Wednesday, March 12, 2008

चांदनी चिंतन की.

बात १९७० की है ।
दुनिया के जाने -माने एथलीटों ने फ़ैसला किया कि
अपना प्रदर्शन दुरुस्त करने की कोई नई पहल की जाये ।

सबने तय किया कि खेल शुरू होने से पहले वे अपनी जीत की काल्पनिक खुशी मनायेंगे ।
स्वयं को जीतते हुए देखेंगे । अमूर्त को मूर्त रूप में देखने की यह कोशिश बड़ी कारगर रही ।
खिलाड़ियों की जीत के अवसर बढ़ गए ।

मुझे लगता है हार या जीत से बड़ी बात है जीतने का ज़ज्बा बनाये रखना ।
इसे मैं सफलता की भीतरी यात्रा के रूप में देखता हूँ ।

आप ख़ुद को अप्प्रूव करेंगे तो दुनिया वालों के सामने
कुछ प्रूव करने की जरूरत नहीं रह जायेगी ।

अपने भीतर इस एहसास को जिंदा रखना कि आप
शिद्दत से जीने और जीतने को अभिन्न मानते हैं ,सचमुच बड़ी बात है ।

हार को जीत में ; रुदन को गीत में बदलने की कला बड़ी बात है ।

जो चलता है वही ठाकरें भी खाता है ,कभी गिर भी जाता है।
लेकिन गिरने में भी उठने का राज़ छुपा है ।
देखिये न कलम से स्याही गिरी कि कागज़ पर सुंदर अक्षर उठ जाते हैं ।
बादल से गिरता है पानी और धरती पर पौधे उग आते हैं ।

मानस मर्मज्ञ डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्रा की पंक्तियाँ हैं ...

निश्चय समझो जो कभी तुम्हारा बाधक था ,
वह देख तुम्हारा तेज स्वयं साधक होगा ।
तुम अपने पथ के बस आराधक हो लो ,
पथ स्वयं तुम्हारे पथ का आराधक होगा ।

1 comment:

राज भाटिय़ा said...

सच मे चंदन जी दिल मे किसी भी बात के करने का पुरा होसला हो, ओर इरादे मजबुत हो तो दुनिया का कोई भी काम मुश्किल नही,आप का चिंतन बहुत सुन्दर हे.