मन का आँगन देखो प्रमुदित
उन्नत और निहाल हो गया !
लो बसंत आया अनुशासन
मन का एक सवाल हो गया !
बौराई अमराई, धरती धन्य
सगाई को आतुर है
आए हैं ऋतुराज लाज में
टेसू जैसा गाल हो गया !
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अगर मिल जाए
पाँवों को उड़ान
अगर मिल जाए
दूर न होगा शिखर
कभी जीवन में
संकल्पों को जान
अगर मिल जाए
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मंज़र अक़्सर मिलते हैं पर
सूने घर में रोने वाले
मेरे सपनों में आते हैं
अपनी ही दुनिया में खोए
खुदगर्ज़ मिले अनगिन लेकिन
खो बैठे जो अपनी दुनिया
वो मुझको रोज़ बुलाते हैं
इस पार रुकूँ कैसे मैं मन !
उस पार जो जीवन ठहरा है
मैं उनकी गति बन जाऊँ जो
थककर पथ पर रुक जाते हैं...!
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