Saturday, September 26, 2009

दिल के सब ज़ज़्बात लिख.

तू भी मेरी ही तरह कुछ अपने दिल की बात लिख

दिन अगर है दिन ही लिख गर रात है तो रात लिख

मैं समझता हूँ मोहब्बत का हर एक ग़म और फरेब

मुझको अपनी दास्तां लिख दिल के सब ज़ज़्बात लिख

क़ैद हैं तेरे भी दिल में सैकड़ों ग़ज़लें कहीं

आ कलम क़ागज़ उठा लिखने की कर शुरूआत लिख

एक आँसू ज़िंदगी है एक आँसू मौत है

ज़िंदगी की बूँद लिख और मौत की बरसात लिख

यूँ न कर दुनिया की बातें दर्द को होंठों पे ला

दिल में है ग़म का समंदर तू उसी की बात लिख

तू मुझे अच्छा बना मेरी बुराई कह मुझे

दोस्त है तो दे मुझे ऐसी कोई सौगात लिख

आज भी मातम जहाँ है ज़िंदगी वीरान है

जा उन्हीं के झोपड़ों में उनके भी हालात लिख

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श्री राजमोहन चौहान की ग़ज़ल साभार प्रस्तुत

Tuesday, September 22, 2009

इंसान में ही नूर ख़ुद पैदा नहीं होता...!


जो जैसा सोचते करते हैं वैसा कुछ नहीं होता

अगर होता भी है तो उनके हक़ में कुछ नहीं होता

हैं दौलत के भंवर में डूबने तैयार सब लेकिन

कभी नदी नहीं होती कभी मौका नहीं होता

न गलती है न धोखा है सरासर ये हिमाकत है

यों सब कुछ जानकर हठ पालना धोखा नहीं होता

बढ़ाती जा रही है पैठ नफरत दिलों तक लेकिन

मुश्किल ये है खुल के सभी का मिलना नहीं होता

दिखाएँगे कहाँ तक रोशनी ये चाँद-सूरज भी

अगर इंसान में ही नूर ख़ुद पैदा नहीं होता

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श्री महेंद्र सिंह की ग़ज़ल साभार प्रस्तुत

Sunday, September 20, 2009

हम वो नहीं हैं जिन्हें रास्ता चलाता है...!


समन्दरों में मुआफिक हवा चलाता है

जहाज ख़ुद नहीं चलते ख़ुदा चलाता है

ये जा के मील के पत्थर पे कोई लिख आए

वो हम नहीं हैं जिन्हें रास्ता चलाता है

वो पाँच वक़्त नज़र आता है नमाज़ों में

मगर सुना है कि शब को जुआ चलाता है

ये लोग पाँव नहीं जेहन से अपाहिज हैं

उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है

हम अपने बूढ़े चिरागों पे ख़ूब इतराए

और उसको भूल गए जो हवा चलाता है

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राहत इन्दौरी साहब की एक और ग़ज़ल साभार

Friday, September 18, 2009

ये नदी कैसे पार की जाए....!

दोस्ती जब किसी से की जाए
दुश्मनों की भी राय ली जाए
मौत का ज़हर है फिज़ाओं में
अब कहाँ जा के साँस ली जाए
बस इसी सोच में हूँ डूबा हुआ
ये नदी कैसे पार की जाए
मेरे माज़ी के ज़ख्म भरने लगे
आज फ़िर कोई भूल की जाए
बोतलें खोल के तो पी बरसों
आज दिल खोल के भी पी जाए
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राहत इन्दौरी साहब की ग़ज़ल साभार.

Wednesday, September 16, 2009

ऐसे-वैसों को मुँह मत लगाया करो...!


उँगलियों से यूँ न सब उठाया करो

खर्च करने से पहले कमाया करो

ज़िंदगी क्या है ख़ुद ही समझ जाओगे

बारिशों में पतंगें उड़ाया करो

दोस्तों से मुलाक़ात के नाम पर

नीम की पत्तियों को चबाया करो

शाम के बाद जब तुम सहर देख लो

कुछ फ़कीरों को खाना खिलाया करो

अपने सीने में दो गज ज़मीं बांधकर

आसमानों का ज़र्फ़ आज़माया करो

चाँद-सूरज कहाँ, अपनी मंज़िल कहाँ

ऐसे वैसों को मुँह मत लगाया करो

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राहत इन्दौरी साहब की ग़ज़ल साभार.

Tuesday, September 15, 2009

दिनचर्या.


मेरे कैलेंडर की
चिड़िया का
एक पंख
रोजाना टूट जाता है
और मैं
उसे सहेज कर
डायरी में छुपा लेता हूँ
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सुरेश ऋतुपर्ण

Tuesday, September 8, 2009

ज़ोरे क़लम का अंदाजा...!

नहीं है उसको मेरे रंजो ग़म का अंदाज़ा
बिखर न जाए मेरी ज़िंदगी का शीराज़ा

अमीरे शहर बनाया था जिस सितमगर को
उसी ने बंद किया मेरे घर का दरवाज़ा

गुज़र रही है जो मुझ पर किसी को क्या मालूम
जो ज़ख्म उसने दिए थे हैं आज तक ताज़ा

गुरेज़ करते हैं सब उसकी मेज़बानी से
भुगत रहा है वो अपने किए का खमियाज़ा

है तंग क़ाफिया इस बहर में ग़ज़ल के लिए
दिखाता वरना मैं ज़ोरे क़लम का अंदाज़ा
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अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी की ग़ज़ल साभार प्रस्तुत

Sunday, September 6, 2009

हम चल रहे हैं....!

जब तारों की रोशनी का
स्रोत सूख जाएगा
हम देंगे रोशनी रातों को
जब हवा पत्थर में बदल जायेगी
हम हवा को चलाएंगे
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ज्वीग्न्येव हर्बर्त

Friday, September 4, 2009

अपना कार्टून....!


अपना कार्टून देखते हुए
उसे याद आया
यह उसका कल शाम साढ़े चार बजे वाला चेहरा है

उस वक़्त एक जन सभा को संबोधित करते हुए
उसकी आँखें एक लोमड़ी की तरह
चमक रही थीं
और जब उसने कहा, 'प्यारे भाइयों'
तब उसकी जीभ काफी बाहर
निकल आयी थी
जिसे देख पाया सिर्फ़ एक कार्टूनिस्ट

जनसभा को संबोधित करने के बाद
उसे एक खाल में घुस जाना पड़ा
खाल से बाहर वह गर्मजोशी से
मुक्के भांज रहा था
खाल के भीतर
थर-थर काँप रही थी उसकी आत्मा

फ़िर उस खाल से निकला
और दूसरी में घुस गया
रात के दस बजे तक
उसने चार खालें बदली थीं

कार्टून देखते हुए
उसने अपने असली चेहरे के बारे में सोचा
दिमाग पर जोर देकर
याद करने की कोशिश की
उसका असली चेहरा कहाँ है
कब और कहाँ उसने
अपना चेहरा उतार कर रख दिया था

वह व्यग्र हो उठा
और जोर-जोर से
अपना नाम पुकारने लगा

तभी अचानक उसे ख़याल आया
कहीं उसे देख तो नहीं रहीं
यहाँ की कार्टूनिस्ट आँखें


उसने अपने को संभाला
उसने उसी तरह मुस्कुराने की कोशिश की
जैसे कल रात साढ़े नौ बजे मुस्कुराया था
एक प्रीतभोज में।
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संजय कुंदन की कविता साभार प्रस्तुत.

Thursday, September 3, 2009

छवि....!


इस दुनिया की
जो छवि है मेरे भीतर
उसमें एक स्त्री के वक्ष की तरह
थामे हुए हैं उसे
नन्हे शिशु हाथ।
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प्रेम रंजन अनिमेष की पंक्तियाँ साभार.

Wednesday, September 2, 2009

है आसमान किसके लिए...?

नहीं ज़हान तो फ़िर बागबान किसके लिए
मैं ज़िंदगी की लिखूं दास्तान किसके लिए
मैं पूछता रहा हर एक बंद खिड़की से
खड़ा हुआ है ये खाली मकान किसके लिए
गरीब लोग इसे ओढ़ते-बिछाते हैं
तू ये न पूछ कि है आसमान किसके लिए
हरेक शख्स मेरा दोस्त है यहाँ लोगों
मैं सोचता हूँ कि खोलूँ दूकान किसके लिए
ये राज़ जा के बताऊंगा मैं परिंदों को
बन रहा है वो तीरों-कमान किसके लिए
ऐ चश्मदीद गवाह बस यही बता मुझको
बदल रहा है तू अपना बयान किसके लिए ===============================
ज्ञानप्रकाश विवेक की ग़ज़ल देशबंधु से साभार प्रस्तुत

Tuesday, September 1, 2009

हँसी में रुदन...रुदन में हँसी !

हँसी में रुदन के आँसू मुझे दिखने लगे हैं

रुदन के आँसुओं पर अब हँसी आने लगी है

बनें सौ बार रोने के भले हालात तो क्या

हजारों सबब हैं बरबस ख़ुशी छाने लगी है।

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