Thursday, August 16, 2012

साहित्य और संस्कृति की अंतर्धारा है संस्कृत



डॉ.चन्द्रकुमार जैन

राजनांदगाँव. मो.9301054300

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फ़ोर्ब्स पत्रिका जुलाई 1987 की एक रिपोर्ट में संस्कृत को सभी उच्च भाषाओं की जननी माना गया है। इसका कारण हैं इसकी सर्वाधिक शुद्धता और इसीलिए यह कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर के लिए एक उपयुक्त भाषा है मीठी और दैवी संस्कृत भाषा का काव्य बहुत ही मीठा है एवं उससे भी अधिक मीठा,प्रभावशाली नैतिक शिक्षा देने वाला सुभाषित है. संस्कृत को देववाणी भी कहते हैं। इस दृष्टि से यह देवों के सामान स्वातंत्र्य की भाषा है.यह बंधन काटने वाली दैवीय भाषा है. 1857 की क्रान्ति का अग्रदूत प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द संस्कृत का उद्‌भट विद्वान था। तिलक, लाला लाजपतराय, मालवीय पर भी संस्कृत की अमिट छाप थी.

संस्कृत भाषा आज भी करोड़ों मनुष्यों के जीवन से एकमेक है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक समस्त जनता के धार्मिक कृत्य संस्कृत में होते हैं। प्रातः जागरण से ही अपने इष्टदेव को संस्कृत भाषा में स्मरण करते हैं। गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त सोलह संस्कार संस्कृत में होते हैं। जैन और महायानी बौद्धों का समस्त विशाल साहित्य संस्कृत और प्राकृत में भी है। विचार-विस्तार, भाषण का माध्यम संस्कृत है। आज भी हजारों विद्वान नानाविध विषयों में साहित्य से इसकी गरिमा को निरन्तर बढ़ाकर अपनी और संस्कृत की महिमा से अलंकृत हो रहे हैं। अतः संस्कृत एक जीवन्त और सशक्त भाषा है।

विदेशों में गीता से प्रेरणा
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भारत से एक शिष्टमण्डल रूस गया था । इसमें प्रतिष्ठित पत्रकार और शहीद लाला जगतनारायण भी गये थे। उन्होंने लौटने पर यात्रा का विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा था जब रूस में पुस्तकालय देखने गये तो संस्कृत विभाग में भी गये । द्वार पर हमारा संस्कृत भाषा में स्वागत और परिचय हुआ। हमारे शिष्ट मण्डल में कोई भी संस्कृत नहीं जानता था। रशियन संस्कृत में पूछते, हम अनुवाद के माध्यम से अंग्रेजी में उत्तर देते। हमें बड़ी शर्म अनुभव हुई। आगे बढ़े, संस्कृत पुस्तकालयाध्यक्ष के कार्यालय में गये। वहॉं भी संस्कृत भाषा में रूस वालों की ओर से प्रश्न और हम अंग्रेजी में उत्तर देते रहे। मेज पर गीता रखी थी। पूछने पर उत्तर मिला कि कर्त्तव्य परायणता की प्रेरणा हम गीता से लेते हैं। तो ये है विदेशों में संस्कृत की महत्ता का एक उदाहरण.

यह सुखद आश्चर्य की बात है कि अमेरिका विशाल देश है। उत्तरी अमेरिका के दक्षिणी भाग मैक्सिको और पनामा राज्य की सीमा का लगभग 20-22 वर्ष पूर्व अनुसन्धान किया गया। वहॉं अन्वेषण में एक मनुष्य समुदाय मिला। जाति विशारद विद्वानों ने उनके शरीर के श्वेत वर्ण के कारण उनका नाम व्हाईट इंडियन रखा और उनकी भाषा का नाम भाषा विशेषज्ञों ने ब्रोन संस्कृत रखा। इस अन्वेषण से यह सिद्ध होता है कि किसी जमाने में संस्कृत भाषा का अखण्ड राज्य था। हम सब बाली द्वीप का नाम जानते हैं। उसकी जनसंख्या लगभग पच्चीस लाख बताई जाती है। बाली द्वीप के लोगों की मातृभाषा संस्कृत है। इतने सबल प्रमाणों के होते हुए भी अंग्रेजों के मानस पुत्र संस्कृत को मृत भाषा कहने में नहीं चूकते। यह तो किसी को सूर्य के प्रकाश मेें न दिखाई देने के समान है। इसमें सूर्य का क्या दोष है! यह सरासर अन्याय और संस्कृत भाषा के साथ जानबूझकर खिलवाड़ है। संस्कृत तो स्वयं समर्थ, विपुल साहित्य की वाहिनी, सरस, सरल और अमर भाषा है।

मनुस्मृति जब जर्मनी में पहुँची तो वहॉं के विद्वानों ने इसका और जैमिनी के पूर्व मीमांसा दर्शन का अध्ययन करके कहा- हन्त! यदि ये ग्रन्थ हमें दो वर्ष पूर्व मिल गये होते तो हमें विधान बनाने में इतना श्रम न करना पड़ता। काव्य नाटक आदि के क्षेत्र में कोई भी भाषा संस्कृत की समानता नहीं कर सकती। वाल्मीकि तथा व्यास की बात ही कुछ और है। भवभूति, भास, कालिदास की टक्कर के कवि तो भारत के ही साहित्य में हैं। विश्व के किसी और देश में ऐसे साहित्यकार कहॉं हैं? भाषा का परिष्कार अलंकार शास्त्र से भारत में ही हुआ, अन्यत्र नहीं। अभिघा, लक्षणा, व्यंजना का मार्मिक विवेचन भारतीय मनीषियों की संस्कृत साहित्य में उपलब्धि है।

लॉर्ड मेकॉले ने जब कलकत्ता में एक विद्यालय की स्थापना की तब उसने भारत के सभी भाषा विद्वानों को आमन्त्रित किया एवं उनसे पूछा कि “आप लोगों को शिक्षा किस भाषा में दी जाना चाहिये तब सब विद्वानों ने एकमत से कहा - संस्कृत भाषा में दी जाना चाहिये। परंतु लॉर्ड मेकॉले ने कहा - संस्कृत तो मृत भाषा है उसमें शिक्षा नही दी जा सकती। आप को उन्नति के शिखर पर पहुँचना है तो अंग्रेजी भाषा में शिक्षा ग्रहण करो। आपको ऊंचे पद और नौकरियाँ मिलेगी। इस प्रकार लॉर्ड मेकॉले ने अपनी शिक्षा पद्धति भारतीयों को मानसिक रूप से पूर्ण दास बनाने के लिये प्रारम्भ की और अफ़सोस है उसी का अनुसरण आज तक किया जा रहा है.

संस्कृत साहित्य का वैभव
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संस्कृत साहित्य का इतना विस्तार है कि ग्रीक एवं लैटिन दोनों भाषाओं का साहित्य एकत्र किया जाए तो भी संस्कृत साहित्य के सामने नगण्य प्रतीत होता है। संस्कृत साहित्य का मूल वेद है। ललित कलाओं में भी संस्कृत साहित्य का नाम सर्वोपरि है। संस्कृत साहित्य की खोज ने ही तुलनात्मक भाषा विज्ञान को जन्म दिया। संस्कृत के अध्ययन ने ही भाषा शास्त्र को उत्पन्न किया। दर्शन और अध्यात्म तो हैं ही संस्कृत साहित्य की मौलिक देन। व्यवहारोपयोगी ज्ञान-विज्ञान की संस्कृत साहित्य में पर्याप्त रचना उपलब्ध है। धर्म विज्ञान, औषधि विज्ञान, स्वर विज्ञान, गणित, ज्योतिष आदि विषयों में योग्यता पूर्ण साहित्य संस्कृत में प्राप्त है।

सप्रमाण कहा जा सकता है कि अंकगणित दशमलव प्रणाली का सर्वप्रथम आविष्कर्ता भारत का मनीषी वर्ग था। शिल्प शास्त्र का विशाल संस्कृत साहित्य भारत की सर्वोपरि अमूल्य निधि है। भारतीय औषधि विज्ञान के बारे में अमेरिका के यशस्वी डॉक्टर क्लार्क का कहना है ""चरक की औषधियों का प्रयोग करना चाहिए।'' गीता, पंचतन्त्र और हितोपदेशादि संस्कृत साहित्य की महिमा विश्व की मुख्य भाषाओं में अनुदित होकर संस्कृत साहित्य में भारत का भाल उन्नत कर रही है।

भारत की सारी भाषाएँ तो संस्कृत से ही निकलीं हैं किन्तु जैसा पहले स्पष्ट किया जा चुका है, संस्कृत का प्रभाव केवल भारत में ही नहीं विदेशी भाषाओं पर भी पड़ा है। फारसी, लेटिन, अङ्ग्रेजी और श्रीलङ्का की भाषा, नेपाली एवं अफ्रीका के मूल निवासियों की भाषा पर संस्कृत का प्रभाव है। पश्चिमी अमेरिका राज्य में एक जाति ऐसी है जो संस्कृत से मिलती-जुलती भाषा से अपने विवाह संस्कार करती है और वैसे ही भाषा बोलती है। इंडोनेशिया, मलेशिया एवं सिंगापुर की भाषाओं पर भी संस्कृत का प्रभाव है। महर्षि महेश योगी के द्वारा विदेशों में संस्कृत का बहुत अधिक प्रचार किया गया। साथ ही हरे कृष्ण मिशन द्वारा भी विदेशों में संस्कृत का गीता के माध्यम से प्रचार किया गया। महर्षि अरविन्द ने विश्व संस्कृत प्रतिष्ठान की स्थापना पाण्डिचेरी में की थी।

संस्कृति की प्रधान धारा,संस्कृत
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गुलाम दस्तगीर मुसलमान होते हुये भी संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित हैं। वे सब जगह सरल संस्कृत भाषा में ही बोलते हैं। भारत में ऐसे कई परिवार हैं जिन्होंने अपनी मातृभाषा संस्कृत लिखवायी है एवं वे घर में संस्कृत में ही बोलते हैं। पी. सी. रेन की इंग्लिश ग्रामर में एक वाक्य लिखा है “कालिदास इज़ शेक्सपियर ऑफ़ इंडिया” किंतु जब विदेशी विद्वानों गेटे तथा अन्य लोगों ने संस्कृत का अध्ययन कर कालिदास के काव्यों को पढ़ा तब वे आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने घोषित किया कि “कालिदास इज़ दी ग्रेटेस्ट पॉयट ऑफ़ इंडिया, इन दी सिमिली ऑफ़ कालिदास शेक्सपियर इज़ नथिङ्ग। शेक्सपियर इज़ ऑन्ली ए ड्रेमेटिस्ट एण्ड कालिदास इज़ दी ग्रेटेस्ट पॉयट ऑफ़ दी वर्ल्ड ”।

जब विदेशी लोगों ने कालिदास को संसार के सर्वश्रेष्ठ कवि की मान्यता दी तब हम मूर्खों की आँखें खुली और हम भारतीयों ने कालिदास जयन्ती मनाना प्रारंभ किया। आज संस्कृत का प्रचार गुरुकुलों के माध्यम से किया जाना चाहिए तभी नैतिक, सदाचारी, कर्तव्यनिष्ठ, शूरवीर, देशभक्त निर्मित किये जा सकते हैं। ऐसी नवयुवक पीढ़ी के द्वारा ही भारत का सम्मान विश्व स्तर पर बढेगा. आर्य संस्कृति के प्रारंभ में जन्मी मंत्रद्रष्टा ऋषियों की वाणी के समय से लेकर आज तक यह भाषा, भारत की विविध भाषाओं एवं लोकभाषाओं का रूप लेते हुए भारतीय संस्कृति की प्रधान धारा बनी हुई है। साथ ही अपने अविच्छिन्न रूप में भी पूरे विश्व में व्यापकता, धार्मिकता एवं लौकिकता से परिपूर्ण है।

विदेशी विश्वविद्यालयों में संस्कृत
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विदुषी लेखिका डॉ.ऊषा गोस्वामी बताती हैं कि अनेक विशेषताओं से परिपूर्ण इस भाषा की महत्ता के कारण ही आज से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व ऑक्सफोर्ड और केम्ब्रिज जैसे विश्वविद्यालयों में संस्कृत विभाग खोले गये थे। आज विश्व के हर बड़े विश्वविद्यालय में एक भारतीय विद्या विभाग (इंडोलॉजी डिपार्टमेंट) अवश्य होता है, जिसमें संस्कृत भाषा सिखाई जाती है। समस्त विश्व में भारतीय संस्कृति और संस्कृत के महत्त्व को इस बात से समझा जा सकता है। लिफोर्निया विद्यापीठ में 1897 ई .से संस्कृत भाषा पढ़ाई जा रही है। अमेरिका के मेरीलैंड विद्यापीठ में भी इसका इतना प्रचार है कि वहाँ केविद्यार्थियों ने संस्कृत भारती नाम से एक दल तैयार किया है। हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम जब ग्रीस गए तब वहाँ के माननीय राष्ट्रपति कार्लोस पाम्पाडलीस ने उनका स्वागत संस्कृत भाषा में "राष्ट्रपतिमहाभाग : सुस्वागतम् यवनदेशे" कहकर स्वागत किया था।जुलाई २००७ में अमेरिकी सीनेट का प्रारम्भ वैदिक प्रार्थना से किया गया। यू.के. कुछ विद्यालयों में यह अनिवार्य रूप से शिक्षा का अंग है। इस भाषा की वैज्ञानिकता के कारम इसे कंप्यूटर के संगणकों के लिये सर्वश्रेष्ठ भाषा माना गया है। भारत तथा विदेश में यह आज भी यह अनेक परिवारों की बोली है। भारत के चार गाँव ऐसे हैं जहाँ आज भी यह भाषा दैनिक व्यवहार में प्रयोग की जाती है।

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