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पर एक नशा होता है ----अन्धकार के गरजते महासागर की
चुनौती को स्वीकार करने,पर्वताकार लहरों से खाली हाथ
जूझने का, अनमापी गहराइयों में लगातार उतरते जाने का
और फिर अपने को सारे खतरों में डालकर आस्था के,
प्रकाश के, सत्य के,मर्यादा के कुछ कण बटोरकर,बचा कर,
धरातल तक ले आने का ---इस नशे में इतनी गहरी वेदना
और इतना तीखा सुख घुला -मिला रहता है कि
उसके आस्वादन के लिए मन बेबस हो उठता है।
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अँधा युग में डा.धर्मवीर भारती
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Sunday, March 23, 2008
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1 comment:
अंधा युग मैंने भी पढी है , अच्छा लगा इन पंक्तियों को पढ़कर !
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