Thursday, June 5, 2008
एक और ग़ज़ल ...
जब बगावत ज़ुल्म से करने लगे हैं
लोग हमसे बेसबब डरने लगे हैं
सिर्फ़ जीना ही है मक़सद ज़िंदगी का
इस तरह जी-जी के हम मरने लगे हैं
कल्पना और आस्था के बीज बोकर
सेज़ पर काटों की हम चलने लगे हैं
रोशनी की चाह दिल में जब से आई
क्यों अँधेरे मेरे घर पलने लगे हैं
जो कभी उभरे थे सूरज की तरह वो
शाम जब होने लगी ढलने लगे हैं
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7 comments:
सिर्फ़ जीना ही है मक़सद ज़िंदगी का
इस तरह जी-जी के हम मरने लगे हैं
ये शेर उम्दा है.. बहुत बढ़िया ग़ज़ल
सुंदर और बेहतरीन प्रस्तुति.
"सिर्फ़ जीना ही है मक़सद ज़िंदगी का
इस तरह जी-जी के हम मरने लगे हैं"
सच्चा शेर.
बहुत बहुत बधाई.
फ़क़त जीने की मजबूरी में भी यूँ जी रहे हैं लोग
लगा ले आग सीने में, कि दीवाने! धुआं कब तक ?
..... क्या बात है भाई. बहुत बढ़िया ग़ज़ल.
wah kya baat hai bahut hi sundar bahut badhai
कल्पना और आस्था के बीज बोकर
सेज़ पर काटों की हम चलने लगे हैं
---बहुत उम्दा!!!!!!!!बहुत बढ़िया ग़ज़ल है...
जब बगावत ज़ुल्म से करने लगे हैं
लोग हमसे बेसबब डरने लगे हैं
जो कभी उभरे थे सूरज की तरह वो
शाम जब होने लगी ढलने लगे हैं
बेहतरीन गज़ल..
***राजीव रंजन प्रसाद
आप सब का तहे दिल से शुक्रिया.
और मीत जी आपका शे'र तो लाज़वाब है.
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डा.चंद्रकुमार जैन
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