नहीं है उसको मेरे रंजो ग़म का अंदाज़ा
बिखर न जाए मेरी ज़िंदगी का शीराज़ा
अमीरे शहर बनाया था जिस सितमगर को
उसी ने बंद किया मेरे घर का दरवाज़ा
गुज़र रही है जो मुझ पर किसी को क्या मालूम
जो ज़ख्म उसने दिए थे हैं आज तक ताज़ा
गुरेज़ करते हैं सब उसकी मेज़बानी से
भुगत रहा है वो अपने किए का खमियाज़ा
है तंग क़ाफिया इस बहर में ग़ज़ल के लिए
दिखाता वरना मैं ज़ोरे क़लम का अंदाज़ा
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अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी की ग़ज़ल साभार प्रस्तुत
Tuesday, September 8, 2009
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4 comments:
बहुत खुब। लाजवाब रचना
है तंग क़ाफिया इस बहर में ग़ज़ल के लिए
दिखाता वरना मैं ज़ोरे क़लम का अंदाज़ा
सारे शेर एक से एक हैं..मगर आखिरी माशा-अल्लाह
..कितना कुछ रह जाता है हर बार लिखे जाने पर भी
..खूबसूरत रचना पढ़वाने के लिये आभार
बर्क़ी साहब का यह काव्य अनुशासन है जो वे तंग काफ़िया की बात करते हैं । धन्यवाद चन्द्रकुमार जी
है तंग क़ाफिया इस बहर में ग़ज़ल के लिए
दिखाता वरना मैं ज़ोरे क़लम का अंदाज़ा
वाह!
बहुत ही सुन्दर शेर पढ़वाए आप ने..आभार.
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