डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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मो. 9301054300
घटना है वर्ष १९६० की. स्थान था यूरोप का भव्य ऐतिहासिक नगर तथा इटली की राजधानी रोम। सारे विश्व की निगाहें २५ अगस्त से ११ सितंबर तक होने वाले ओलंपिक खेलों पर टिकी हुई थीं। इन्हीं ओलंपिक खेलों में एक बीस वर्षीय अश्वेत बालिका भी भाग ले रही थी. वह इतनी तेज़ दौड़ी, इतनी तेज़ दौड़ी कि १९६० के ओलंपिक मुक़ाबलों में तीन स्वर्ण पदक जीत कर दुनिया की सबसे तेज़ धाविका बन गई.
रोम ओलंपिक में लोग ८३ देशों के ५३४६ खिलाड़ियों में इस बीस वर्षीय बालिका का असाधारण पराक्रम देखने के लिए इसलिए उत्सुक नहीं थे कि विल्मा रुडोल्फ नामक यह बालिका अश्वेत थी अपितु यह वह बालिका थी जिसे चार वर्ष की आयु में डबल निमोनिया और काला बुखार होने से पोलियो हो गया और फलस्वरूप उसे पैरों में ब्रेस पहननी पड़ी। विल्मा रुडोल्फ़ ग्यारह वर्ष की उम्र तक चल-फिर भी नहीं सकती थी लेकिन उसने एक सपना पाल रखा था कि उसे दुनिया की सबसे तेज़ धाविका बनना है। उस सपने को यथार्थ में परिवर्तित होता देखने वे लिए ही इतने उत्सुक थे पूरी दुनिया वे लोग और खेल-प्रेमी.
डॉक्टर के मना करने के बावजूद विल्मा रुडोल्फ़ ने अपने पैरों की ब्रेस उतार फेंकी और स्वयं को मानसिक रूप से तैयार कर अभ्यास में जुट गई. अपने सपने को मन में प्रगाढ़ किए हुए वह निरंतर अभ्यास करती रही. उसने अपने आत्मविश्वास को इतना ऊँचा कर लिया कि असंभव-सी बात पूरी कर दिखलाई. एक साथ तीन स्वर्ण पदक हासिल कर दिखाए। सच यदि व्यक्ति में पूर्ण आत्मविश्वास है तो शारीरिक विकलांगता भी उसकी राह में बाधा नहीं बन सकती.
लेखक सीताराम गुप्ता ने सच्ची घटना पर आधारित इस लघु कथा में वैसे तो हौसले की जीत की एक प्रचलित सी चित्रकारी की है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसा साहस, ऐसा जीवट, कभी घुटने नहीं टेकने वाली ऎसी लगन इस दुनिया में कोई आम बात भी नहीं है. कोई बड़े दिल का व्यक्ति ही परमात्मा का ऋण चुकाने के लिए, अपनी सारी सीमाओं, समस्त अभावों को ताक पर रखकर इस तरह प्रदर्शन कर दिखाता है जैसा रुडोल्फ ने किया. वरना प्रकृति की मार या किसी दुर्घटना का शिकार होने के बाद तो अक्सर यही देखने में आता है कि इंसान खुद को दुनिया वालों से बिलकुल खपा सा जीने लगता है. दरअसल ज़िन्दगी में, अगर गहराई में जाकर समझने की कोशिश करें तो दर्द सचमुच बड़े नसीब वालों के हिस्से में आता है. इसे राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर जी ने इस ख़याल को बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति दी हैं. उनकी पंक्तियाँ एक बार पढ़िए तो सही -
ह्रदय अगर छोटा हो
तो दुःख उसमें नहीं समाएगा
और दर्द,
दस्तक दिए बिना ही लौट जाएगा.
टीस उसे उठती है
जिसका भाग्य खुलता है,
वेदना गोद में उठाकर
सबको निहाल नहीं करती
जिसका पुण्य प्रबल होता है
वही अपने आँसुओं से धुलता है.
तो है न यह पते कि बात ? वास्तव में इस दुनिया में हौसले की हार कभी नहीं होती. सबसे बड़ी बात है जो जैसा है, जहाँ पर है, जिस हालात में भी है, वहाँ से एक कदम आगे बढ़ने, कुछ नया, कुछ अलग कर दिखाने के लिए वह तैयार है या नहीं ? शिकस्त कोशिश की कभी नहीं होती. हर अगर होती भी है तो इंसान की इस सोच के कारण कि वह चुक गया है. जबकि देखा जाये तो बुरे से बुरे दिन गुज़ार रहे आदमी के लिए भी कुछ न कुछ अच्छा कर दिखाने की संभावना हमेशा जीवित रहती है.
आइये, कुछ पल के लिए यदि आप खुद को सुखी या समर्थ नहीं मानते हैं तो कुछ ऐसे हालातों की कल्पना करें जिन्हें आप अक्सर नज़रंदाज़ कर दिया करते हैं. उदाहरण के लिए
अगर बारिश में आपको घर से निकलने में डर लग रहा हो तो उस व्यक्ति के विषय में आप क्या कहना चाहेंगे जो मात्र दो वर्ष के अपने कलेजे के टुकड़े को भारी बाढ़ के बीच खुद लगभग गले तक
नदी के पानी में डूबे रहकर भी उसे अपने सिर पर एक टोकरी में रखे हुए किनारे तक पहुँचने की हरसंभव कोशिश कर रहा हो ? इसी तरह जब कभी आपको लगे की आपकी तनख्वाह कम है या आमदनी पर्याप्त नहीं है तब पल भर के लिए उस गरीब बच्चे के बारे में सोचें जिसे उसके माँ-बाप का अता-पता नहीं है और जो अपने पावों से लाचार भी है, उस पर भी वह पूरी हिम्मत से घिसट-घिसट कर ही सही, लेकिन मदद की गुहार लेकर आप जैसे कई कई भाग्यवान लोगों तक पहुँचने से नहीं कतराता.
ठहरिये, एक और सीन देखिये. फ़र्ज़ कीजिए कि आप किन्हीं कारणों से जिंदगी की जंग अब और लड़ने के लिए तैयार नहीं है यानी मैदान छोड़ देने में ही भलाई समझ रहे हैं. यदि भगवान न करे फिर भी अगर हालात ऐसे ही बन पड़े हैं तो पल भर रूककर एक ऐसे पिता की कल्पाना कीजिए जो बैसाखी के सहारे मुश्किल से एक ही जख्मी पाँव से चल पाता हो. फिर भी मात्र छह वर्ष के अपने लाडले की रनिंग सायकिल के कैरियर को थामे हुए मीलों का सफ़र तय करने की खातिर तैयार हो.
सच ही कहा गया है कि अगर हम गौर करें हो ऊपर वाले ने हर हाल में हमें इतनी नेमत बख्सी है कि हम चाहें तो उसे सौभाग्य में बदल सकते हैं. जरूरत इस बात की है कि हम शिकायत करना छोड़कर समाधान की राह पर चलना शुरू कर दें.
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मो. 9301054300
घटना है वर्ष १९६० की. स्थान था यूरोप का भव्य ऐतिहासिक नगर तथा इटली की राजधानी रोम। सारे विश्व की निगाहें २५ अगस्त से ११ सितंबर तक होने वाले ओलंपिक खेलों पर टिकी हुई थीं। इन्हीं ओलंपिक खेलों में एक बीस वर्षीय अश्वेत बालिका भी भाग ले रही थी. वह इतनी तेज़ दौड़ी, इतनी तेज़ दौड़ी कि १९६० के ओलंपिक मुक़ाबलों में तीन स्वर्ण पदक जीत कर दुनिया की सबसे तेज़ धाविका बन गई.
रोम ओलंपिक में लोग ८३ देशों के ५३४६ खिलाड़ियों में इस बीस वर्षीय बालिका का असाधारण पराक्रम देखने के लिए इसलिए उत्सुक नहीं थे कि विल्मा रुडोल्फ नामक यह बालिका अश्वेत थी अपितु यह वह बालिका थी जिसे चार वर्ष की आयु में डबल निमोनिया और काला बुखार होने से पोलियो हो गया और फलस्वरूप उसे पैरों में ब्रेस पहननी पड़ी। विल्मा रुडोल्फ़ ग्यारह वर्ष की उम्र तक चल-फिर भी नहीं सकती थी लेकिन उसने एक सपना पाल रखा था कि उसे दुनिया की सबसे तेज़ धाविका बनना है। उस सपने को यथार्थ में परिवर्तित होता देखने वे लिए ही इतने उत्सुक थे पूरी दुनिया वे लोग और खेल-प्रेमी.
डॉक्टर के मना करने के बावजूद विल्मा रुडोल्फ़ ने अपने पैरों की ब्रेस उतार फेंकी और स्वयं को मानसिक रूप से तैयार कर अभ्यास में जुट गई. अपने सपने को मन में प्रगाढ़ किए हुए वह निरंतर अभ्यास करती रही. उसने अपने आत्मविश्वास को इतना ऊँचा कर लिया कि असंभव-सी बात पूरी कर दिखलाई. एक साथ तीन स्वर्ण पदक हासिल कर दिखाए। सच यदि व्यक्ति में पूर्ण आत्मविश्वास है तो शारीरिक विकलांगता भी उसकी राह में बाधा नहीं बन सकती.
लेखक सीताराम गुप्ता ने सच्ची घटना पर आधारित इस लघु कथा में वैसे तो हौसले की जीत की एक प्रचलित सी चित्रकारी की है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसा साहस, ऐसा जीवट, कभी घुटने नहीं टेकने वाली ऎसी लगन इस दुनिया में कोई आम बात भी नहीं है. कोई बड़े दिल का व्यक्ति ही परमात्मा का ऋण चुकाने के लिए, अपनी सारी सीमाओं, समस्त अभावों को ताक पर रखकर इस तरह प्रदर्शन कर दिखाता है जैसा रुडोल्फ ने किया. वरना प्रकृति की मार या किसी दुर्घटना का शिकार होने के बाद तो अक्सर यही देखने में आता है कि इंसान खुद को दुनिया वालों से बिलकुल खपा सा जीने लगता है. दरअसल ज़िन्दगी में, अगर गहराई में जाकर समझने की कोशिश करें तो दर्द सचमुच बड़े नसीब वालों के हिस्से में आता है. इसे राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर जी ने इस ख़याल को बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति दी हैं. उनकी पंक्तियाँ एक बार पढ़िए तो सही -
ह्रदय अगर छोटा हो
तो दुःख उसमें नहीं समाएगा
और दर्द,
दस्तक दिए बिना ही लौट जाएगा.
टीस उसे उठती है
जिसका भाग्य खुलता है,
वेदना गोद में उठाकर
सबको निहाल नहीं करती
जिसका पुण्य प्रबल होता है
वही अपने आँसुओं से धुलता है.
तो है न यह पते कि बात ? वास्तव में इस दुनिया में हौसले की हार कभी नहीं होती. सबसे बड़ी बात है जो जैसा है, जहाँ पर है, जिस हालात में भी है, वहाँ से एक कदम आगे बढ़ने, कुछ नया, कुछ अलग कर दिखाने के लिए वह तैयार है या नहीं ? शिकस्त कोशिश की कभी नहीं होती. हर अगर होती भी है तो इंसान की इस सोच के कारण कि वह चुक गया है. जबकि देखा जाये तो बुरे से बुरे दिन गुज़ार रहे आदमी के लिए भी कुछ न कुछ अच्छा कर दिखाने की संभावना हमेशा जीवित रहती है.
आइये, कुछ पल के लिए यदि आप खुद को सुखी या समर्थ नहीं मानते हैं तो कुछ ऐसे हालातों की कल्पना करें जिन्हें आप अक्सर नज़रंदाज़ कर दिया करते हैं. उदाहरण के लिए
अगर बारिश में आपको घर से निकलने में डर लग रहा हो तो उस व्यक्ति के विषय में आप क्या कहना चाहेंगे जो मात्र दो वर्ष के अपने कलेजे के टुकड़े को भारी बाढ़ के बीच खुद लगभग गले तक
नदी के पानी में डूबे रहकर भी उसे अपने सिर पर एक टोकरी में रखे हुए किनारे तक पहुँचने की हरसंभव कोशिश कर रहा हो ? इसी तरह जब कभी आपको लगे की आपकी तनख्वाह कम है या आमदनी पर्याप्त नहीं है तब पल भर के लिए उस गरीब बच्चे के बारे में सोचें जिसे उसके माँ-बाप का अता-पता नहीं है और जो अपने पावों से लाचार भी है, उस पर भी वह पूरी हिम्मत से घिसट-घिसट कर ही सही, लेकिन मदद की गुहार लेकर आप जैसे कई कई भाग्यवान लोगों तक पहुँचने से नहीं कतराता.
ठहरिये, एक और सीन देखिये. फ़र्ज़ कीजिए कि आप किन्हीं कारणों से जिंदगी की जंग अब और लड़ने के लिए तैयार नहीं है यानी मैदान छोड़ देने में ही भलाई समझ रहे हैं. यदि भगवान न करे फिर भी अगर हालात ऐसे ही बन पड़े हैं तो पल भर रूककर एक ऐसे पिता की कल्पाना कीजिए जो बैसाखी के सहारे मुश्किल से एक ही जख्मी पाँव से चल पाता हो. फिर भी मात्र छह वर्ष के अपने लाडले की रनिंग सायकिल के कैरियर को थामे हुए मीलों का सफ़र तय करने की खातिर तैयार हो.
सच ही कहा गया है कि अगर हम गौर करें हो ऊपर वाले ने हर हाल में हमें इतनी नेमत बख्सी है कि हम चाहें तो उसे सौभाग्य में बदल सकते हैं. जरूरत इस बात की है कि हम शिकायत करना छोड़कर समाधान की राह पर चलना शुरू कर दें.
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