Thursday, March 17, 2011

सुर्ख़ हथेलियाँ


पहली बार
मैंने देखा
भौंरे को कमल में
बदलते हुए,
फिर कमल को बदलते
नीले जल में,
फिर नीले जल को
असंख्य श्वेत पक्षियों में,
फिर श्वेत पक्षियों को बदलते
सुर्ख़ आकाश में,
फिर आकाश को बदलते
तुम्हारी हथेलियों में,
और मेरी आँखें बंद करते
इस तरह आँसुओं को
स्वप्न बनते
पहली बार मैंने देखा।
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सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की कविता साभार प्रस्तुत

5 comments:

निर्मला कपिला said...

भवरे का आँसूयों से गहरा रिश्ता है। कितने रूप पल पल बदलने पदते हैं उसे भावमय रचना। आपको सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनायें।

केवल राम said...

तुम्हारी हथेलियों में,
और मेरी आँखें बंद करते
इस तरह आँसुओं को
स्वप्न बनते
पहली बार मैंने देखा।

बहुत ही गहन और मार्मिक भाव ..आपको होली की हार्दिक शुभकामनायें

राज भाटिय़ा said...

होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

Madhur said...

आंसुओं को स्वप्न बनते पहली बार पढ़ा , अति सुन्दर कल्पना | होली की सभी को अनन्य बधाईयां |

Rahul Singh said...

बढि़या प्रस्‍तुति, बधाई.