ध हैं। पर जो अभिप्राय था, मूल भाव इनका था वो नहीं बना। वैसे तो होमर और इलियट को लेकर कहें कि मौलिक परम्परा से लिखित परम्परा में आया तो कुछ विवाद हो सकता है, पर अब निर्णायक मत इस पक्ष में है कि मौखिक परम्परा का ही वह अंग था, जो सूक्ष्म विश्लेषण के बाद लिपिबद्ध रूप में महाकाव्य से अधिक लोककाव्य के रूप में माना जाएगा। लोक संस्कृति के कुछ अंश तो समृद्ध साहित्य की धारा में आते हैं, पर उसके कुछ आकर्षण हैं जिनका विश्लेषण करना चाहिए।

मौखिक साहित्य की बात छोड़िए, आज जो साहित्य हमारे सामने है उसको लेकर कौन से प्रश्न महत्त्वपूर्ण हैं। पहला तो यह कि लिखता कौन है -- भोजपत्र, ताड़पत्र पर जो साहित्य लिखा गया लिखने वाले का वंशचरित किस समूह से आया है जो लेखन को प्रभावित करता था। धर्म अधिक था पर उसके साथ-साथ सृजनशीलता के भी कुछ पक्ष जुड़े थे। धर्म के रूप में महत्त्व संदिग्ध था, पर लौकिक अर्थों में भी अलौकिक की भावना को निकाल दें तो साहित्य का रूप उभर जाए।

चीन में लकड़ी के ब्लाक्स बनाये गये और उनकी संख्या इतनी अधिक थी और इतना श्रम साध्य था उसे सीमित उद्योग करना कि जिसका उपयोग जापान ने बाद में किया और वहाँ साहित्य का प्रचार एवं सीमित हिस्से में हुआ। यह तो गुटवर्ग क्रान्ति के बाद सचल टाइप के आविष्कार के बाद मुद्रण सम्भव हुआ, पर उससे जो लिपिबद्ध रूप आया और सबसे पहली किताब बाइबल अनेक रूपों और आकारों में छपी और जब वह छपी तो चर्चा में एक खलबली मच गई। अब तक धर्म-प्रचारकों के हाथ में जो शक्ति थी- वह ज्ञान सामान्य रूप से लोगों को मिलेगा और इसका क्या परिणाम होगा?

तो लेखकों के धरातल हैं, पाठकों के धरातल और साथ में प्रकाशकों के भी धरातल हैं। कविता कबीर की जन-जन तक पहुँची,पर हम वह कविता नहीं लिख रहे हैं,जो जन-जन तक पहुँच सके। इससे संस्कृति की रक्षा कैसे संभव हो सकेगी ?

साहित्य की पहुँच कितनी होती है और पहुँच और प्रभाव में बड़ा निकट का सम्बन्ध है, इसे सांस्कृतिक दृष्टि से ही समझा जा सकता है. आज भी कबीर आस्थाओं को एक आधार देते हैं। नयी कविता चमत्कृत करती है, कभी समझ में आती है, कभी समझ में नहीं आती। तो एक शास्त्रीय परम्परा है एक प्रयोग की परम्परा है और एक व्यावसायिक परम्परा है। जिन प्रश्नों पर हमें विचार करना है कि परिवर्तन साहित्य के रूप और उससे जन्म लेने वाली सांस्कृतिक चेतना को को किस तरह प्रभावित करता है?

आज की नयी पीढ़ी जो पढ़ती है, माइकल जैक्सन वाली पीढ़ी, साहित्य का एक नया रूप चाहती है। हम कविता को धूम-धड़ाका और तमाशा भी बनाना चाहते हैं क्या? या अर्थहीन शब्द योजना को कुछ रंगीन कर देना चाहते हैं। नहीं, समय रहते साहित्य और संस्कृति के जीवंत संबंधों की पड़ताल करनी ही होगी, वरना समझ से दूर होते और तड़क- भड़क के निरंतर निकट पहुँचते आज के दौर में ये सम्बन्ध कहीं अपनी ही पहचान की गुहार न करने लगें ?


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Thursday, August 16, 2012

साहित्य और संस्कृति की अंतर्धारा है संस्कृत



डॉ.चन्द्रकुमार जैन

राजनांदगाँव. मो.9301054300

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फ़ोर्ब्स पत्रिका जुलाई 1987 की एक रिपोर्ट में संस्कृत को सभी उच्च भाषाओं की जननी माना गया है। इसका कारण हैं इसकी सर्वाधिक शुद्धता और इसीलिए यह कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर के लिए एक उपयुक्त भाषा है मीठी और दैवी संस्कृत भाषा का काव्य बहुत ही मीठा है एवं उससे भी अधिक मीठा,प्रभावशाली नैतिक शिक्षा देने वाला सुभाषित है. संस्कृत को देववाणी भी कहते हैं। इस दृष्टि से यह देवों के सामान स्वातंत्र्य की भाषा है.यह बंधन काटने वाली दैवीय भाषा है. 1857 की क्रान्ति का अग्रदूत प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द संस्कृत का उद्‌भट विद्वान था। तिलक, लाला लाजपतराय, मालवीय पर भी संस्कृत की अमिट छाप थी.

संस्कृत भाषा आज भी करोड़ों मनुष्यों के जीवन से एकमेक है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक समस्त जनता के धार्मिक कृत्य संस्कृत में होते हैं। प्रातः जागरण से ही अपने इष्टदेव को संस्कृत भाषा में स्मरण करते हैं। गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त सोलह संस्कार संस्कृत में होते हैं। जैन और महायानी बौद्धों का समस्त विशाल साहित्य संस्कृत और प्राकृत में भी है। विचार-विस्तार, भाषण का माध्यम संस्कृत है। आज भी हजारों विद्वान नानाविध विषयों में साहित्य से इसकी गरिमा को निरन्तर बढ़ाकर अपनी और संस्कृत की महिमा से अलंकृत हो रहे हैं। अतः संस्कृत एक जीवन्त और सशक्त भाषा है।

विदेशों में गीता से प्रेरणा
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भारत से एक शिष्टमण्डल रूस गया था । इसमें प्रतिष्ठित पत्रकार और शहीद लाला जगतनारायण भी गये थे। उन्होंने लौटने पर यात्रा का विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा था जब रूस में पुस्तकालय देखने गये तो संस्कृत विभाग में भी गये । द्वार पर हमारा संस्कृत भाषा में स्वागत और परिचय हुआ। हमारे शिष्ट मण्डल में कोई भी संस्कृत नहीं जानता था। रशियन संस्कृत में पूछते, हम अनुवाद के माध्यम से अंग्रेजी में उत्तर देते। हमें बड़ी शर्म अनुभव हुई। आगे बढ़े, संस्कृत पुस्तकालयाध्यक्ष के कार्यालय में गये। वहॉं भी संस्कृत भाषा में रूस वालों की ओर से प्रश्न और हम अंग्रेजी में उत्तर देते रहे। मेज पर गीता रखी थी। पूछने पर उत्तर मिला कि कर्त्तव्य परायणता की प्रेरणा हम गीता से लेते हैं। तो ये है विदेशों में संस्कृत की महत्ता का एक उदाहरण.

यह सुखद आश्चर्य की बात है कि अमेरिका विशाल देश है। उत्तरी अमेरिका के दक्षिणी भाग मैक्सिको और पनामा राज्य की सीमा का लगभग 20-22 वर्ष पूर्व अनुसन्धान किया गया। वहॉं अन्वेषण में एक मनुष्य समुदाय मिला। जाति विशारद विद्वानों ने उनके शरीर के श्वेत वर्ण के कारण उनका नाम व्हाईट इंडियन रखा और उनकी भाषा का नाम भाषा विशेषज्ञों ने ब्रोन संस्कृत रखा। इस अन्वेषण से यह सिद्ध होता है कि किसी जमाने में संस्कृत भाषा का अखण्ड राज्य था। हम सब बाली द्वीप का नाम जानते हैं। उसकी जनसंख्या लगभग पच्चीस लाख बताई जाती है। बाली द्वीप के लोगों की मातृभाषा संस्कृत है। इतने सबल प्रमाणों के होते हुए भी अंग्रेजों के मानस पुत्र संस्कृत को मृत भाषा कहने में नहीं चूकते। यह तो किसी को सूर्य के प्रकाश मेें न दिखाई देने के समान है। इसमें सूर्य का क्या दोष है! यह सरासर अन्याय और संस्कृत भाषा के साथ जानबूझकर खिलवाड़ है। संस्कृत तो स्वयं समर्थ, विपुल साहित्य की वाहिनी, सरस, सरल और अमर भाषा है।

मनुस्मृति जब जर्मनी में पहुँची तो वहॉं के विद्वानों ने इसका और जैमिनी के पूर्व मीमांसा दर्शन का अध्ययन करके कहा- हन्त! यदि ये ग्रन्थ हमें दो वर्ष पूर्व मिल गये होते तो हमें विधान बनाने में इतना श्रम न करना पड़ता। काव्य नाटक आदि के क्षेत्र में कोई भी भाषा संस्कृत की समानता नहीं कर सकती। वाल्मीकि तथा व्यास की बात ही कुछ और है। भवभूति, भास, कालिदास की टक्कर के कवि तो भारत के ही साहित्य में हैं। विश्व के किसी और देश में ऐसे साहित्यकार कहॉं हैं? भाषा का परिष्कार अलंकार शास्त्र से भारत में ही हुआ, अन्यत्र नहीं। अभिघा, लक्षणा, व्यंजना का मार्मिक विवेचन भारतीय मनीषियों की संस्कृत साहित्य में उपलब्धि है।

लॉर्ड मेकॉले ने जब कलकत्ता में एक विद्यालय की स्थापना की तब उसने भारत के सभी भाषा विद्वानों को आमन्त्रित किया एवं उनसे पूछा कि “आप लोगों को शिक्षा किस भाषा में दी जाना चाहिये तब सब विद्वानों ने एकमत से कहा - संस्कृत भाषा में दी जाना चाहिये। परंतु लॉर्ड मेकॉले ने कहा - संस्कृत तो मृत भाषा है उसमें शिक्षा नही दी जा सकती। आप को उन्नति के शिखर पर पहुँचना है तो अंग्रेजी भाषा में शिक्षा ग्रहण करो। आपको ऊंचे पद और नौकरियाँ मिलेगी। इस प्रकार लॉर्ड मेकॉले ने अपनी शिक्षा पद्धति भारतीयों को मानसिक रूप से पूर्ण दास बनाने के लिये प्रारम्भ की और अफ़सोस है उसी का अनुसरण आज तक किया जा रहा है.

संस्कृत साहित्य का वैभव
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संस्कृत साहित्य का इतना विस्तार है कि ग्रीक एवं लैटिन दोनों भाषाओं का साहित्य एकत्र किया जाए तो भी संस्कृत साहित्य के सामने नगण्य प्रतीत होता है। संस्कृत साहित्य का मूल वेद है। ललित कलाओं में भी संस्कृत साहित्य का नाम सर्वोपरि है। संस्कृत साहित्य की खोज ने ही तुलनात्मक भाषा विज्ञान को जन्म दिया। संस्कृत के अध्ययन ने ही भाषा शास्त्र को उत्पन्न किया। दर्शन और अध्यात्म तो हैं ही संस्कृत साहित्य की मौलिक देन। व्यवहारोपयोगी ज्ञान-विज्ञान की संस्कृत साहित्य में पर्याप्त रचना उपलब्ध है। धर्म विज्ञान, औषधि विज्ञान, स्वर विज्ञान, गणित, ज्योतिष आदि विषयों में योग्यता पूर्ण साहित्य संस्कृत में प्राप्त है।

सप्रमाण कहा जा सकता है कि अंकगणित दशमलव प्रणाली का सर्वप्रथम आविष्कर्ता भारत का मनीषी वर्ग था। शिल्प शास्त्र का विशाल संस्कृत साहित्य भारत की सर्वोपरि अमूल्य निधि है। भारतीय औषधि विज्ञान के बारे में अमेरिका के यशस्वी डॉक्टर क्लार्क का कहना है ""चरक की औषधियों का प्रयोग करना चाहिए।'' गीता, पंचतन्त्र और हितोपदेशादि संस्कृत साहित्य की महिमा विश्व की मुख्य भाषाओं में अनुदित होकर संस्कृत साहित्य में भारत का भाल उन्नत कर रही है।

भारत की सारी भाषाएँ तो संस्कृत से ही निकलीं हैं किन्तु जैसा पहले स्पष्ट किया जा चुका है, संस्कृत का प्रभाव केवल भारत में ही नहीं विदेशी भाषाओं पर भी पड़ा है। फारसी, लेटिन, अङ्ग्रेजी और श्रीलङ्का की भाषा, नेपाली एवं अफ्रीका के मूल निवासियों की भाषा पर संस्कृत का प्रभाव है। पश्चिमी अमेरिका राज्य में एक जाति ऐसी है जो संस्कृत से मिलती-जुलती भाषा से अपने विवाह संस्कार करती है और वैसे ही भाषा बोलती है। इंडोनेशिया, मलेशिया एवं सिंगापुर की भाषाओं पर भी संस्कृत का प्रभाव है। महर्षि महेश योगी के द्वारा विदेशों में संस्कृत का बहुत अधिक प्रचार किया गया। साथ ही हरे कृष्ण मिशन द्वारा भी विदेशों में संस्कृत का गीता के माध्यम से प्रचार किया गया। महर्षि अरविन्द ने विश्व संस्कृत प्रतिष्ठान की स्थापना पाण्डिचेरी में की थी।

संस्कृति की प्रधान धारा,संस्कृत
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गुलाम दस्तगीर मुसलमान होते हुये भी संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित हैं। वे सब जगह सरल संस्कृत भाषा में ही बोलते हैं। भारत में ऐसे कई परिवार हैं जिन्होंने अपनी मातृभाषा संस्कृत लिखवायी है एवं वे घर में संस्कृत में ही बोलते हैं। पी. सी. रेन की इंग्लिश ग्रामर में एक वाक्य लिखा है “कालिदास इज़ शेक्सपियर ऑफ़ इंडिया” किंतु जब विदेशी विद्वानों गेटे तथा अन्य लोगों ने संस्कृत का अध्ययन कर कालिदास के काव्यों को पढ़ा तब वे आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने घोषित किया कि “कालिदास इज़ दी ग्रेटेस्ट पॉयट ऑफ़ इंडिया, इन दी सिमिली ऑफ़ कालिदास शेक्सपियर इज़ नथिङ्ग। शेक्सपियर इज़ ऑन्ली ए ड्रेमेटिस्ट एण्ड कालिदास इज़ दी ग्रेटेस्ट पॉयट ऑफ़ दी वर्ल्ड ”।

जब विदेशी लोगों ने कालिदास को संसार के सर्वश्रेष्ठ कवि की मान्यता दी तब हम मूर्खों की आँखें खुली और हम भारतीयों ने कालिदास जयन्ती मनाना प्रारंभ किया। आज संस्कृत का प्रचार गुरुकुलों के माध्यम से किया जाना चाहिए तभी नैतिक, सदाचारी, कर्तव्यनिष्ठ, शूरवीर, देशभक्त निर्मित किये जा सकते हैं। ऐसी नवयुवक पीढ़ी के द्वारा ही भारत का सम्मान विश्व स्तर पर बढेगा. आर्य संस्कृति के प्रारंभ में जन्मी मंत्रद्रष्टा ऋषियों की वाणी के समय से लेकर आज तक यह भाषा, भारत की विविध भाषाओं एवं लोकभाषाओं का रूप लेते हुए भारतीय संस्कृति की प्रधान धारा बनी हुई है। साथ ही अपने अविच्छिन्न रूप में भी पूरे विश्व में व्यापकता, धार्मिकता एवं लौकिकता से परिपूर्ण है।

विदेशी विश्वविद्यालयों में संस्कृत
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विदुषी लेखिका डॉ.ऊषा गोस्वामी बताती हैं कि अनेक विशेषताओं से परिपूर्ण इस भाषा की महत्ता के कारण ही आज से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व ऑक्सफोर्ड और केम्ब्रिज जैसे विश्वविद्यालयों में संस्कृत विभाग खोले गये थे। आज विश्व के हर बड़े विश्वविद्यालय में एक भारतीय विद्या विभाग (इंडोलॉजी डिपार्टमेंट) अवश्य होता है, जिसमें संस्कृत भाषा सिखाई जाती है। समस्त विश्व में भारतीय संस्कृति और संस्कृत के महत्त्व को इस बात से समझा जा सकता है। लिफोर्निया विद्यापीठ में 1897 ई .से संस्कृत भाषा पढ़ाई जा रही है। अमेरिका के मेरीलैंड विद्यापीठ में भी इसका इतना प्रचार है कि वहाँ केविद्यार्थियों ने संस्कृत भारती नाम से एक दल तैयार किया है। हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम जब ग्रीस गए तब वहाँ के माननीय राष्ट्रपति कार्लोस पाम्पाडलीस ने उनका स्वागत संस्कृत भाषा में "राष्ट्रपतिमहाभाग : सुस्वागतम् यवनदेशे" कहकर स्वागत किया था।जुलाई २००७ में अमेरिकी सीनेट का प्रारम्भ वैदिक प्रार्थना से किया गया। यू.के. कुछ विद्यालयों में यह अनिवार्य रूप से शिक्षा का अंग है। इस भाषा की वैज्ञानिकता के कारम इसे कंप्यूटर के संगणकों के लिये सर्वश्रेष्ठ भाषा माना गया है। भारत तथा विदेश में यह आज भी यह अनेक परिवारों की बोली है। भारत के चार गाँव ऐसे हैं जहाँ आज भी यह भाषा दैनिक व्यवहार में प्रयोग की जाती है।

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Sunday, August 12, 2012

माटी महतारी के महान सपूत : पंडित सुन्दरलाल शर्मा


डॉ.चन्द्रकुमार जैन


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राजनांदगांव. मो. 9301054300

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"भारत मानव जाति का पालना है, मानवीय वाणी का जन्‍म स्‍थान है, इतिहास की जननी है और विभूतियों की दादी है और इन सब के ऊपर परम्‍पराओं की परदादी है। मानव इतिहास में हमारी सबसे कीमती और सबसे अधिक अनुदेशात्‍मक सामग्री का भण्‍डार केवल भारत में है!" अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन के इन हार्दिक शब्दों पर आप गौर करें तो प्रतीत होगा कि हमारे प्राणों से भी प्यारे भारत देश को ऎसी उच्चतर गरिमा के पद पर आरूढ़ करने में छत्तीसगढ़ की माटी और यहाँ के माटी पुत्रों,सपूतों का बड़ा योगदान रहा  है.

हमारे कर्मवीरों ने सुविधा  के स्थान पर 

साधना का कठिन मार्ग चुना. 

सुरक्षा के बदले उत्सर्ग को ही अपना आश्रय माना. 

फिरंगियों और आततायियों के  आगे झुककर

आत्महीन समझौते करने की जगह पर,

आत्मगौरव और आत्म सम्मान की ज़मीन पर

अपनी स्वतन्त्र और अडिग आस्था का परिचय दिया
चुनौती भरे शब्दों में उन्होंने अपने बुलंद इरादों का ऐलान कुछ इस तरह  किया -

वक्त की ख़ामोशियों को तोड़कर आगे बढ़ो

अपने ग़म, अपनी हँसी को छोड़कर आगे बढ़ो

ज़िन्दगी को इस तरह जीने की आदत डाल लो

हर नदी की धार को तुम मोड़कर आगे बढ़ो

छत्तीसगढ़ में भारत की आजादी की लड़ाई में सबसे पहले जेहाद का बिगुल फूंककर अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने की त्याग वृत्ति के साथ मातृभूमि की सेवा का दिव्य आराधन करने वालों में पंडित सुन्दरलाल शर्मा का नाम इतिहास में सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा. भाग्य के बल पर निर्भर रहने के स्थान पर कर्म के संबल से राष्ट्रीय चेतना को स्वर और दिशा देने वाले ऐसे कर्मवीरों से हमारी यह पावन भूमि गौरवान्वित हुई है.

पं. सुन्दरलाल शर्मा जो स्वाधीनता संग्रामी थे, कवि भी थे। शर्माजी  ने ठेठ  छत्तीसगढ़ी में काव्य सृजन किया. पं. सुन्दरलाल शर्मा को महाकवि कहा जाता है। किशोरावस्था से ही सुन्दरलाल शर्मा जी लिखा करते थे। उन्हें छत्तीसगढ़ी और हिन्दी के अलावा संस्कृत, मराठी, बगंला, उड़िया एवं अंग्रेजी आती थी। उनकी लिखी "छत्तीसगढ़ी दानलीला" आज क्लासिक के रुप में स्वीकृत है। पं. सुन्दरलाल शर्मा की प्रकाशित कृतियाँ - 1. छत्तीसगढ़ी दानलीला 2. काव्यामृतवर्षिणी 3. राजीव प्रेम-पियूष 4. सीता परिणय 5. पार्वती परिणय 6. प्रल्हाद चरित्र 7. ध्रुव आख्यान 8. करुणा पच्चीसी 9. श्रीकृष्ण जन्म आख्यान 10. सच्चा सरदार 11. विक्रम शशिकला 12. विक्टोरिया वियोग 13. श्री रघुनाथ गुण कीर्तन 14. प्रताप पदावली 15. सतनामी भजनमाला 16. कंस वध।

आपके पिता पं. जयलाल तिवारी जो कांकेर रियासत में विधि सलाहकार थे। पं. जयलाल तिवारी बहुत ज्ञानी एंव सज्जन व्यक्ति थे। कांकेर राजा ने उन्हें 18 गांव प्रदान किये थे। पं. जयलाल तिवारी बहुत अच्छे कवि थे और संगीत में उनकी गहरी रुचि थी। माता का नाम देवमती देवी था।

गांव के मिडिल स्कूल तक सुन्दरलाल की पढ़ाई हुई थी। इसके बाद उनकी पढ़ाई घर पर ही हुई थी। उनके पिता ने उनकी उच्च शिक्षा की व्यवस्था बहुत ही अच्छे तरीके से घर पर ही कर दी थी। शिक्षक आते थे और सुन्दरलाल शर्मा ने शिक्षकों के सहारे घर पर ही अंग्रेजी, बंगला, उड़िया, मराठी भाषा का अध्ययन किया। पं. सुन्दरलाल शर्मा की पत्नी श्रीमती बोधनी बाई चुपचाप हर मुसीबत का सामना अपने पति के साथ करती रहीं। उनके दो पुत्र थे - नीलमणि और विद्याभूषण।

पं. सुन्दरलाल ने ब्रज भाषा, खड़ी बोली तथा छत्तीसगढ़ी तीनों भाषाओं में रचनाएँ की। उनकी कवितायें प्रकाशित भी होने लगीं। सन् 1900 के पूर्व राजिम साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र था। उस समय विश्वनाथ प्रसाद दुबे, ठाकुर दोमोदर सिंह वर्मा, प्यारेसिंह वर्मा पुजारी, ठाकुर सूर्यादय सिंह वर्मा, क्षेमू प्रसाद शर्मा, गजादर प्रसाद पौराणिक, प्यारेलाल दीक्षित आदि राजिम के प्रसिद्ध कवि थे। सन् 1896-97 में ‘राजिम कवि सभा’ का निर्माण हुआ। 17 वर्ष के पं. सुन्दरलाल को मंत्री नियुक्त किया गया। 1898 में उनकी कवितायें रसिक मित्र में प्रकाशित हुई। सुन्दरलाल न केवल कवि थे, बल्कि चित्रकार भी थे। चित्रकार होने के साथ-साथ वे मूर्तिकार भी थे। नाटक भी लिखते थे। रंगमंच में उनकी गहरी रुचि थी। वे कहते थे कि नाटक के माध्यम से समाज में परिवर्तन लाया जा सकता है। पं. सुन्दरलाल शर्मा हमेशा कहते थे कि हमें समाज की बुराईयों को जल्द से जल्द दूर करने का प्रयास करना चाहिए। उनका यह कहना था कि बचपन से ही किताबें पढ़ने की आदत होनी चाहिये। सन् 1914 में राजिम में उन्होंने एक पुस्तकालय की स्थापना की थी।

पं. सुन्दरलाल राजनीति में सन् 1905-06 में सक्रिय हुए। उसके पूर्व वे पूर्णतः साहित्य को समर्पित थे। सन् 1906 में वे पहुँचे सूरत जहाँ उन्होंने कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। वहां तिलक उग्र (गरम) दल का नेतृत्व कर रहे थे। गोखले के साथ जो थे वे नरम दल की तरफ से तिलक का विरोध कर रहे थे। सुन्दरलाल शर्मा और उनके साथी पं नारायण राव मेधावाले और डा. शिवराम गुंजे तिलकजी के साथ थे।

साहित्य के क्षेत्र में उनका योगदान लगभग 22 ग्रंथ के रुप में है जिनमें 4 नाटक, 2 उपन्यास और काव्य रचनाएँ हैं। उनकी "छत्तीसगढ़ी दानलीला" इस क्षेत्र में बहुत लोकप्रिय है। कहा जाता है कि यह छत्तीसगढ़ी का प्रथम प्रबंध काव्य है.

मार्ग की हर बाधा को पुण्य मानने वाले और हर चुनौती को सौभाग्य मानकर उस पर विजय अभियान को सतत जारी रखने वाले ऐसे धीर-वीर-गंभीर महामानवों ने भारत भूमि और छतीसगढ़ महतारी के ऋण से मुक्त होने की अदम्य अभिलाषा को ही जैसे अपने जीवन का परम लक्ष्य बना लिया था. यही कारण है कि अपनी समस्त सुख-सुविधाओं का त्याग पर वे पथ के बाधक को भी साधक बनाने का महान अवसर नहीं चूके, जिससे अंततः भारत माता को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त करने का महाभियान सफल हो सका. पंडित शर्मा ऐसे ही अभियान के महारथी थे जिन्हें त्याग, तप, उत्सर्ग के संगम के साथ-साथ व्यक्तित्व और कृतित्व के इन्द्रधनुषी महामानव के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है.

सच ही कहा गया है कि बाधा जितनी बड़ी हो, उसे पार करने कि प्रसिद्धि उतनी ही बड़ी होती है. कुशल नाविक भयानक तूफानों और झंझावातों में ही मशहूर होते हैं. पंडित शर्मा इसकी जीवंत मिसाल कहे जा सकते हैं. छतीसगढ़ के गांधी के नाम से उन्हें ऐसे ही नहीं पुकारा गया. दरअसल हरिजनों को उनका हक और सम्मान दिलाने के लिए जो साहसिक भूमिका उन्होंने निभायी उसमें उनके अचल-अडिग स्वभाव के साथ-साथ उपेक्षित, तिरस्कृत या बहिस्कृत जन के प्रति उनकी गहन सहानुभूति, संवेदना तथा उनके जीवन स्वप्न से सक्रिय सरोकार का ही परिचय मिलता है.

वरना कट्टर विचारों के उस माहौल में तब जबकि गांधी जी हरिजन उद्धार का शंखनाद कर रहे थे, घर-घर पहुंचकर हरिजनों को जनेऊ पहनाने, उन्हें मंदिरों और वर्जित स्थानों में प्रवेश दिलवाने का भागीरथ अनुष्ठान आखिर कैसे संभव हो पाता ? इस असंभव को पंडित जी ने संभव कर दिखाया. सत्य से मत डिगो-चाहे जियो चाहे मरो का नारा देकर उन्होंने अपने जीवन दर्शन की साफ़-साफ़ तस्वीर दुनिया के सामने रख दी थी.

सचमुच वह असाधारण दिन था जब, जैसा कि इतिहास गवाह है सन 1933  में पंडित सुन्दरलाल शर्मा के प्रयास से जब गांधी जी का दूसरी बार छत्तीसगढ़ की माटी में पदार्पण हुआ था, तब राजिम-नवापारा में हुई महती सभा को संबोधित करते हुए बापू ने सहज ही कहा था कि पंडित सुन्दरलाल शर्मा उम्र में तो मुझसे छोटे हैं, परन्तु हरिजन उद्धार के कार्य में मुझसे बड़े हैं. उस दौर में गाधी जी का यह कथन कितना महत्वपूर्ण था यह कहने की जरूरत ही नहीं है पर आज भी छत्तीसगढ़ में ऐसे माटी के सपूत के होने का गर्व-बोध समस्त छतीसगढ़ वासियों को होना स्वाभाविक ही है. ऐसे ही प्रयासों और प्रसंगों की यादों को बार-बार ताज़ा किया जाना चाहिए जिससे अपनी धरोहर और शक्ति का परिचय नई पीढी को मिलता रहे. पं. सुन्दरलाल शर्मा का देहान्त 28 दिसम्बर 1940 में हुआ. स्वतन्त्रता सेनानी शर्मा जी देश को आज़ाद नहीं देख पाए।


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Thursday, August 9, 2012

आज़ादी ; पहल से पहुँच तक


निर्णायक लड़ाई का वह यादगार दिन

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डॉ.चन्द्रकुमार जैन

राजनांदगाँव. मो. 9301054300

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लूटा न कभी देश के हित खुद को लुटाया

औरों के लिए अपना लहू खूब बहाया

बलिदान हो गए अमर शहीद वतन के

उनको जो मिली मौत अमन हमने है पाया


द्वितीय विश्व युद्ध में समर्थन लेने के बावजूद जब अंग्रेज भारत को स्वतंत्र करने को तैयार नहीं हुए तो राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने भारत छोड़ो आंदोलन के रूप में आजादी की अंतिम जंग का ऐलान कर दिया जिससे ब्रिटिश हुकूमत में दहशत फैल गई । भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान ९ अगस्त सन १९४२ को गांधी जी के आह्वान पर समूचे देश में एक साथ आरम्भ हुआ। यह भारत को तुरन्त आजाद करने के लिये अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एक नागरिक अवज्ञा आन्दोलन था। क्रिप्स मिशन की विफ़लता के बाद महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ अपना तीसरा बड़ा आंदोलन छेड़ने का फ़ैसला किया । अगस्त 1942 में शुरू हुए इस आंदोलन को 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का नाम दिया गया था। यद्यपि गाँधी जी को फ़ौरन गिरफ़्तार कर लिया गया था लेकिन देश भर के युवा कार्यकर्ता हड़तालों और तोड़फ़ोड़ की कार्रवाइयों के जरिए आंदोलन चलाते रहे। कांग्रेस में जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी सदस्य भूमिगत प्रतिरोधी गतिविधियों में सबसे ज्यादा सक्रिय थे। पश्चिम में सतारा और पूर्व में मेदिनीपुर जैसे कई जिलों में स्वतंत्र सरकार, प्रतिसरकार की स्थापना कर दी गई थी। अंग्रेजों ने आंदोलन के प्रति काफ़ी सख्त रवैया अपनाया फ़िर भी इस विद्रोह को दबाने में सरकार को साल भर से ज्यादा समय लग गया।

भारत छोड़ो आंदोलन सही मायने में एक जनांदोलन था . इस आंदोलन ने युवाओं को बड़ी संख्या में अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने अपने कॉलेज छोड़कर जेल का रास्ता अपनाया। जिस दौरान कांग्रेस के नेता कारागार में थे उसी समय जिन्ना तथा मुस्लिम लीग के उनके साथी अपना प्रभाव क्षेत्र फ़ैलाने में लगे थे। इन्हीं सालों में लीग को पंजाब और सिंध में अपनी पहचान बनाने का मौका मिला जहाँ अभी तक उसका कोई खास वजूद नहीं था।

जून 1944 में जब विश्व युद्ध समाप्ति की ओर था तो गाँधी जी को रिहा कर दिया गया। जेल से निकलने के बाद उन्होंने कांग्रेस और लीग के बीच फ़ासले को पाटने के लिए जिन्ना के साथ कई बार बात की। 1945 में ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार बनी। यह सरकार भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में थी। उसी समय वायसराय लॉर्ड वावेल ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों के बीच कई बैठकों का आयोजन किया।

भारत छोडो आन्दोलन की शुरुआत नौ अगस्त 1942 को हुई थी इसीलिए इतिहास में नौ अगस्त के दिन को अगस्त क्रांति दिवस के रूप में जाना जाता है। मुम्बई के जिस पार्क से यह आंदोलन शुरू हुआ उसकी उसकी प्रसिद्धि अब अगस्त क्रांति मैदान के नाम से है। अब अगस्त क्रांति मैदान के नाम से है। अब अगस्त क्रांति मैदान के नाम से है। अब अगस्त क्रांति मैदान के नाम से है। अब अगस्त क्रांति मैदान के नाम से है। अब अगस्त क्रांति मैदान के नाम से है। अब अगस्त क्रांति मैदान के नाम से है। अब अगस्त क्रांति मैदान के नाम से है। अब अगस्त क्रांति मैदान के नाम से है। अब अगस्त क्रांति मैदान के नाम से है। अब अगस्त क्रांति मैदान के नाम से है। अब अगस्त क्रांति मैदान के नाम से है। अब अगस्त क्रांति मैदान के नाम से है। अब अगस्त क्रांति मैदान के नाम से है। अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए चार जुलाई 1942 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित कर अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक स्तर पर नागरिक अवज्ञा आंदोलन चलाने की रूपरेखा बनाई थी.

इस प्रस्ताव को लेकर हालाँकि पार्टी के भीतर मतभेद पैदा हो गए, फिर भी इससे भारत आज़ादी के अंडों की गति अवरुद्ध न हो सकी. अंग्रेजी हुकूमत इस बारे में पहले से ही सतर्क थी इसलिए अगले ही दिन गाँधीजी को पुणे के आगा खान पैलेस में कैद कर दिया गया। कांग्रेस कार्यकारी समिति के सभी कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर अहमदनगर किले में बंद कर दिया गया। लगभग सभी नेता गिरफ्तार कर लिए गए लेकिन युवा नेत्री अरुणा आसफ अली हाथ नहीं आईं और उन्होंने नौ अगस्त 1942 को मुम्बई के गवालिया टैंक मैदान में तिरंगा फहराकर गाँधीजी के भारत छोड़ो आंदोलन का शंखनाद कर दिया।गाँधीजी ने हालाँकि अहिंसक रूप से आंदोलन चलाने का आह्वान किया था लेकिन देशवासियों में अंग्रेजों को भगाने का ऐसा जुनून पैदा हो गया कि कई स्थानों पर बम विस्फोट हुए, सरकारी इमारतों को जला दिया गया, बिजली काट दी गई तथा परिवहन और संचार सेवाओं को भी ध्वस्त कर दिया गया। जगह जगह हड़ताल की गई।

कई जगह पर लोगों ने अंग्रेजी प्रशासन की चूलें हिला कर रख दी. गिरफ्तार किए गए नेताओं तथा कार्यकर्ताओं को जेल तोड़कर मुक्त करा लिया तथा वहाँ स्वतंत्र शासन स्थापित कर दिया। एक तो अंग्रेजों की शिकस्त द्वितीय विश्व युद्ध में पहले ही तय हो चुकी थी दूसरी ओर भारत छोड़ो आंदोलन उनके तमाम गलत मंसूबों पर पानी फेरने पर आमादा था. इतिहास गवाह है इस आंदोलन से अंग्रेज बुरी तरह बौखला गए। उन्होंने सैकड़ों प्रदर्शनकारियों और निर्दोष लोगों को गोली से उड़ा दिया तथा देशभर में एक लाख से अधिक लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बावजूद आंदोलन पूरे जोश के साथ चलता रहा लेकिन गिरफ्तारियों की वजह से कांग्रेस का समूचा नेतृत्व शेष दुनिया से लगभग तीन साल तक कटा रहा।

गाँधीजी ने स्वास्थ्य की बिगड़ी दशा को दरकिनार कर अपना आंदोलन जारी रखने के लिए 21 दिन की भूख हड़ताल की। 1944 में गाँधीजी का तबीयत बेहद बिगड़ जाने पर अंग्रेजों ने उन्हें रिहा कर दिया। बहरहाल अंग्रेजों ने हालात पर काबू पा लिया जिससे बहुत से राष्ट्रवादी अत्यंत निराश हुए। गाँधीजी और कांग्रेस को मोहम्मद अली जिन्ना, मुस्लिम लीग, वामपंथियों और अन्य विरोधियों की आलोचना का सामना करना पड़ा। फिर भी दो मत नहीं कि अगस्त क्रांति ने भारत की आजादी के स्वप्न को साकार करने में निर्णायक भूमिका अदा की.

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Tuesday, August 7, 2012

अपना देश - अपनी बात


पहचान   के  'आधार' से सरोकार की दरकार

डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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राजनांदगांव, छत्तीसगढ़. मो. 093010 54300


भोर हुई आँगन में, शुरू हुई उड़ान,

मिली हमें पहचान,

खुले नए द्वार, हमारा 'आधार'.

हर भारतवासी को पहचान पत्र और विशिष्ट पहचान नंबर देने की महत्वाकांक्षी परियोजना ‘आधार’ की शुरुआत महाराष्ट्र के नंदूरबार जिले के तेंबली गांव से हुई थी. वहाँ रंजना सोनवाने को 12 अंकों वाला पहला विशिष्ट पहचान नंबर (यूआईडी नंबर) दिया गया। यह नंबर लोगों को सशक्त करने की दिशा में एक अहम कदम है. इसका विकास में सभी लोगों को शामिल करना है. महसूस किया जा रहा है कि पुराने तौर-तरीकों और नीतियों के दम पर ऐसे किसी लक्ष्य तक पहुँचना संभव नहीं है. 'आधार' परियोजना के लिए बाकायदा जीवन ऊर्जा के मूल स्रोत सूरज और अंगूठे के निशान वाला प्रतीक चिन्ह भी जारी किया गया.

गौरतलब है कि सूचना का अधिकार, महात्मा गांधी नरेगा और शिक्षा का अधिकार जैसे कार्यक्रमों की तरहविकास को व्यापक और समुचित बनाने की दिशा में हर भारतवासी को पहचान का नया आधार देने का यह कदम उठाया गया है. समझा जा रहा है कि इससे व्यवस्था पारदर्शी बनाई जा सकेगी ताकि समय पर सहायता सही लोगों तक पहुँच सके.इस महत्वाकांक्षी परियोजना को आधुनिक भारत का प्रतीक और विभिन्न आर्थिक परियोजनाओं के लिए मजबूत आधार की तरह देखा जा रहा है।

दरअसल विशिष्ट पहचान के इस अभियान में देश के समग्र आर्थिक विकास के नव-संकल्प के बीज भी छुपे हैं, क्योंकि लोकतंत्र में 'लोक' की मौजूदगी के बगैर न तो लोक हित संभव है और न ही सुशासन के स्वप्न को साकार करना मुमकिन है. यदि कोई देशवासी अपनी पहचान के लिए ही भटकता रहेगा तो देश को दुनिया में नई पहचान आखिर क्यों कर मिलेगी ? लेकिन, काफी अरसे से यह भी महसूस किया जा रहा है कि जिस गति से जनता को इस पहचान से रूबरू करवाया जाना था, वह गति सतह से ऊपर उठ नहीं पा रही है, लिहाजा आधार पर अमल के सरोकार की दरकार पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है.

बड़ा काम - बड़े लाभ

इस विशाल परियोजना के निर्धारित लक्ष्य पर गौर करें तो वर्ष 2014 तक 60 करोड़ लोगों को इसके दायरे में लाने की योजना है. इस कार्ड का इस्तेमाल बैंक खाता खोलने, टेलीफोन कनेक्शन लेने जैसे कामों में पहचान के रूप में किया जा सकता है. देश के हर नागरिक को यूआईडी नंबर देने का ज़िम्मा इंफ़ोसिस के सह-संस्थापक श्री नंदन नीलेकणी की अध्यक्षता में गठित भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) को सौंपा गया है. भारत में आजादी के बाद कई महत्वपूर्ण अभियान शुरू किये गए जिनकी सफलता प्रायः जान जागृति और जन सहभागिता पर निर्भर रही है.लेकिन 'आधार' परियोजना को लेकर लोगों में अब तक वैसी जागरूकता नहीं दिख रही है जैसी किसी एक जिम्मेदार कदम के हमकदम होने के लिए ज़रूरी है. लोगों को समझना चाहिए कि यह योजना किस तरह बहुआयामी सुविधाओं के उपयोग और उपभोग के लिए उनकी राह आसान कर सकती है. लोग जानें कि इस योजना के तहत एक अरब से अधिक भारतीयों को एक विशिष्ट नंबर ( यूनीक आईडेंटिफ़िकेशन नंबर) दिया जाएगा.कार्ड का मक़सद है लोगों को पहचान देना, साथ ही उन लोगों की मदद करना जिन्हें सरकारी योजनाओं का फ़ायदा इस वजह से नहीं मिलता क्योंकि उनके पास अपनी पहचान साबित करने का कोई आधार नहीं होता है. 'आधार' कार्ड विभिन्न रजिस्ट्रार एजेंसियों के माध्यम से दिए जाएंगे. इसके लिए भविष्य में व्यापक प्रचार अभियान चलाये जाने की तैयारी की भी खबर है।

पहचान की चलित गवाही

आधार में रजिस्टर होने के बाद लोगों की बायोमेट्रिक पहचान यानी उंगलियों के निशान, आँखों की पुतली की छाप के साथ ही उनकी तस्वीर ली जा रही है. पूरी प्रक्रिया ख़त्म होने के बाद उन्हें एक एनरोलमेंट नंबर और इसके 20 से 30 दिनों के भीतर 'आधार' नंबर दिया जा रहा है. प्रक्रिया से जुड़ी शिकायतों के लिए भी एक केंद्र बनाये जाने की पहल की गयी है. भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के अध्यक्ष के मुताबिक वे बंजारों और यायावर आदिवासी जैसे भारतीयों को भी विशिष्ट पहचान पत्र दिलाना चाहते हैं, जिनके पास अपनी पहचान बताने के लिए कोई सरकारी दस्तावेज़ नहीं है. इसके लिए जानकारी हासिल करने के पहले तरीके में राशन कार्ड और रोज़गार कार्ड की तरह के सरकारी कागज़ात काम आएंगे.सत्यापन के लिए जानकारी हासिल करने में किसी ऐसे आदमी की गवाही भी उपयोगी है जो कहे कि वो उन्हें अच्छे से जानता है. इस पहचान पत्र के बाद भारत के एक हिस्से के आदमी की पहचान का सत्यापन भारत के दूसरे हिस्से में भी आसानी से हो जाएगा. ये 'मोबाइल पहचान पत्र' होगा. भारत के किसी भी कोने से किसी भी आदमी की पहचान तय करने के लिए महज़ फ़ोन कर के उसके कार्ड का क्रमांक बताना होगा और कम्पूटर के 'एस' या 'नो' ज़वाब मात्र से उसका सत्यापन हो जाएगा

इलेक्शन आईडी से अलग वजूद

समझा जा रहा है कि आधार पहचान पत्र शायद मतदाता परिचय पत्र की तरह ही होगा किन्तु जानकारी के अभाव में लोगों को ये तथ्य अभी स्पष्ट नहीं है कि चुनाव आयोग के मतदाता पहचान पत्र से अलग इस पहचान पत्र के लिए एक ही सॉफ्टवेयर इस्तेमाल किया जा रहा है. इसके लिए एक ही प्रक्रिया इस्तेमाल होगी और हर चीज़ की दो बार जाँच होगी. पहला कार्ड जो जारी हुआ है उसमें इस तकनीक का सफल प्रयोग जाहिर हो गया है. परन्तु, कोई संदेह नहीं कि अगले चार सालों में साठ करोड़ लोगों को पहचान नंबर मुहैया करना बेहद चुनौती पूर्ण कार्य होगा क्योंकि जैसे-जैसे दूर दराज़ के हिस्सों में पहचान कार्यकर्ता जाएँगे, उन्हें नई कठिनाइयों का सामना करना होगा।

हर भारतीय का अधिकार

यहाँ 'आधार' के विषय में कुछ जरूरी बातें जान लेने की ज़रुरत है। मसलन आधार के उपयोग की कोई कानूनी बाध्यता नहीं होगी.यह सिर्फ भारतीय नागरिकों तक सीमित नहीं है. यह हर उस व्यक्ति का अधिकार है जो भारत में रहता हो.आधार, भारत की नागरिकता का सबूत नहीं बल्कि केवल एक पहचान होगा। कोई भी व्यक्ति आधार की मांग कर सकता है. आधार किसी दीगर दस्तावेज़ जैसे राशन कार्ड, पासपोर्ट का स्थानापन्न नहीं है. यह सिर्फ बायोमेट्रिक और डेमोग्राफिक सूचना एकत्र करेगा. इसका सम्बन्ध जाति, धर्म या भाषा से नहीं है.इसके लिए जन्म तिथि भी एच्छिक है. न मालूम हो तो अनुमानित तिथि निकालने का प्रावधान किया गया है. .भारत के निवासियों के लिए इसके अपने बैंक खाते में भी उपयोग का विकल्प खुला होगा. पैन कार्ड में भी इसे मुद्रित करने की सहमति प्रदान कर दी गयी है।

तो लीजिए, अपनी पहचान के नए आधार के स्वागत के लिए जागरूक रहकर पहल से शुमार हो जाइए. 12 अंकों में साल के बारह महीने, कभी भी, कहीं भी बगैर किसी मशक्कत के खुद को 'प्रूव'करने की सहूलियत आपके साथ चलेगी.

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Monday, August 6, 2012

सुलगता सवाल


ई वेस्ट की अनदेखी पड़ सकती है भारी
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डॉ. चन्द्रकुमार जैन

राजनांदगाँव (छत्तीसगढ़)

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विकसित देशों के साथ विकासशील देशों की प्रतिस्पर्धा कोई नई बात नहीं है, किन्तु भारत को ऐसी प्रतिस्पर्धा का खामियाजा ई वेस्ट यानी इलेक्ट्रानिक कचरे की गंभीर समस्या के रूप में भुगतना पड़ेगा, इसकी शायद कल्पना भी नहीं की गयी थी. कई देशों ने अपने ई-वेस्ट के निबटारे के लिए भारत को स्थायी और सुविधाजनक अड्डा बना लिया है. दूसरी ओर भारत में इस समस्या से निदान का कोई ठोस प्रबंधन नहीं दिख रहा है.

अनियोजित और अव्यवस्थित ढंग से,सब तरफ चीजें रिसाइकिल कर, बाज़ार में बेधड़क खपाई जा रही हैं. समझा जा रहा है इस सिलसिले में क़ानून भी कुछ ख़ास नहीं कर पा रहा है. ई-वेस्ट की ग़लत रीसाइकलिंग के खतरों का विज्ञापन भी बेअसर मालूम पड़ रहा है, वरना समस्या इस कदर चिंताजनक नहीं होती.दरअसल हमारे देश में ई-वेस्ट को लेकर कभी गंभीर कदम उठाये ही नहीं गए, न ही उन्हें ठिकाने लगाने के कोई कारगर कदम उपाय किए गए. लिहाज़ा जहाँ-तहाँ ई-वेस्ट का ऐसा मंज़र देखा जा सकता है कि जैसे ये कोई मुद्दा ही नहीं है.


चोर दरवाजों से आता है ?
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आंकड़े कहते हैं कि हर साल भारत में 3,50,000 टन इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट जमा हो जाता है और 50,000 टन गैर कानूनी ढंग से आयात होता है. उन्हें यहाँ तक लाने के चोर दरवाजे बड़ी कुशलता से खोज लिए गए हैं. मसलन उन्हें स्क्रैप, बिजली के दोयम दर्जे के सामान एवं अन्य चीजों के रूप में भारत पहुँचाया जाता है . इस ई-वेस्ट का 90 प्रतिशत हिस्सा रिसाइकिल कर दिया जाता है, लेकिन यह सब अनियोजित तरीक़े से करना भारी पड़ता है.भारत में हर साल लाखों टन ई वेस्ट एकत्र होता है जिनमें से कोई पंद्रह प्रतिशत भाग ही सही तरह से रिसाइकिल हो पाता है. कहने की आवश्कता नहीं है की शेष ई वेस्ट खतरनाक ढंग से हमारी ज़िन्दगी में पहुँचता है जिसे ढोकर जीना हमारी नियति बन चुका है.

आखिर क्या है ये ई वेस्ट ?
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ई वेस्ट का साधारण अर्थ है खराब हो चुके बिजली या इलेक्ट्रानिक उपकरण जिसकी मरम्मत या दोबारा इस्तेमाल संभव न हो. इस श्रेणी में बेकार इलेक्ट्रिक वायर, पुराना रेडियो, ट्रांजिस्टर, फ्रिज, मोबाइल जैसी चीजें आती हैं. इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट अपनी सामान्य अवस्था में हानिकारक नहीं होता, जबकि इसे रिसाइकिल करने की प्रक्रिया में कई नुक़सान झेलने पड़ सकते हैं. किसी भी इलेक्ट्रिकल या इलेक्ट्रॉनिक उपकरण के अंदर कई तरह के तार, सर्किट, धातु , प्लास्टिक और अन्य तत्व होते हैं. अगर ई-वेस्ट का ग़लत तरीक़े से निपटारा किया जाए तो यह लोगों के स्वास्थ्य और वातावरण पर का़फी ग़लत असर करता है.


सही रिसाइक्लिंग जरूरी
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ई-वेस्ट को सही तरीक़े से रिसाइकिल करना एक बड़ी चुनौती है. लेकिन ई-वेस्ट से निपटाने का काम कबाड़ वालों के हाथ में है. इसके पीछे कारण भी स्पष्ट है. ई वेस्ट के सही रिसाइकिलिंग के लिए बड़ी पूंजी चाहिए और यह अनियोजित क्षेत्र के सीमित आर्थिक संसाधन वाले निर्माताओं और उत्पादकों के बस की बहार की बात है. यदि देश में लोगों को ई-वेस्ट के संग्रह और उसे निबटान के काम में लगाया जाए और बाद की प्रक्रिया औद्योगिक स्तर पर की जाये तो समस्या एक हद तक सुलझ सकती है.

ई वेस्ट का बढ़ता ग्राफ, लोगों के जीवन से खेलने का चिंताजनक उदाहरण है. अगर नई तकनीक अपनाकर छोटी लेकिन नियोजित ढंग से रीसाइकलिंग की जा सके तो भी बात बन सकती है. वातावरण को अशुद्द करके, लोगों को घुट-घुट कर जीने के लिए विवश करके इसी तरह

ई वेस्ट की गिरफ्त में समाज पिसता रहा तो आने वाला समय बड़ा विध्वंसक बन सकता है. निर्माता कंपनियों को भी चाहिए कि भी वे अपने प्रोडक्ट की प्रोसेसिंग का दायित्व स्वयं वहन करें. भारत में ई-वेस्ट रिसाइकिलिंग के सबसे बड़े अड्डे पीतमपुर, दिल्ली और मुरादाबाद हैं. इस सन्दर्भ में यह विचार भी मूर्त रूप होना चाहिए कि ई वेस्ट की वापसी के लिए निर्माता कम्पनियाँ तैयार रहें. नोएडा की तरह देश के अन्य शहरों में भी ई वेस्ट के रि प्रोसेसिंग के लिए अधिकारिक कम्पनियाँ खोली की जानी चाहिए, क्योंकि ई वेस्ट की मात्रा इतनी अधिक है कि उसे अधिक समय तक नज़रंदाज़ करना अपने हाथों अपनी कब्र खोदने के सामान है.

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Saturday, August 4, 2012

कागज़ वाली नाव की, बचपन वाली याद




बिन सूरज की भोर में,बूंदों की बरसात




सावन-भादों दे रहे, बरखा की सौगात



कहीं टूटती झोपड़ी, कहीं बाढ़ का जोर


सावन-भादों मास का, अजब-गजब ये दौर




कागज़ वाली नाव की, बचपन वाली याद


जी भर के वह भीगना,कहाँ रही वो बात



भीगे तन की बात कुछ,भीगे मन की और


बादल बरसे भूलते, दोनों अपना ठौर





रुनझुन-रुनझुन गा रहीं, बूँदें अपना राग


कहीं मिलन की है खुशी, कहीं है दिल में आग



गरम पकौड़े चाय की, चुस्की का आनंद


खाना- पीना भी बना, बरखा में एक छंद



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Friday, August 3, 2012

सचमुच विरल हैं सघन वन छत्तीसगढ़ के



डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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राजनांदगांव. मो.9301054300


जाने-माने हिंदी कवि अज्ञेय जी ने लिखा है -

जब कभी मैं

जंगलों में अकेले घूमता हूँ


मुझे लगता है


जहाँ मैं पेड़ों को देखता हूँ


वहाँ पेड़ मुझे भी देखते हैं.


वनों के प्रति कविता जैसा ऐसा ही सुन्दर भाव, संस्कृति, संपदा और संभावना की भूमि छत्तीसगढ़ में सहज विद्यमान है. यहाँ वनों का जीवन से गहरा नाता सर्वविदित है. जिस प्रकार 'धान का कटोरा' संज्ञा, छत्तीसगढ़ की अलग पहचान निर्मित करती है, उसी प्रकार हमारा यह प्रदेश वन-संपदा और वन-वैभव के विशेषण का प्रतीक भी है. याद रखना चाहिए कि वनों से छत्तीसगढ़ की राष्ट्रीय महत्ता और आंचलिक अस्मिता भी जुड़ी है और पर्यावरण व पर्यटन के कई पहलू इससे पल्लवित-पोषित हो रहे हैं.

यदि देखें तो छत्तीसगढ़ की वन संपदा और वन्य जीवों की प्रभावी मौजूदगी, वनों की विविधता और उसकी सुन्दरता ने हमारे प्रदेश की छवि अंतर्राष्ट्रीय मंचों तक पहुँचा दी है. यहाँ के सघन वन सचमुच विरल हैं. बाहर की दुनिया के अनेक कुप्रभावों से यदि छत्तीसगढ़ विशेष सन्दर्भों में सुरक्षित है तो उसके पीछे यहाँ के वनों का ही योगदान है. अटल, अगम हिमालय के सामान हमारे वन हमारे रक्षक भी हैं.

छत्तीसगढ़ का भौगिलिक स्वरूप, वनों की सघनता से आच्छादित है. इससे यहाँ की संस्कृति और लोक जीवन भी संरक्षित है. यदि यह कहा जाए की छत्तीसगढ़ की पुरातन गरिमा, यहाँ के वनों पर आश्रित है तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. राज्य के वनों से उसकी प्रगति का चोली दामन का सम्बन्ध है. वन यहाँ की आय के बड़े स्रोत हैं. वन-परिवेश और वन-धन को देखकर ही अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ, छत्तीसगढ़ को ऋण एवं अनुदान देने तत्पर रहती हैं. ऐसी संस्थाओं में विश्व बैंक भी शामिल है.

राज्य में वनों की महिमा और वानिकी के 150 वर्ष पूरे होने पर प्रारंभ किया गया हरियर छत्तीसगढ़ अभियान, नई इबारत लिख रहा है. प्रदेश को हरा-भरा बनाने का बीड़ा उठाया गया है, इससे नई आशाओं का नया सूर्य उदित होता दिख रहा है. हरियर छत्तीसगढ़ अभियान के तहत पूरे प्रदेश में लगभग 6 करोड़ 20 लाख पौधे रोपने का लक्ष्य रखा गया है. इसके लिए सभी विभागों को अलग-अलग लक्ष्य दिये गये. इसमें अकेले वन विभाग पूरे प्रदेश में सवा चार करोड़ वृक्षों का रोपण कराने के अभियान को गति दी और यह सिलसिला बाद के इन वर्षों में जारी है. यह प्रदेश में वन संपदा और उसकी विरासत से मिली प्रेरणा का ही प्रतिफल है कि प्रदेश को हरा भरा बनाने का क्रांतिकारी कदम उठाया गया है.

उल्लेखनीय है कि जैव-भौगोलिक विशिष्टता तथा जैव विविधता की दृष्टि से छत्तीसगढ़ एक अतुल्य राज्य है. यहाँ के वनों में अनगिन औषधीय महत्त्व के पौधे हैं जिनका बहुआयामी उपयोग आज तक शोध का विषय बना हुआ है. हर्बल छत्तीसगढ़ विशेषण हमारे प्रदेश के लिए नितांत उपयुक्त है. यह यहाँ के वनों की ही देन है. यहाँ 22  किस्म के विविध वन हैं. छत्तीसगढ़ का कुल क्षेत्रफल 1,35,194 वर्ग किलोमीटर है जिसके 59772.३८९ वर्ग कि. मी. क्षेत्र में वन हैं. स्पष्ट है कि प्रदेश का 44 .2 प्रतिशत भाग वनों की शोभा की कहानी कह रहा है.

यह हमारे प्रदेश का गौरव है कि वह भारत के वन क्षेत्र के लगभग 12 .26 प्रतिशत हिस्से पर अधिकार रखता है. परन्तु कोई संदेह नहीं कि अंधाधुंध विकास के सर्व व्यापी दौर में प्राकृतिक संसाधनों को जिस तरह नुकसान पंहुचा है उससे हमारा प्रदेश भी अछूता नहीं रहा. यही कारण है कि विगत कुछ वर्षों में यहाँ की वन संपदा प्रभावित हुई है, जिसे मूल वैभव के अनुरूप संजोने व संवारने के हर संभव प्रयत्न भी किए जा रहे हैं. यह बेशक एक उत्तरदायी कदम है. प्रदेश ने समझा है कि बेशुमार जैविक दबाव के कारण हमारे वनों का जीवन सिमट रहा है. 50  प्रतिशत वनों के सामने उनके विकृत होते रूपों को देखकर लगता है कि उनके अस्तित्व का संकट मुंह बाए खड़ा है. फिर भी, ये सुखद संकेत है कि एक तरफ उजाड़ हो रहे वनों की रक्षा के तो दूसरी ओर संरक्षित वनों को अधिक उन्नत बनाने के कार्यक्रम तेजी से चलाये जा रहे हैं.

कौन नहीं जानता कि छत्तीसगढ़ के वनों का वैभव, साल और सागौन जैसे मूल्यवान वृक्षों से सुसज्जित है. दीगर वृक्षों में बीजा. साजा, धरवा, महुआ, तेंदू, आंवला, कर्रा और बांस का भी अहम स्थान है. यहाँ के वनों को विधिक आधार पर तीन वर्गों में विभाजित किया गया है, जिनमें आरक्षित, संरक्षित-सीमांकित तथा संरक्षित असीमान्कित वन क्षेत्र सम्मिलित हैं. इन वन वृत्तों में जगदलपुर, दुर्ग, कांकेर, बिलासपुर, रायपुर, सरगुजा शामिल हैं. एक अन्य विभाजन के अनुसार प्रबंधन की दृष्टि से छत्तीसगढ़ के वनों को चार भागों में बाँटा गया है. ये हैं - सागौन, साल, बांस और विविध वन, इन वनों के घनत्व में भी विविधता है. बस्तर प्रदेश के सबसे अधिक घनत्व वाला वन क्षेत्र है. इसी तरह जशपुर, सरगुजा, रायगढ़, धमतरी जिलों को भी घने वन क्षेत्रों वाले जिले का दर्ज़ा प्राप्त है.

साल और सागौन छत्तीसगढ़ में जंगल के स्वर्ण के समान हैं. इसमें भी साल का प्रमुख स्थान है. यही कारण है की साल को हमारे यहाँ राज्य वृक्ष का दर्ज़ा मिला है. उधर सागौन के नैसर्गिक वन राजनांदगाँव, उत्तर रायपुर, भानुप्रतापपुर एवं नारायणपुर वन मंडलों में मिलते हैं. प्रदेश में मिश्रित वनों में साजा, बीजा, धावड़ा, हल्दू, अंजन, खम्हार, तेंदू, महुआ. हर्रा, बहेड़ा, आंवला, पलसा,, बाँस, सवाई आदि उपलब्ध हैं. इन वनों में ग्राउंड फ्लोरा के रूप में अनेक औषधीय प्रजातियाँ प्राप्त हैं. इस प्रकार, छत्तीसगढ़ विपुल जैव विविधता का क्षेत्र है.यहाँ उपलब्ध बाँस को लघु वनोपज की श्रेणी में रखा गया है. बाँस प्रदेश के लगभग सभी क्षेत्रों में पाया जाता है. बताया जाता है कि सिर्फ बस्तर में बाँस की अस्सी से अधिक प्रजातियाँ मिलती हैं.

छत्तीसगढ़ में वन प्राकृतिक संपदा के साथ साथ पर्यावरण और जीवनोपयोगी उत्पादों के कारण अमूल्य निधि भी हैं. हमारी जीवन ऊर्जा को संरक्षित रखने और प्रदेश की खुश्हाकी के नए-नए द्वार खोलने में यहाँ के वनों की बड़ी भूमिका है. इससे निकटवर्ती राज्यों का सम्बन्ध भी जुड़ा है. छतीसगढ़ की नदियों से जल ग्रहण की सुविधा के कारण ये वन राष्ट्रीय महत्त्व के बन पड़े हैं. वन संपदा के इस महत्त्व को ध्यान में रखकर ही में वन-नीति  बनाई गई. इस दृष्टि से हमारा प्रदेश, भारत का संभवतः पहला राज्य है जिसने वन प्रबंधन को एक नई दिशा देने की ठोस पहल की है. सभी स्टारों पर मूल्यांकन और अनुश्रवण के माध्यम से वनों की सुरक्षा तथा वन संपदा के विकास की कारगर पहल की गयी है. मानव संसाधन विकास और प्रसिक्षण में माध्यम से प्रदेश का वन विभाग वन वैभव की संवृद्धि का सराहनीय प्रयास कर रहा है. इसमें जन सहयोग की अधिक उम्मीद स्वाभाविक है. बिगड़े वनों का सुधार, बाँस वनों का उद्धार, पर्यावरण वानिकी, सड़क निर्माण, पौध प्रदाय योजना आदि इस दिशा उठाए गए अन्य अहम् कदम हैं.

वन संपदा के रूप में छत्तीसगढ़ में मुख्य उत्पाद काष्ठ और जलाऊ लकड़ी है. इनमें इमारती लकड़ी वाली प्रजातियाँ भी शामिल हैं. वनोपज अधिनियम के माध्यान से प्रदेश में काष्ठ के व्यापार का राष्ट्रेय्करण किया गया है. वन संपदा शिल्क कला के प्रोत्साहन., विप्नान और प्रदेश की विश्व स्तरीय पहचान निर्मित करने में भी महत्त्व पूर्ण है. यहाँ साल, सागौन. बीजा, साजा, शीशम और खैर आदि राष्ट्रीय प्रजातियाँ हैं. मुख्य वनोपज के साथ साथ लघु वनोपज उत्पादन और संग्रहण में भी प्रदेश पीछे नहीं है. बॉस, तेंदूपत्ता, गोंड आदि के संग्रहण और विप्नान में प्रदेश की वन नीति तथा लघु वनोपज संघ की संयुक्त सकारात्मक भूमिका है.उन्हें चरण पादुकाओं का वितरण किया गया. अनेक नए उपायों से समय समय पर प्रोत्साहन भी दिया जता है. समूह जीवन बीमा योजना भी लागू है. वन संपदा के संरक्षण हेतु महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ाई जा रही है. बिगड़े बाँस वनों के सुधार की दिशा में भी अभिनव प्रयास किये जा रहे हैं. ग्राम विकास कार्यक्रम, हरियाली प्रसार योजना, नदी तट वृक्षारोपण कार्यक्रम, पथ वृक्षारोपण, वन मार्गों पर रपटा अवं पुलिया निर्माण, बो डीजल के लिए रतनजोत रोपण जैसे अनेक कार्यक्रम प्रदेश की वन संपदा के महत्त्व और विकास की जरूरत के जीवंत साक्ष्य है.

हम सब छत्तीसगढ़ वासियों का यह पुनीत कर्तव्य है कि हम अपनी वन संपदा को नष्ट होने से बचाएं. उसके विकास के क़दमों के हमकदम बनें. माटी महतारी का ऋण चुकाने के लिए जल जमीन और वन की रक्षा का संकल्प लें और हर संभव सहयोग भी दें विश्वसनीय छत्तीसगढ़, सबके विश्वस्त सहयोग पर ही अपनी वास्तविक ऊंचाई प्राप्त कर सकेगा.

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