पत्थर मारने पर भी
फूल देते हैं वृक्ष
नुकीले हल से
वक्ष को छलनी करने पर भी
फसल देती है धरती
तिल-तिल जलकर भी
खाना पकाती है आग
धुआँ घोलने पर भी
प्राण वायु देती है हवा
सूरज लोहे जैसा लाल तपकर भी
देता है रोशनी
यह सब नहीं सोचता
शांत मन से मनुष्य
वरना उसे इंसान बनने में
नहीं लगता क्षणांश भी !
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श्री विजय राठौर की कविता साभार प्रस्तुत.
फूल देते हैं वृक्ष
नुकीले हल से
वक्ष को छलनी करने पर भी
फसल देती है धरती
तिल-तिल जलकर भी
खाना पकाती है आग
धुआँ घोलने पर भी
प्राण वायु देती है हवा
सूरज लोहे जैसा लाल तपकर भी
देता है रोशनी
यह सब नहीं सोचता
शांत मन से मनुष्य
वरना उसे इंसान बनने में
नहीं लगता क्षणांश भी !
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श्री विजय राठौर की कविता साभार प्रस्तुत.
6 comments:
वाह...वाह...वाह...क्या बात कही...
सचमुच यदि मनुष्य यह स्मरण में रखे तो जीवन सार्थक हो जाए...
प्रेरणाप्रद बहुत ही सुन्दर रचना...वाह !!!
यह सब नहीं सोचता
शांत मन से मनुष्य
वरना उसे इंसान बनने में
नहीं लगता क्षणांश भी !
बिल्कुल सही कहा …………इतना यदि मानव सोच ले तो जीवन कितना सुन्दर हो जाये।
काश सोचता शांत मन से ...अच्छी प्रस्तुति
प्रेरक कविता।
सार्थक-प्रेरक , अच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं । पढ़िए "खबरों की दुनियाँ"
"तरुवर फल नहीं खात है सरवर करही ना पान" सटीक अभ्व्यक्ति .
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