Wednesday, October 6, 2010

जब से गुलाब उसने रखा मेरे घाव पर...!

जबसे गुलाब उसने रखा मेरे घाव पर
देने लगा हूँ ध्यान बहुत रख-रखाव पर

झुलसी हुई हैं उंगलियाँ इस बात की गवाह
लिक्खा हैं मैंने तब्सिरा ग़म के अलाव पर

कैसी सियासतें हैं कि जुगनू निकल पड़े
सूरज अभी तो लौटा नहीं है पड़ाव पर

उसके लिए अभी से न क्यों मर्सिया पढ़ें
जाएगा कितनी दूर वो कागज़ की नाव पर

पैरों तले था आस का साहिल फिसल गया
हमने नज़र रखी थी नदी के बहाव पर
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सलीम अख्तर की ग़ज़ल साभार प्रस्तुत

4 comments:

Udan Tashtari said...

वाह भाई, बहुत खूब...आजकल कम दिख रहे हैं आप?

हेमन्‍त वैष्‍णव said...

नारी कमजोर नहीं झुठला दिया अबला की परिभाषा
सियासत चला रहा है सरदार जी मैडम की दबाव पर

अजित वडनेरकर said...

उसके लिए अभी से न क्यों मर्सिया पढ़ें
जाएगा कितनी दूर वो कागज़ की नाव पर

ये भी खूब आशावाद है???

शरद कोकास said...

यह सलीम अख़्तर साहब गोन्दिया वाले हैं क्या ?