Saturday, September 15, 2018

चिंतन 
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चिंतन का दैनिक जीवन और जीवन के विकास में बड़ा महत्त्व है। मन की गति पर नियंत्रण ही चिंतन की सही दिशा का आधार है। मन के तीन गुण होते हैं-सतोगुण, तमोगुण और रजोगुण। मन में जिस वक्त जिस गुण की प्रधानता होती है, हमारे व्यक्तित्व पर उस समय उसी तत्व की अमिट छाप परिलक्षित होती है। मन में जैैसा चिन्तन चल रहा होता है, हमारी क्रियाएं वैसी ही होती हैं। ये क्रियाएं ही हमारी आदतों का निर्माण करती हैं और आदतों के समूह से मनुष्य का स्वभाव बनता है। यह स्वभाव ही हमारे व्यक्तित्व का दर्पण है। व्यक्तित्व ही हमारे जीवन की पहचान है। 

इसी तरह शरीर को कोई नश्वर कह  ही कहे, पर नश्वर शरीर में अनश्वर का बसेरा है। शरीर को कोई चाहे माटी ही समझे, पर माटी के शरीर में ही अमृत का वास है। हम यह न भूलें कि भले ही शरीर किसी के लिए सिर्फ माटी हो, हमारे लिए तो वह मंगल कलश के समान है। बूँद का सीप तक पहुँच जाना ही उसका सौभाग्य है, उसी तरह शरीर और मन का रूपांतरण भी मनुष्य का सौभाग्य बन जाता है। हम प्रतिदिन कुछ पल विचार करें तो माटी के पुतले को भी जीवंत सिद्ध कर  सकते हैं। हम अपनी वास्तविक शक्ति को पहचानें। शरीर के धरातल पर उगते सूरज की किरणों का अनुभव करें। इस सत्य पर भरोसा रखें कि जैसा आप सोचेंगे, वैसी गति होगी। जैसी गति, वैसी प्रगति। जैसा संकल्प, वैसा कर्म और जैसा कर्म, वैसा परिणाम मिलेगा। 

दूसरी तरफ हम धयान दें कि हमारा मन अनन्त शक्ति का भण्डार है। मन एक सीढ़ी की तरह है जो हमें सफलता के शिखर पर पहुंचा सकता है और पतन के गर्त में भी पहुंचा सकती है। मन की शक्तियों को लक्ष्य पर लगाया जाए तो सफलता अवश्य मिलती है। इसलिए आवश्यकता मन को एकाग्र करने की है। 
मन की तन्मयता कल्याण का अचूक अस्त्र है। 

महात्मा गौतम बुद्घ ने अपने मन की सारी शक्तियों को करूणा पर केन्द्रित कर दिया, जबकि भगवान महावीर स्वामी ने अपने मन की सारी शक्तियों को अहिंसा पर केन्द्रित कर दिया। दोनों महात्माओं ने करूणा और अहिंसा को विस्तार दिया तथा इनका ही प्रचार-प्रसार किया और मोक्ष को प्राप्त हो गये। यह सब मन की एकाग्रत का फल है। ध्यान रहे, मन की एकाग्रता में भी पवित्रता का होना नितान्त आवश्यक है क्योंकि एकाग्र तो बगुला भी होता है किंतु उसके मन में पवित्रता नहीं होती है वह मछली को निगलने की ताक में रहता है। एकाग्रता और पवित्रता का उदाहरण देखना है तो पपीहे की देखिये, जो स्वाति नक्षत्र की बूंद के लिए ध्यानस्थ रहता है।

परन्तु मन है कि भटकने से बाज़ नहीं आता है। उसे धन चाहिए, यश चाहिए, तृप्ति चाहिए। तीनों मिल जाएँ तो भी और अधिक चाहिए। लेकिन याद रहे कि घातक न धन है, न यश, न ही काम। घातक है इनका अँधा प्रवाह, अंधी चाह और अंधा उपभोग। इन पर अंकुश लग सकता है अगर मन पर नियंत्रण हो जाए। पानी पर तैरते हुए दीप कितने प्यारे लगते हैं। भीतर के समंदर में भी न जाने कितने शुभ विचारों के नन्हें-नन्हें दीप तैर रहे हैं। जरूरत है कि हम कभी अपने भीतर भी उतर कर देखें। 

अपने दिल में डूबकर पा ले सुराज ज़िंदगी 
तू अगर मेरा नहीं बनता, न बन अपना तो बन। 

अपने मन में डूबकर जब हम देखते हैं तो पाते हैं हम वही हैं जो हमने स्वयं को बनाया है। हमें वही मिला है जो हमने कमाया है। विश्व विख्यात वौज्ञानिक आइंस्टाइन ने समय सापेक्षता का सिद्धांत दिया । उन्होंने कहा दोलन को आप जिस स्थान से छोड़ोगे दोलन लौटकर उसी स्थान पर आता है। यही दशा मानवीय व्यवहार की है अर्थात हम जैसा व्यवहार संसार के साथ करेंगे लौटकर वही व्यवहार हमारे पास आता है। यूरोप के प्रसिद्द दार्शनिक हीगल ने भी 'क्रिया से प्रतिक्रिया' का का दर्शन समझाया था। अभिप्राय यह है कि 'जैसा बोयेंगे ,वैसा ही काटेंगे । 

हम कभी न भूलें कि मानवीय व्यवहार का आधार वाणी है और वाणी का आधार मन है। मन में उठने वाली तरंगों को शब्दों का रूप वाणी ही देती है। वाणी का मूर्त रूप ही हमारा व्यवहार बनता है। भाव यह है कि जैसा मन होगा, वैसी वाणी होगी, और जैसी वाणी होगी, व्यवहार वैसा ही परिलक्षित होगा। हम विचार और मन के तिलिस्म और संबंधों को समझने का प्रयास करें। शांत मन रखकर हम हर समस्या का समाधान प्राप्त कर सकते हैं। 

हम अपने मन को इस योग्य बना लें कि वह खुद ऐलान कर दे कि निराश मत हो, जीवन में बाधाएं तो आएंगी ही। जैसे सागर के जल से लहरों को अलग नहीं किया जा सकता है, ठीक इसी प्रकार जीवन से समस्याओं को दूर नहीं किया जा सकता है। इनसे तो जूझना ही पड़ता है। पानी की तरह रास्ता ढूंढऩा पड़ता है, और यह निश्चित है कि हर समस्या का समाधान है बशर्ते कि मनुष्य हिम्मत और विवेक से काम ले। 

जीवन में छोटी अथवा बड़ी बाधा हमारे हमारी हिम्मत की परीक्षा लेने आती है। सोने को भी अग्नि में परीक्षा देनी होती है, तभी वह कुंदन बनता है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य महान तभी बनता है, जब वह बाधाओं की भट्टियों में तपता है। संसार के सभी महापुरूष अवश्य तपे हैं तभी उनका जीवन निखरा है। फूल को पत्ते कितना भी छिपा लें, उसकी खुशबू को कोई छिपा नहीं सकता। जो इरादे का धनी होता है, उसे मंजिल-ए-मकसूद से कोई रोक नहीं सकता।

जीवन का मूल्य मृत्यु से नहीं चुकता। जीवन का मूल्य जीवन से ही पूरा होता है। हम जीवन के प्रति जितने आशावान होंगे, जीवन हममें उतना ही विश्वास भरेगा। 
जीवन पेड़ से टूटे हुए पत्ते की तरह नहीं कि पवन जहां ले जाए उड़ता चले,  वह कागज की नाव भी नहीं है कि लहरें अपने साथ बहने के लिए मज़बूर कर दें।  जीवन मन की लगाम कसकर, शरीर, विचार और भाव की योग साधना का अपूर्व अवसर है। इस अवसर को कभी खोना नहीं है।  

हम जीवन पर अपनी पकड़ रहते ही तय कर लें कि हमारे लिए योग्य क्या है और अयोग्य क्या है ? हम अनुचित का चिंतन बंद कर दें। अनावश्यक को पीछे छोड़ दें। उन्हें साफ़ शब्दों में पूरी शक्ति से कह दें कि हमें उनकी कोई ज़रुरत नहीं है। फिर पूरा ध्यान अपने काम में लगाएं और काम के दौरान सिर्फ काम करें, उस पर चिंतन करके काम में बाधा पैदा न करें। परिणाम की चिंता भी छोड़ दें। अपने प्रयास पर पूरा भरोसा रखें। 

हम हमेशा याद रखें कि  जहां चाह, वहां राह। पानी को बाधा रोकती है, किंतु एक दिन वह भी आता है कि पानी बाधा के सिर के ऊपर से बहता है, बाधा का नामोनिशान मिटा देता है। फिर हम हिम्मत क्यों निराशा में मन को डुबोएँ ? 
आखिर क्यों मायूस होकर चुचाप बैठ जाएँ ? नहीं, आज और अभी उठने, चलने और आगे बढ़ने का संकल्प करें। उपनिषद के इन शब्दों को याद रखें - उतिष्ठं जाग्रत: चरैवेति-चरैवेति।

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