Thursday, December 23, 2010

कविता ; क्षणांश भी....!


पत्थर मारने पर भी
फूल देते हैं वृक्ष
नुकीले हल से
वक्ष को छलनी करने पर भी
फसल देती है धरती
तिल-तिल जलकर भी
खाना पकाती है आग
धुआँ घोलने पर भी
प्राण वायु देती है हवा
सूरज लोहे जैसा लाल तपकर भी
देता है रोशनी
यह सब नहीं सोचता
शांत मन से मनुष्य
वरना उसे इंसान बनने में
नहीं लगता क्षणांश भी !
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श्री विजय राठौर की कविता साभार प्रस्तुत.

6 comments:

रंजना said...

वाह...वाह...वाह...क्या बात कही...

सचमुच यदि मनुष्य यह स्मरण में रखे तो जीवन सार्थक हो जाए...

प्रेरणाप्रद बहुत ही सुन्दर रचना...वाह !!!

vandana gupta said...

यह सब नहीं सोचता
शांत मन से मनुष्य
वरना उसे इंसान बनने में
नहीं लगता क्षणांश भी !

बिल्कुल सही कहा …………इतना यदि मानव सोच ले तो जीवन कितना सुन्दर हो जाये।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

काश सोचता शांत मन से ...अच्छी प्रस्तुति

देवेन्द्र पाण्डेय said...

प्रेरक कविता।

खबरों की दुनियाँ said...

सार्थक-प्रेरक , अच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं । पढ़िए "खबरों की दुनियाँ"

ashish said...

"तरुवर फल नहीं खात है सरवर करही ना पान" सटीक अभ्व्यक्ति .