Thursday, October 18, 2012

साहित्य का सांस्कृतिक करिश्मा

डॉ.चन्द्रकुमार जैन
 
जाने-माने पत्रकार और चिन्तक श्री कमलेश्वर ने राजनांदगांव में साहित्य विभूतियों की स्मृति में बनाये गए मुक्तिबोध स्मारक-त्रिवेणी संग्रहालय के लिए अपने भावों को कुछ इस अंदाज़ में व्यक्त किया था.  वे अब इस संसार में नहीं हैं, किन्तु यहाँ इसके प्रस्तुतकर्ता का मानना है कि उनकी अशेष स्मृति की तरह उनका यह आलेख भी साहित्य जगत और विशेषकर संस्कारधानी राजनांदगांव के लिए एक धरोहर के समान है. प्रस्तुतकर्ता ने स्वयं मुक्तिबोध स्मारक की स्थापना में सक्रिय और सृजनात्मक भूमिका का निर्वहन किया था, लिहाजा उन्होंने दूरभाष पर चर्चा कर इस आलेख के लिए श्री कमलेश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की थी. पढ़िए यह यादगार आलेख.
 
भारत में बहुपार्टीवादी चुनावी लोकतंत्र ने गहरी जड़ें जमा ली हैं, इसे दुनिया मंज़ूर करती है. यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजनीतिक सफलता का सबसे चमकदार कारनामा है और अब राजनीतिक लोकतंत्र के साथ सामाजिक और सांस्कृतिक लोकतांत्रिकता के साथ ही वैचारिकता सहिष्णुता का महत्वपूर्ण दौर शुरू हो चुका है.इसके कुछ ज्वलंत उदाहरण सामने आने लगे हैं.
भारत अपनी सभ्यतागत विचार स्वतंत्रता की सदियों पुरानी सहिष्णु परंपरा की ओर लौट नहीं रहा है बल्कि उसका नवीनीकरण कर रहा है.राजनीतिक लोकतंत्र जब तक सांस्कृतिक लोकतंत्र में नहीं बदलता, तब तक वह अधूरा ही रहता है. इस अधूरेपन को भरे जाने के ठोस प्रमाण अब भारतीय समाज के सामने हैं.

प्रमाण
इसकी जीती जागती मिसाल 'मुक्तिबोध स्मारक त्रिवेणी संग्रहालय' के रूप में अब मौजूद है जो कि छत्तीसगढ़ राज्य के राजनांदगाँव में स्थित है. वृहत्तर भारतीय समाज इस अनजान से क्षेत्र से अपरिचित है पर भारतीय और ख़ासकर हिन्दी समाज का प्रत्येक व्यक्ति राजनांदगाँव को जानता है. वह कालजयी कवि मुक्तिबोध की इस रचना भूमि के नाम और महत्व से परिचित है. इस त्रिवेणी संग्रहालय में छत्तीसगढ़ के तीन मूर्धन्य साहित्यकारों, गजानन माधव मुक्तिबोध, डॉक्टर पदुमलाल पुन्नलाल बख्शी और डॉक्टर बलदेव प्रसाद मिश्र की स्मृतियों को बड़े भव्य रूप में सहेजा गया है. तीनों ही हिन्दी साहित्य के प्रख्यात सर्जक हैं और तीनों का देहावसान 20वीं सदी के उत्तरकाल में हुआ था.
राजनांदगाँव एक बहुत छोटी-सी रियासत थी. इसके पुराने क़िले का निर्माण वर्ष 1877 में पूरा हुआ था. यही क़िला लगभग खण्डहर के रूप में पड़ा था. इसी के अंतिम द्वारवाला हिस्सा मुक्तिबोध को आवास के लिए दिया गया था. यहीं वो दिग्विजय महाविद्यालय में हिंदी साहित्य के प्राध्यापक थे.

मुक्तिबोध
आधुनिक हिंदी कविता और समीक्षा के वो प्रतिमान बन गये. 'नयी कविता का आत्मसंघर्ष' और 'एक साहित्यिक की डायरी' जैसी समीक्षात्मक कृतियों और 'चांद का मुंह टेढ़ा है' जैसी अदम्य जिजीविषा से भरी कविताओं के अलावा उनका कथा साहित्य और सांस्कृतिक चिंतन एक नये युग का सूत्रपात करते हैं. मुक्तिबोध वामपंथी विचारधारा के प्रतिबद्ध साहित्यकार थे. वे मुक्तिबोध ही नहीं बल्कि आधुनिक प्रगतिशील चेतना के स्वंय युगबोध बन गये थे. उनकी भाषा कबीर की भाषा की तरह ही उबड़-खाबड़ और नियमों से भी मुक्त थी पर वो अन्याय और शोषण के विरूद्ध आम आदमी के पक्ष में अडिग खड़े रहनेवाले एक प्रखर चिंतक और दुर्दम्य कवि थे.
मुक्तिबोध कठिन कवि भी हैं. जल्दी समझ में नहीं समाते परन्तु बोध के गहरे पन्नों के भीतर मुक्तिबोध में भारतीय और वैश्विक सभ्यताओं के मिथकों की वह सकारात्मक फ़ैंटेसी मौजूद है, जो मनुष्य को विपरीत स्थितियों में भी हारने या थकने नहीं देंगी. साहित्य की इसे प्राणशक्ति ने मुक्तिबोध को कालजयी कवि बनाया है.

करिश्मा
पश्चिमी देशों में तो अपने साहित्यकारों की स्मृतियों को संजोकर रखने की परम्परा है. टॉल्सटाय, पुश्किन, गोएठे, शेक्सपियर आदि के भव्य स्मारकों को कौन भूल सकता है? भारत में भी गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर, सुब्रहमण्यम भारती और कुमार आशान जैसे युगचेता साहित्यकारों के स्मारक मौजूद हैं पर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी वाचिक भाषा हिंदी के पास ऐसा कोई जीवंत और भव्य स्मारक नहीं हैं. हिंदी के तीन साहित्यकारों की स्मृतियों को समेटे 'मुक्तिबोध स्मारक त्रिवेणी संग्रहालय' इसीलिए आज छत्तीसगढ़ या राजनांदगाँव का ही नहीं, हिंदी भाषा और प्रतिरोधी-प्रतिवादी साहित्य की अस्मिता का भी जीवंत प्रतीक बन गया है.

इस उत्कृष्ट स्मारक का इससे भी बड़ा महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इसे छत्तीसगढ़ राज्य की उस दक्षिणपंथी हिंदूवादी सरकार ने बनवाया है जो मुक्तिबोध जैसे वामपंथी विचारक कवि की विचारधारा की घनघोर विरोधी है. राजनीतिक फलक पर ये दोनों विचारधाराएँ एक दूसरे को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए प्रतिबद्ध और कटिबद्ध हैं लेकिन सांस्कृतिक लोकतंत्र की भारतीय परंपरा में यह करिश्मा हुआ है.

साहित्य ही ऐसा करिश्मा कर सकता है.
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