Sunday, August 5, 2018

आबाद रहेगा बाबू जी के 
अक्षर-संसार का 'सबेरा'

डॉ. चन्द्रकुमार जैन 

पत्रकारिता एक कला है। वह जनता को सत्यम, शिवम् ,सुंदरम की ओर प्रेरित करती है। पत्रकारिता समाज का प्रतिबिम्ब ही नहीं, जैसा कि साहित्य को माना गया है, बल्कि वह समाज की प्रतिकृति है। इस कसौटी पर यदि देखें तो स्मृतिशेष बाबू जी ( श्री शरद कोठरी जी ) पत्रकारिता के अक्षय-वैभव के प्रतिमान और पत्र-जगत की विशिष्ट पहचान भी थे। बाबू जी ने पत्रकारिता और साहित्य के अंतरजगत की पीठिका पर लेखनी के तेज और प्रताप का संसार रचा। वे साहित्य अनुरागी चिंतक, सम्पादक और पत्रकार थे। 

अंग्रेजी के भी निष्णात विद्वान होने के बावजूद बाबू जी ने आजीवन हिंदी भाषा को अपनी लेखनी के दम पर अधिक रुचिकर और समाजोपयोगी बनाने का सारस्वत अनुष्ठान किया। पत्रकारीय सामर्थ्य से समृद्ध अक्षर संसार का 'सबेरा' पाठकों और  शब्द साधकों को सौंपकर वे इस जीवन के पार चले गए। किन्तु, मेरा अडिग विश्वास है कि उनका यशः शरीर, आज प्रायः पूरी तरह से व्यावसायिक रंग में ढलने को आतुर शब्द-संसार में भी पत्रकारिता की मानवीय प्रवृत्ति को बचाये रखने की प्रेरणा देता रहेगा। 

लगभग चार दशक से सबेरा संकेत परिवार से किसी न किसी रूप में जुड़े होने के नाते मैं पूरी विनम्रता के साथ कहना चाहता हूँ कि बाबू जी को अपनी कलम की ताकत पर जितना भरोसा था, उसके प्रभाव को लेकर भी वे उतने ही आश्वस्त रहते थे। उनके यहाँ जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव, संकल्प और सपनों को अभिव्यक्त करने के लिए, लेखन सर्वश्रेष्ठ माध्यम था। पर बकौल बाबू जी,वह लेखन ऐसा हो जो पाठक को कुछ नया सोचने, नए कोण से चीज़ों और मुद्दों को समझने की दिशा बताए। तभी उसकी सार्थकता होगी। वे कहते थे कलम का काम पाठक को आतंकित करना नहीं, आश्वस्त करना है। 

अपने दिग्विजय महाविद्यालय में विभागीय आयोजनों, जन-जीवन के शताधिक विविध प्रसंगों और मुक्तिबोध स्मारक की स्थापना के काल-खंड में कई ऐसे मौकों का मैं गवाह हूँ जब उन्होंने बार-बार कहा कि साहित्य के हर विद्यार्थी को प्रतिदिन डायरी लिखना चाहिए। कलमकारों के सीधे संपर्क में रहना चाहिए। नोट्स लेने की आदत डालना चाहिए। अपने भीतर बहुरंगी मानव समाज को गहराई से समझने की विवशता पैदा करनी चाहिए। और फिर वे स्पष्ट करते कि इन गुणों के बगैर अच्छा लेखक या पत्रकार बनना संभव नहीं है। संचार-विचार के आज के तेज रफ़्तार दौर में भी मैं सोचता हूँ कि ये विचार कितने उपयोगी हैं  ! नए कलमकारों को इस पर ध्यान देना चाहिए। 

बाबू की अपनी लेखनी से जनमानस में छाए रहे और पत्रकारिता के तो 'लीजेंड' ही बन गए। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आज भी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कई वरिष्ठ पत्रकार बाबू जी को अपना गुरु मानते हैं। अंत में बंगला के एक गीत की दो पंक्तियाँ - 

लक्ष प्राणेक दुःख यदि वक्षे तोर बाजे।
मूर्त करे तोल रे नारे, सकल काज माझे।।

अर्थात यदि लाखों प्राणों की पीड़ा तेरे ह्रदय में प्रतिध्वनित होती है तो इस का मूर्त प्रमाण अपने कार्यों से दे। ... और बाबू जी, अपने अंदाज़ में ऐसा प्रमाण दे गए हैं। उनका अक्षर व्यक्तित्व प्रेरणा का अक्षय स्रोत बना रहेगा। 

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