Sunday, April 20, 2008

फ़ासला नहीं होता .


इस तरह फ़ासला नहीं होता
मैं जो तुमसे मिला नहीं होता

ज़ुल्म की हद अगर नहीं होती
सब्र भी खोखला नहीं होता

पीठ में घोंपते न तुम खंजर
क़त्ल का मामला नहीं होता

आँखों-आँखों में बात कर लेते
रंज़ या फिर गिला नहीं होता

ख़त भी गुमनाम लिखा है तुमने
क्या मैं तुमसे मिला नहीं होता

प्यार को वो अगर समझ जाता
मीत से कुछ गिला नहीं होता

देखते तो मुझे सदा देकर
एक क़दम मैं हिला नहीं होता

3 comments:

mehek said...

bahut khubsurat gazal hai.
आँखों-आँखों में बात कर लेते
रंज़ या फिर गिला नहीं होता

ख़त भी गुमनाम लिखा है तुमने
क्या मैं तुमसे मिला नहीं होता
wah inka to jawab nahi.

Udan Tashtari said...

बहुत गजब..आनन्द आ गया.

अनुराग अन्वेषी said...

उनके इंतजार में जाने कब से खड़ा हूं उसी मोड़ पर
अब है उन्हें ही रंज, जो गये थे खुद मुझे छोड़े कर
क्या कीजिएगा? दुनियावालों का दस्तूर ही यही है। बहुत प्यारी रचना है आपकी।