बिन सूरज की भोर में,बूंदों की बरसात
सावन-भादों दे रहे, बरखा की सौगात
कहीं टूटती झोपड़ी, कहीं बाढ़ का जोर
सावन-भादों मास का, अजब-गजब ये दौर
कागज़ वाली नाव की, बचपन वाली याद
जी भर के वह भीगना,कहाँ रही वो बात
भीगे तन की बात कुछ,भीगे मन की और
बादल बरसे भूलते, दोनों अपना ठौर
रुनझुन-रुनझुन गा रहीं, बूँदें अपना राग
कहीं मिलन की है खुशी, कहीं है दिल में आग
गरम पकौड़े चाय की, चुस्की का आनंद
खाना- पीना भी बना, बरखा में एक छंद
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