Wednesday, September 26, 2012

उच्च शिक्षा में 'क्रेडिट ट्रांसफर सिस्टम' पर रज़ामंदी


डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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मो.9301054300

पिछले दिनों देश के करीब 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की
एक बैठक में उच्च शिक्षा के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए,
जिनके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।
बैठक में यह निर्णय लिया गया कि देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में
स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर प्रवेश के लिए एक अभियोग्यता परीक्षा कराई जाए।
इस संदर्भ में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति
बीबी भट्टाचार्य की अध्यक्षता में एक समिति भी बना दी गई है.
प्रस्ताव के अनुसार केंद्रीय विश्वविद्यालयों में
बीए, बीएससी और बीकॉम आदि स्नातक स्तर की कक्षाओं में प्रवेश के लिए
एक संयुक्त परीक्षा कराई जाएगी।
इसके अलावा क्रेडिट ट्रांसफर पद्धति का लाभ भी
प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को मिलेगा.

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आरंभ में तो प्रस्ताव था कि सिर्फ इस अभियोग्यता परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर मेरिट से उम्मीदवारों को अपनी वरीयता के आधार पर विभिन्न केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश दिया जाए। हालांकि यह अच्छा हुआ कि इसी बैठक में केवल इस परीक्षा के अंकों के आधार पर ही प्रवेश को नकार दिया गया। यह निर्णय लिया गया है कि इन अंकों के अतिरिक्त बारहवीं की परीक्षा में प्राप्त अंकों को भी एडमिशन आधार बनाया जाए। अर्थात दोनों के अंकों को जोड़कर योग्यता सूची बनाई जाएगी। बारहवीं के अंकों को सिरे से खारिज कर देना एक तरह से उस सारे ज्ञान और मेहनत पर पानी फेर देना होता, जो विद्यार्थियों ने अब तक हासिल किया था।

फिर संयुक्त अभिरुचि परीक्षा का जो प्रस्तावित प्रारूप है, वह भी थोड़ा शहरी और कान्वेंट स्कूलों की ओर झुका सा है, जिससे ग्रामीण और छोटे शहरों-कस्बों के विद्यार्थियों को अपेक्षाकृत कठिनाई होगी। परीक्षा के प्रारूप में सामान्य ज्ञान और व्यक्तित्व परीक्षण विषयों से संबंधित सवाल पूछे जाने का प्रस्ताव था। जाहिर है कि इन विषयों में गांवों-कस्बों के अति प्रतिभाशाली विद्यार्थी भी पीछे रह जाते हैं क्योंकि न तो उन स्कूलों में पर्याप्त संसाधन, आधुनिक आधारभूत संरचनाएं और व्यवस्था होती है और न ही उपरोक्त विषय में उनका वैसा शिक्षण-प्रशिक्षण होता है। अत: यह पैटर्न तो उनके विरुद्ध ही जाएगा। दरअसल, इस तरह की अभिरुचि और अभियोग्यता परीक्षा की अवधारणा अमेरिका के स्कोलास्टिक असेसमेंट टेस्ट (सैट) पर आधारित है।

अमेरिकी विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तर पर प्रवेश सैट स्कोर के आधार पर किया जाता है। वैसे वहां भी कुछ विश्वविद्यालयों ने सिर्फ सैट के आधार पर एडमिशन का विरोध किया है। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के कुलपति रिचर्ड एटकिंसन ने 2001 में सैट पर बहुत ज्यादा जोर देने का विरोध किया था। हालांकि सैट का परीक्षा पैटर्न काफी संतुलित है। इसमें गणित, विवेचनात्मक पठन और लेखन पर सवाल होते हैं, जिनमें सिर्फ कान्वेंट स्कूलों का वर्चस्व नहीं होता। फिर वहां सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में हमारे यहां जैसा कोई ज्यादा अंतर भी नहीं होता।आशाहै कि इस परीक्षा का प्रारूप बनाते वक्त देश के ग्रामीण और कस्बाई स्कूलों की स्थिति को ध्यान में रखा जाएगा। इसी से जुड़ा हुआ एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा है बारहवीं के अंकों का।

कई शिक्षाविदों का कहना है कि बारहवीं के अंकों में भी एक स्केलिंग या समायोजन किया जाए। होता यह है कि सीबीएसई बोर्ड अथवा आईसीएसई बोर्ड परीक्षा में 90 फीसदी अंक लाना अत्यंत कठिन नहीं है। हजारों छात्र इससे अधिक अंक ले आते हैं। जबकि झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा आदि अन्य बोडरें में 85 प्रतिशत अंक तो टॉपर भी यदाकदा ही ला पाते हैं। ऐसे में बहुत जरूरी है कि विभिन्न बोर्डों की परीक्षा प्रणाली में समानता हो, जिससे विभिन्न राज्यों के प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को भेदभाव का शिकार न होना पड़े।

क्रेडिट ट्रांसफर क्या है ?
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इस बैठक का एक महत्वपूर्ण बिंदु था-क्रेडिट ट्रांसफर की व्यवस्था पर रजामंदी। यह अपने आपमें एक क्रांतिकारी व्यवस्था है, जिसमें कोई प्रतिभाशाली छात्र उन विषयों की पढ़ाई दूसरे विश्वविद्यालयों में कर सकता है, जिनकी पढ़ाई उसके विश्वविद्यालय में नहीं होती और वहां प्राप्त क्रेडिट या अंक उसके कुल अंकों में जुड़ जाएंगे। अमेरिका और यूरोप में यह व्यवस्था बहुत पहले से है। इन देशों में तो न केवल एक विश्वविद्यालय से दूसरे विश्वविद्यालय में क्रेडिट ट्रांसफर होता है, बल्कि एक देश से दूसरे देश के विश्वविद्यालय में भी यह संभव है।

कुछ ऐसी ही स्थिति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने देश में भी संभव है, जिसमें हमारे छात्र बाहर और विदेशी छात्र हमारे यहां शिक्षा ग्रहण कर सकेंगे। इससे हमारे छात्रों को जहां श्रेष्ठ विदेशी विश्र्वविद्यालयों में पढ़ने का मौका मिल सकेगा, वहीं विदेशी छात्रों के आगमन से हमें विदेशी मुद्रा तो मिलगी ही, साथ ही हमारा सॉफ्ट पावर भी इससे बढ़ेगा। लेकिन इस प्रस्ताव में एक बहुत बड़ी कमी यह है कि यह प्रावधान सिर्फ केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए है। राज्य-विश्वविद्यालय इससे बाहर होंगे। यह सच है कि हमारे कॉलेज और राज्य स्तरीय विश्वविद्यालय उत्कृष्ट कोटि के नहीं हैं, लेकिन इसका कारण वहां प्रतिभा की कमी न होकर धन की कमी, राजनीति और प्रशासनिक अकुशलता है, जिसे दृढ़ इच्छाशक्ति से ही दूर किया जा सकता है।

इस बैठक में यह भी तय किया गया कि बीए-बीएड और बीएससी-बीएड का चार साल का एकीकृत कोर्से भी शुरू किया जाएगा। दरअसल भारतीय शिक्षा प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन की बात काफी समय से चल रही है, खास तौर पर उच्च शिक्षा में। याद रहे कि अंग्रेजीदां नीति नियामक हिंदीभाषी जनता को नजरअंदाज किए रहते हैं। कई सुधारात्मक कदम तो ऐसे हैं जो अमेरिकी या पश्चिमी यूरोप के देशों की तर्ज पर लिए गए हैं। यह तो ठीक है कि ये देश दुनिया के सर्वाधिक विकसित देश होने के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी सिरमौर हैं। उनसे हम सबक तो ले सकते हैं, लेकिन उनकी नीतियां और नियम उनके अपने देश की परिस्थितियों के हिसाब से बनाए गए हैं। अत: यह जरूरी है कि पाश्चात्य देशों के अंधानुकरण की जगह हम अपनी शिक्षा नीति अपनी जरूरतों और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर बनाएं।

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