आचार में अहिंसा,विचार में अनेकांत और जीवन में अपरिग्रह की महिमा
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
सत्य के सदन में अहिंसा के अवतरण का नाम है तीर्थकर महावीर स्वामी। अचौर्य के आचरण और अपरिग्रह के अनुकरण का नाम है महावीर स्वामी। अनेकान्तवाद के आकाश में उत्सर्ग की उड़ान का नाम है महावीर स्वामी। अवैर की अभिव्यक्ति और क्षमा की शक्ति का नाम है महावीर स्वामी। सहिष्णुता की सात्विकता और संयम के सामर्थ्य का नाम है महावीर स्वामी। सद्भाव से सरोकार और समता के सूत्रधार का नाम है महावीर स्वामी।
जैनधर्म के इस युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ ऋषभदेव के पौत्र मारीचि से लेकर अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के भव तक की जीवन यात्रा किसी आत्मा के संसार परिभ्रमण की तथा उससे मुक्ति की अनोखी कथा है। अन्तिम भव में वैशाली गणतन्त्र के कुण्डग्राम में राजा सिद्धार्थ और महारानी त्रिशला के घर में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन बालक वर्धमान के रूप में उस पवित्र आत्मा ने जन्म लिया। जैसा कि सभी तीर्थंकरों के जीवन में होता है उनके भी गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष कल्याणक, देवों व मानवों के द्वारा अति उत्साह व भक्ति से मनाये गये।
सभी जानते हैं कि 30 वर्ष की आयु में वर्धमान महावीर ने राजपाट त्याग कर श्रमण साधना का मार्ग अपना लिया। 12 वर्ष तक मौन तपस्या के बाद 42 वर्ष की आयु में उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और इस प्रकार वे अपने सम्पूर्ण विकारों से मुक्त हो कर कर अर्हन्त परमात्मा बन गये। उनके उपदेशों का क्रम उसके बाद अनवरत 30 वर्ष तक चलता रहा और कार्तिक कृष्ण अमावस्या के दिन की प्रात: बेला में उन्होंने संसार चक्र से मुक्ति प्राप्त की और सिद्ध हो गये।
भगवान महावीर का यह जीवन और उनकी शिक्षाएं अत्यन्त प्रेरणादायक और सर्व कल्याण कारी हैं, सर्वोदयी हैं। उनके अनुपालन से न केवल जीवों का मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है वरन् सामान्य लोक जीवन भी सुन्दर हो जाता है। उनके उपदेशों में अहिंसा,अनेकान्त और अपरिग्रह की विशेष चर्चा की जाती है। परन्तु उनके उपदेशों का जो सबसे सघन पक्ष है वह है प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति व सामर्थ्य की घोषणा। प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्रता की उद्घोषणा और इस विश्वास की स्थापना कि मनुष्य जन्म से नहीं, कर्म से महान बनता है।
आचार में अहिंसा, विचारों में अनेकांत, वाणी में स्याद्वाद और जीवन में अपरिग्रह महावीर के मूल सन्देश हैं। सामान्यतः कहा जाता है हिंसा का न होना अहिंसा है। परन्तु जैन दर्शन में अहिंसा रूप बहुत विस्तृत है। निश्चय से आत्मा में राग-द्वेष की उत्पत्ति न होना ही अहिंसा है। और व्यवहार से मन-वचन-काय से अनुमोदना किसी भी रूप में किसी भी जीव को पीड़ा या दुख न पहुँचाना अहिंसा है। वहाँ केवल पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा की बात नहीं कही वरन् सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव की रक्षा का भी उपदेश दिया।
सुबह से शाम तक होने वाली क्रियाओं में हिंसा, अभक्ष्य भक्षण में हिंसा, अनछने जल के उपयोग में हिंसा - यदि आज हम इन हिंसाओं से बचे हैं तो वो अहिंसा का सिद्धांत ही है जिसने जीव मात्र के प्रति दया का भाव सिखाया। भगवान महावीर ने न केवल आचार में अहिंसा की बात कही बल्कि भावों में भी अहिंसा का प्रतिपादन किया। आचार में और भावों में अहिंसा का प्रवर्तन होने से मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है।
प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक है। एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मों या शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकांत है। अर्थात् जो वस्तु एक है वही अनेक भी है, जो नित्य है वही अनित्य भी है, जो सत् है वही असत् भी है।अनेकांत के बिना वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती। जब हम वस्तु के एक धर्म को स्वीकार करते है, तो विवाद खड़ा होता है। कैसे ? यदि हम वस्तु को हमेशा सत् रूप से मानेगें तो उसका कभी विनाश नहीं होगा, और असत् रूप में मानेगें तो उसका कभी जन्म नहीं होगा। जैसे दीपक बुझने के बाद भी नष्ट नहीं होता बल्कि अंधकार रूप पर्याय को धारण करते हुये अपना अस्तित्व रखता है। यदि नष्ट हो जाता तो पुनः प्रकाश कैसे होता ? ऐसे ही परस्पर विरुद्ध दोनों धर्मों का कथन करना ही अनेकांत है। यदि हमारे विचारों में अनेकांत होगा तो वस्तु का सत्य स्वरूप समझने में आसानी होगी।
अनेकांतमयी वस्तु को कथन करने की पद्धति का नाम स्याद्वाद है। किसी भी एक शब्द या वाक्य के द्वारा वस्तु का समग्र कथन करना संभव नहीं है, प्रयोजन की मुख्यता से अन्य धर्मों को गौण करते हुये एक धर्म का कथन करना स्याद्वाद है। वस्तु के अन्य धर्मों का निषेध न हो जाये इसलिये अनेकांत वादी स्यात् यानि कथंचित् शब्द का प्रयोग करते हैं। जैसे वस्तु कथंचित् सत् और कथंचित् असत्, कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य है। जैसे द्रव्य रूप से वस्तु नित्य है और पर्याय रूप से अनित्य । वाणी में स्याद्वाद होने से कभी कोई विवाद खड़ा नहीं होगा।
ये मेरा है, ऐसा भाव परिग्रह है, और ऐसा भाव न होना ही अपरिग्रह है। परिग्रह 24 प्रकार के हैं। चौदह अंतरंग और दस बहिरंग परिग्रह बताये गए हैं। जैन दर्शन में अंतरंग परिग्रह के त्याग को ही श्रेष्ठ माना गया है। अंतरंग परिग्रह के त्याग बिना बाह्य परिग्रह के त्याग का कोई मूल्य नहीं है।
जीवन में अपरिग्रह का होना बहुत जरूरी है। क्यों कि व्यक्ति की इच्छायें असीम व अनंत है, उन पर नियंत्रण रखने के लिये और शांति पूर्वक जीवन जीने के लिये अपरिग्रह का होना अति अावश्यक है।
जिस प्रकार खान से निकले हुये कोयले से आवृत्त हीरे में बाहर से काला दिखने पर भी आन्तरिक सौंदर्य एवं चमक पूरी की पूरी विद्यमान होती है। जरूरत केवल बाहृय कालिमा को हटाने की है। सर्वांगसुन्दर हीरा अपने दैदीप्यमान रूप में स्वत: ही प्रगट हो जाता है। खान से निकली पत्थर की शिला में प्रतिमा छिपी होती है जिसे पारखी व कुशल कारीगर पहचान लेता है और बाहरी आवरण -अतिरिक्त पत्थर हटा देने पर वह सर्वांगसुन्दर प्रतिमा प्रगट हो जाती है जो प्रतिष्ठित होने पर जगत पूज्य बन जाती है। भगवान महावीर कहते हैं कि इसी प्रकार हीरे के पत्थर में हीरा तथा पत्थर की शिला में देव प्रतिमा स्वाभाविक रूप से ही विद्यमान है, उसी प्रकार इस आत्मा में भी परमात्मा विद्यमान रहते हैं। विकारों को हटाकर परमात्म स्वरूप का दर्शन किया जा सकता है।
हमारी अभी के दौर में आर्थिक शब्दावली कुछ ज्यादा ही चलन में है, लिहाजा जीवन मूल्यों को भी आयात-निर्यात की नजर से देखा जाने लगा है। लेकिन भारत ने अपने मूल्य न तो अभी तक किसी पर थोपे हैं, न ही उनका निर्यात किया है। इनमें से जो भी दुनिया को अपने काम का लगता है, उसे वह ग्रहण करती है, ठीक वैसे ही, जैसे अन्य समाजों से हम ग्रहण करते हैं। जिस दौर में दुनिया अहिंसा को एक भारतीय मूल्य के रूप में अनुकरणीय मानती थी, भारत की धरती पर उस दौर में संसार का सबसे बड़ा साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन अहिंसा के सिद्धांत पर ही संचालित हो रहा था।
दूसरों को दुख देना या दूसरों के अधिकार छीनना ही हिंसा है, यह कौन समझेगा। दूसरों के अधिकार छीनना हमें ही दुख पहुंचाएगा, जब तक हम यह नहीं समझेंगे तब तक न्याय नहीं कर सकते। महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में ग्राम स्वतंत्रता की बात की थी और कहा था कि बगैर उसके समानता नहीं आ सकती। आज दुनिया के अनेक देशों में स्वायत्तता निचली इकाइयों तक पहुंची हुई है, लेकिन हमारे देश में जब तक हम इस बारे में मूल रूप से सोचना शुरू नहीं करेंगे, तब तक देश में हिंसा होती रहेगी। हमें दूसरों के दुख के बारे में सोचना होगा। श्री दलाई लामा ने ठीक ही कहा है कि हमारे पास आयात करने के लिए तो बहुत कुछ है, लेकिन निर्यात करने के लिए अहिंसा के अलावा कुछ नहीं। लेकिन सबसे बड़ी शर्त यह हो कि जो निर्यात करते हैं, उसे अपने लिए भी तो उपयोगी मानें। महावीर की अहिंसा को जीवन की मूलधारा से जोड़ें। सर्वपल्ली डॉ.राधाकृष्णन ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि यदि संसार को तबाही से बचाना है और कल्याण के मार्ग पर चलाना है तो भगवान महावीर के अहिंसा के महान सन्देश और उनके बताये हुए रास्ते को ग्रहण किये बिना और कोई रास्ता नहीं है।
मानवीय सभ्यता और संस्कृति का उच्चतम बिंदु है अहिंसा। हिंसा जीवन यात्रा के साथ जुड़ी हुई है पर वह जीवन के विकास का अंग नहीं है। मनुष्य चिंतनशील प्राणी है, इसलिए वह हर क्षेत्र में विकास की यात्रा करता है। सामाजिक स्तर पर भी अहिंसा एक विचार है। अध्यात्म के स्तर पर वह सर्वोच्च विकास है। समाज की आचार-संहिता अहिंसा के बिना पल्लवित नहीं हो सकती। अध्यात्म की आचार-संहिता उसके बिना बन नहीं सकती। अध्यात्म का पहला बिंदु अहिंसा है और चरम बिंदु भी अहिंसा है। वर्तमान युग में हिंसा बढ़ रही है। अपरिमित आण्विक अस्त्रों से भय का वातावरण निर्मित हो रहा है। हिंसक प्रशिक्षण के कारण आतंकवाद, उग्रवाद और नक्सलवाद के साये में अशांति पनप रही है। इस स्थिति में महावीर की अहिंसा, अभय, अनेकांत के विषय में चिंतन करना, सही और स्थायी समाधान खोजना समय की सबसे बड़ी मांग है।
आज हाईटेक युग में व्यक्ति लोभ, हिंसा, परिग्रह, तनाव, विषमता, भ्रष्टाचार, दहेज, कन्या भू्रण हत्या आदि शारीरिक पीड़ाओं और सामाजिक समस्याओं से ग्रस्त और त्रस्त है। इन तमाम समस्याओं के समाधान में भगवान महावीर के अनेकान्त दर्शन की महती भूमिका है। जहाँ अनेक अंत अर्थात् धर्म, विशेष, गुण और पर्याय पाये जाते हैं, उसे अनेकांत कहते हैं।
जन साधारण को जीव हिंसा से बचाने के लिए महावीर ने अहिंसा का उपदेश दिया और वैचारिक मतभेदों, उलझानों, झगड़ों आदि से बचने के लिए, शांति की स्थापना के लिए अनेकान्तवाद का सिद्धान्त दिया। अनेकांत भारत की अहिंसा का चरम उत्कर्ष है। इसे संसार जितना अधिक अपनाएगा , विश्व शान्ति उतनी ही जल्दी संभव है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानने की सही दृष्टि ही अनेकान्त है। चिंतन की अहिंसामयी प्रक्रिया का नाम अनेकांत है और चिंतन की अभिव्यक्ति की शैली या कथन स्याद्वाद है। अनेकांत एक वस्तु में परस्पर विरोधी और अविरोधी धर्मों का विधाता है। अनेकान्तवाद हमारी बुद्धि को वस्तु के समस्त आयामों की ओर समग्र रूप से खींचता है।
अनेकांत दृष्टि का अर्थ है - प्रत्येक वस्तु में सामान्य रूप से, विशेष रूप से, प्रिय और अप्रिय की दृष्टि से, नित्यत्व की अपेक्षा से, अनित्य की अपेक्षा से सद्रूप से और असद्रूप से अनंत धर्म होते हैं। समाज में विभिन्नता एवं साम्प्रदायिकता का विवाद भी अनेकांत से मिटाया जा सकता है। जब एकांगी दृष्टिकोण विवाद और आग्रह से मुक्त होंगे तभी भिन्नता में समन्वय के सूत्र परिलक्षित हो सकेगें। महावीर का अनेकांत हमें अनेकता में एकता के विधान का सम्मान करने की सीख देता है।
यदि गहराई में जा कर देखें तो भगवान् महावीर का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त अनेकान्तवाद और स्यादवाद है। महावीर ने कहा है कि सभी मत और सिद्धान्त पूर्ण सत्य या पूर्ण असत्य नहीं हैं। सापेक्ष दृष्टि से विचार करने पर सभी दृष्टिकोण सत्य ही प्रतीत होते हैं। इसलिए, अपने-अपने मत या सिद्धान्त पर अड़े रहने से संघर्ष बढ़ता है। आज जो वर्ग-संघर्ष, अशान्ति और शस्त्रों का अन्धानुकरण बढ़ रहा है, उसे रोकने में अनेकान्त की दृष्टि, सहअस्तित्व की भावना महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है।
समाज में एक ही प्रकार की जीवन प्रणाली, एक ही प्रकार के आचार-विचार की साधना न तो व्यवहार्य है और न संभव ही। वैचारिक सहिष्णुता के लिए अनेकान्तवाद के अवलम्बन की आवश्यकता है। सच्चा अनेकांतवादी किसी भी समाज या व्यक्ति के द्वेष नहीं करता। मानव की यह विचित्र मनोवृति हैं कि वह समझता है कि जो वह कहता है वही सत्य है और जो वह जानता है वही ज्ञान है क्योंकि इसके भीतर अहंकार छिपा हुआ है। अनेकान्तवाद से यही संकेत किया जाता है कि आचार के लिए और विचार के लिए सद्विचार, सहिष्णुता एवं सत्प्रवृति का सहयोग आवश्यक है। पर-पक्ष को सुनो उसकी बातों में भी सत्य समाया हुआ है। अनेकान्तवाद सिर्फ विचार नहीं है आचार-व्यवहार भी है जो अहिंसा, अपरिग्रह के रूप में विकसित हुआ है। इस प्रकार अनेकान्तवाद जीवन की जटिल समस्याओं के समाधान का मूल मंत्र है। यह सह अस्तित्व, वसुधैव कुटुम्बकम, जीओ और जीने दो की भावना का विकास करता है जिससे मानवीय गुणों की वृद्धि होती है. जीवन का सम्पूर्ण विकास इसी से संभव है।
अगर गौर करें तो अनेकता और एकता का सामंजस्य किये बिना लोकतंत्र की प्रतिमा प्रतिष्ठित नहीं हो सकती। इस सामंजस्य की प्रणाली का दार्शनिक आधार है अनेकांत। अनेकांत की चार प्रमुख दृष्टियाँ हैं - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। किसी भी वास्तु का मूल्यांकन द्रव्य सापेक्ष, क्षेत्र सापेक्ष, काल सापेक्ष और भाव सापेक्ष होना चाहिए। निरपेक्ष मूल्यांकन उलझनें पैदा करता है। आर्थिक विकास के लिए शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शान्ति, भावनात्मक संतुलन पर्यावरण संरक्षण गौण हो जाएँ तो इसे अर्थनीति की विडम्बना ही कहा जाएगा। इसका समाधान भी महावीर के अनेकांत में निहित है।
भगवान महावीर का संदेश प्राणी मात्र के कल्याण के लिए है। उन्होंने मनुय-मनुष्य के बीच भेदभाव की सभी दीवारों को ध्वस्त किया। उन्होंने कहा इस विश्व में न कोई प्राणी बड़ा है और न कोई छोटा। उन्होंने गुण-कर्म के आधार पर मनुष्य के महत्व का प्रतिपादन किया। ऊँच-नीच, उन्नत-अवनत, छोटे-बड़े सभी अपने कर्मों से बनते हैं। सभी समान हैं। न कोई छोटा, न कोई बड़ा। भगवान की दृष्टि समभावी थी - सर्वत्र समता-भाव। वे सम्पूर्ण विश्व को समभाव से देखने वाले साधक थे, समता का आचरण करने वाले साधक थे। उनका प्रतिमान था - जो व्यक्ति अपने संस्कारों का निर्माण करता है, वही साधना का अधिकारी है।
महावीर की साधना विश्व शान्ति की प्रयोगभूमि है। महावीर ने कहा था - 'अप्पणा सच्च मेसेज्जां मेत्ति भूएसु कप्पए', स्वयं सत्य को खोजें एवं सबके साथ मैत्री करें। महावीर ने कहा था, जीओ और जीने दो। इस प्रकार महावीर के संदेशों की आज भी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी उस समय थी। आवश्कता सिर्फ उन्हें गहराई से समझकर अपनाने की है। उनकी वाणी ने प्राणी मात्र के जीवन में मंगल प्रभात का उदय किया। अब यह हम सबकी जिम्मेदारी है कि उस वाणी के तेज और आलोक को हम सर्वव्यापी, सर्वहितकारी, सर्वमंगलकारी बनाएं।
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राजनांदगांव,छत्तीसगढ़
मो.9301054300
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