डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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राजनांदगांव. मो. 9301054300
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"भारत मानव जाति का पालना है, मानवीय वाणी का जन्म स्थान है, इतिहास की जननी है और विभूतियों की दादी है और इन सब के ऊपर परम्पराओं की परदादी है। मानव इतिहास में हमारी सबसे कीमती और सबसे अधिक अनुदेशात्मक सामग्री का भण्डार केवल भारत में है!" अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन के इन हार्दिक शब्दों पर आप गौर करें तो प्रतीत होगा कि हमारे प्राणों से भी प्यारे भारत देश को ऎसी उच्चतर गरिमा के पद पर आरूढ़ करने में छत्तीसगढ़ की माटी और यहाँ के माटी पुत्रों,सपूतों का बड़ा योगदान रहा है.
हमारे कर्मवीरों ने सुविधा के स्थान पर
साधना का कठिन मार्ग चुना.
सुरक्षा के बदले उत्सर्ग को ही अपना आश्रय माना.
फिरंगियों और आततायियों के आगे झुककर
आत्महीन समझौते करने की जगह पर,
आत्मगौरव और आत्म सम्मान की ज़मीन पर
अपनी स्वतन्त्र और अडिग आस्था का परिचय दिया
वक्त की ख़ामोशियों को तोड़कर आगे बढ़ो
अपने ग़म, अपनी हँसी को छोड़कर आगे बढ़ो
ज़िन्दगी को इस तरह जीने की आदत डाल लो
हर नदी की धार को तुम मोड़कर आगे बढ़ो
छत्तीसगढ़ में भारत की आजादी की लड़ाई में सबसे पहले जेहाद का बिगुल फूंककर अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने की त्याग वृत्ति के साथ मातृभूमि की सेवा का दिव्य आराधन करने वालों में पंडित सुन्दरलाल शर्मा का नाम इतिहास में सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा. भाग्य के बल पर निर्भर रहने के स्थान पर कर्म के संबल से राष्ट्रीय चेतना को स्वर और दिशा देने वाले ऐसे कर्मवीरों से हमारी यह पावन भूमि गौरवान्वित हुई है.
पं. सुन्दरलाल शर्मा जो स्वाधीनता संग्रामी थे, कवि भी थे। शर्माजी ने ठेठ छत्तीसगढ़ी में काव्य सृजन किया. पं. सुन्दरलाल शर्मा को महाकवि कहा जाता है। किशोरावस्था से ही सुन्दरलाल शर्मा जी लिखा करते थे। उन्हें छत्तीसगढ़ी और हिन्दी के अलावा संस्कृत, मराठी, बगंला, उड़िया एवं अंग्रेजी आती थी। उनकी लिखी "छत्तीसगढ़ी दानलीला" आज क्लासिक के रुप में स्वीकृत है। पं. सुन्दरलाल शर्मा की प्रकाशित कृतियाँ - 1. छत्तीसगढ़ी दानलीला 2. काव्यामृतवर्षिणी 3. राजीव प्रेम-पियूष 4. सीता परिणय 5. पार्वती परिणय 6. प्रल्हाद चरित्र 7. ध्रुव आख्यान 8. करुणा पच्चीसी 9. श्रीकृष्ण जन्म आख्यान 10. सच्चा सरदार 11. विक्रम शशिकला 12. विक्टोरिया वियोग 13. श्री रघुनाथ गुण कीर्तन 14. प्रताप पदावली 15. सतनामी भजनमाला 16. कंस वध।
आपके पिता पं. जयलाल तिवारी जो कांकेर रियासत में विधि सलाहकार थे। पं. जयलाल तिवारी बहुत ज्ञानी एंव सज्जन व्यक्ति थे। कांकेर राजा ने उन्हें 18 गांव प्रदान किये थे। पं. जयलाल तिवारी बहुत अच्छे कवि थे और संगीत में उनकी गहरी रुचि थी। माता का नाम देवमती देवी था।
गांव के मिडिल स्कूल तक सुन्दरलाल की पढ़ाई हुई थी। इसके बाद उनकी पढ़ाई घर पर ही हुई थी। उनके पिता ने उनकी उच्च शिक्षा की व्यवस्था बहुत ही अच्छे तरीके से घर पर ही कर दी थी। शिक्षक आते थे और सुन्दरलाल शर्मा ने शिक्षकों के सहारे घर पर ही अंग्रेजी, बंगला, उड़िया, मराठी भाषा का अध्ययन किया। पं. सुन्दरलाल शर्मा की पत्नी श्रीमती बोधनी बाई चुपचाप हर मुसीबत का सामना अपने पति के साथ करती रहीं। उनके दो पुत्र थे - नीलमणि और विद्याभूषण।
पं. सुन्दरलाल ने ब्रज भाषा, खड़ी बोली तथा छत्तीसगढ़ी तीनों भाषाओं में रचनाएँ की। उनकी कवितायें प्रकाशित भी होने लगीं। सन् 1900 के पूर्व राजिम साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र था। उस समय विश्वनाथ प्रसाद दुबे, ठाकुर दोमोदर सिंह वर्मा, प्यारेसिंह वर्मा पुजारी, ठाकुर सूर्यादय सिंह वर्मा, क्षेमू प्रसाद शर्मा, गजादर प्रसाद पौराणिक, प्यारेलाल दीक्षित आदि राजिम के प्रसिद्ध कवि थे। सन् 1896-97 में ‘राजिम कवि सभा’ का निर्माण हुआ। 17 वर्ष के पं. सुन्दरलाल को मंत्री नियुक्त किया गया। 1898 में उनकी कवितायें रसिक मित्र में प्रकाशित हुई। सुन्दरलाल न केवल कवि थे, बल्कि चित्रकार भी थे। चित्रकार होने के साथ-साथ वे मूर्तिकार भी थे। नाटक भी लिखते थे। रंगमंच में उनकी गहरी रुचि थी। वे कहते थे कि नाटक के माध्यम से समाज में परिवर्तन लाया जा सकता है। पं. सुन्दरलाल शर्मा हमेशा कहते थे कि हमें समाज की बुराईयों को जल्द से जल्द दूर करने का प्रयास करना चाहिए। उनका यह कहना था कि बचपन से ही किताबें पढ़ने की आदत होनी चाहिये। सन् 1914 में राजिम में उन्होंने एक पुस्तकालय की स्थापना की थी।
पं. सुन्दरलाल राजनीति में सन् 1905-06 में सक्रिय हुए। उसके पूर्व वे पूर्णतः साहित्य को समर्पित थे। सन् 1906 में वे पहुँचे सूरत जहाँ उन्होंने कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। वहां तिलक उग्र (गरम) दल का नेतृत्व कर रहे थे। गोखले के साथ जो थे वे नरम दल की तरफ से तिलक का विरोध कर रहे थे। सुन्दरलाल शर्मा और उनके साथी पं नारायण राव मेधावाले और डा. शिवराम गुंजे तिलकजी के साथ थे।
साहित्य के क्षेत्र में उनका योगदान लगभग 22 ग्रंथ के रुप में है जिनमें 4 नाटक, 2 उपन्यास और काव्य रचनाएँ हैं। उनकी "छत्तीसगढ़ी दानलीला" इस क्षेत्र में बहुत लोकप्रिय है। कहा जाता है कि यह छत्तीसगढ़ी का प्रथम प्रबंध काव्य है.
मार्ग की हर बाधा को पुण्य मानने वाले और हर चुनौती को सौभाग्य मानकर उस पर विजय अभियान को सतत जारी रखने वाले ऐसे धीर-वीर-गंभीर महामानवों ने भारत भूमि और छतीसगढ़ महतारी के ऋण से मुक्त होने की अदम्य अभिलाषा को ही जैसे अपने जीवन का परम लक्ष्य बना लिया था. यही कारण है कि अपनी समस्त सुख-सुविधाओं का त्याग पर वे पथ के बाधक को भी साधक बनाने का महान अवसर नहीं चूके, जिससे अंततः भारत माता को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त करने का महाभियान सफल हो सका. पंडित शर्मा ऐसे ही अभियान के महारथी थे जिन्हें त्याग, तप, उत्सर्ग के संगम के साथ-साथ व्यक्तित्व और कृतित्व के इन्द्रधनुषी महामानव के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है.
सच ही कहा गया है कि बाधा जितनी बड़ी हो, उसे पार करने कि प्रसिद्धि उतनी ही बड़ी होती है. कुशल नाविक भयानक तूफानों और झंझावातों में ही मशहूर होते हैं. पंडित शर्मा इसकी जीवंत मिसाल कहे जा सकते हैं. छतीसगढ़ के गांधी के नाम से उन्हें ऐसे ही नहीं पुकारा गया. दरअसल हरिजनों को उनका हक और सम्मान दिलाने के लिए जो साहसिक भूमिका उन्होंने निभायी उसमें उनके अचल-अडिग स्वभाव के साथ-साथ उपेक्षित, तिरस्कृत या बहिस्कृत जन के प्रति उनकी गहन सहानुभूति, संवेदना तथा उनके जीवन स्वप्न से सक्रिय सरोकार का ही परिचय मिलता है.
वरना कट्टर विचारों के उस माहौल में तब जबकि गांधी जी हरिजन उद्धार का शंखनाद कर रहे थे, घर-घर पहुंचकर हरिजनों को जनेऊ पहनाने, उन्हें मंदिरों और वर्जित स्थानों में प्रवेश दिलवाने का भागीरथ अनुष्ठान आखिर कैसे संभव हो पाता ? इस असंभव को पंडित जी ने संभव कर दिखाया. सत्य से मत डिगो-चाहे जियो चाहे मरो का नारा देकर उन्होंने अपने जीवन दर्शन की साफ़-साफ़ तस्वीर दुनिया के सामने रख दी थी.
सचमुच वह असाधारण दिन था जब, जैसा कि इतिहास गवाह है सन 1933 में पंडित सुन्दरलाल शर्मा के प्रयास से जब गांधी जी का दूसरी बार छत्तीसगढ़ की माटी में पदार्पण हुआ था, तब राजिम-नवापारा में हुई महती सभा को संबोधित करते हुए बापू ने सहज ही कहा था कि पंडित सुन्दरलाल शर्मा उम्र में तो मुझसे छोटे हैं, परन्तु हरिजन उद्धार के कार्य में मुझसे बड़े हैं. उस दौर में गाधी जी का यह कथन कितना महत्वपूर्ण था यह कहने की जरूरत ही नहीं है पर आज भी छत्तीसगढ़ में ऐसे माटी के सपूत के होने का गर्व-बोध समस्त छतीसगढ़ वासियों को होना स्वाभाविक ही है. ऐसे ही प्रयासों और प्रसंगों की यादों को बार-बार ताज़ा किया जाना चाहिए जिससे अपनी धरोहर और शक्ति का परिचय नई पीढी को मिलता रहे. पं. सुन्दरलाल शर्मा का देहान्त 28 दिसम्बर 1940 में हुआ. स्वतन्त्रता सेनानी शर्मा जी देश को आज़ाद नहीं देख पाए।
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