Saturday, April 12, 2008

दो मुक्तक.


बार कितनी प्रियजनों का साथ छूटा है
कल्पना का कलश कितनी बार फूटा है
हाथ में आई सुधा भी छीन ली जग ने
पर अटल विश्वास का धागा न टूटा है
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तिमिर घिरा है सघन व्यथा का पार नहीं है
किंतु शिथिल हो मेरे मन ने मानी हार नहीं है
प्रीत प्रगति के साथ अचंचल मेरी सदा रही है
तुम कितना भी रोको मेरा थमता प्यार नहीं है

2 comments:

mehek said...

तिमिर घिरा है सघन व्यथा का पार नहीं है
किंतु शिथिल हो मेरे मन ने मानी हार नहीं है
प्रीत प्रगति के साथ अचंचल मेरी सदा रही है
तुम कितना भी रोको मेरा थमता प्यार नहीं है
wah badi sundar baat kahi.

राज भाटिय़ा said...

हाथ में आई सुधा भी छीन ली जग ने
पर अटल विश्वास का धागा न टूटा है
क्या बात हे चन्दर जी ,आज तो हिम्मत दिला दी आप ने ,धन्यवाद