Friday, June 20, 2008

हीरा...हीरा है !


फूल, फूल है आँखों में बस जाता है
शूल, शूल है पाँवों में गड़ जाता है
काँच, काँच है बेशक चमकेगा लेकिन
जो हीरा है,मुकुट-मणि बन जाता है
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8 comments:

रंजू भाटिया said...

सुंदर भाव

Arun Arora said...

वाह वाह

pallavi trivedi said...

ati sundar...

डॉ .अनुराग said...

वाह वाह

राजीव रंजन प्रसाद said...

काँच, काँच है बेशक चमकेगा लेकिन
जो हीरा है,मुकुट-मणि बन जाता है

वाह चंद्र जी, लेकिन आज कल काँच और हीरे का अंतर मिटने लगा है..
.

***राजीव रंजन प्रसाद

www.rajeevnhpc.blogspot.com

अमिताभ मीत said...

सही है डॉ साहब. बात तो पते की है.

नीरज गोस्वामी said...

"जिसको बाहर है ढूंढता फिरता
वो ही हीरा तेरी खदान में है"
बहुत छोटी लेकिन गहरी रचना...आप आप ही हैं..लेखन में भी और व्यक्तित्व में भी...
नीरज

Dr. Chandra Kumar Jain said...

आभार आप सब का.
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डा.चन्द्रकुमार जैन