बस एक काम यही बार-बार करता था
भंवर के बीच से दरिया को पार करता था
उसी की पीठ पर उभरे निशान ज़ख्मों के
जो हर लड़ाई में पीछे से वार करता था
अजीब शख्स था ख़ुद अलविदा कहा, लेकिन
हरेक शाम मेरा इंतज़ार करता था
हवा ने छीन लिया अब जो धूप का जादू
नहीं तो पेड़ भी पत्तों से प्यार करता था
सुना है वक़्त ने उसको बना दिया पत्थर
जो रोज़ वक़्त को भी संगसार करता था
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माधव कौशिक की ग़ज़ल साभार प्रस्तुत.
Wednesday, April 14, 2010
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3 comments:
माधव कौशिक की ग़ज़ल प्रस्तुत करने का आभार!!
भाई माधव कौशिक की ग़ज़ल यहाँ पा कर मीर का एक शेर याद हो आया-
'हम हुए, तुम हुए कि मीर हुए .
उनकी जुल्फों के सब असीर हुए .' अच्छी ग़ज़ल !
अजीब शख्स था ख़ुद अलविदा कहा, लेकिन
हरेक शाम मेरा इंतज़ार करता था
सुना है वक़्त ने उसको बना दिया पत्थर
जो रोज़ वक़्त को भी संगसार करता था
वाह ! बहुत शुक्रिया इस ग़ज़ल के लिए.
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