
समय और संसार से संघर्ष के बीच
काव्य-नागरिकता के लिए
भाषा के माध्यम से मनुष्य को रचने का
साक्ष्य प्रस्तुत करती दीखती हैं।
हालात के मद्देनज़र भी मुझे श्री मंडलोई की
यहाँ प्रस्तुत कविताएँ प्रासंगिक प्रतीत होती हैं।
पढ़िए उनकी दो रचनाएँ -
युद्ध से बची
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जो विकल हैं पल-प्रतिपल
कि बचा रहे पेड़ों में रस
नदियों में जल
और सूरज में ताप
कि बचा रहे तितलियों में रंग
पंछियों में कलरव
और बच्चों में गान
कि बचा रहे पृथ्वी का स्वप्न
सृष्टि का संगीत
और दुनिया का वारिस
युद्ध से बची इस पृथ्वी को मैं सौंपता हूँ
मरा नहीं जिनका यह दिवा स्वप्न।
नागरिक कितना अकेला
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इबादतगाहों से उतरती हैं काली छायाएँ और
भरने लगा है धुएँ और आग के बवंडर से सकल व्योम
दुधमुहें बच्चों को रौंदता हुआ गुज़रता है कोई हिंसक लठैत
और सनाके से भरी दुनिया दुबक जाती है घरों में
कम है धरती उनके दुखों की
झोंक दिए गए हैं जो इस नामुराद ज़ंग में
मैं नागरिक कितना अकेला इबादतगाह से बाहर।
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5 comments:
दिल को छू लेने वाली कविताएं
आभार इस प्रस्तुति के लिए.
अति सुन्दर मन भावन कवितायॆं
धन्यवाद
आपकी और आपके द्बारा प्रस्तुत कविताओं के चयन का जवाब नहीं... आभार.
achchi kavitain hain, aabhar padwaane ke liye कम है धरती उनके दुखों की
झोंक दिए गए हैं जो इस नामुराद ज़ंग में
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