Wednesday, June 18, 2008

इतनी-सी चाहत...!


चाहता हूँ
मन खुले
ऊन के गोले की तरह
कि बुन सकूँ
स्वेटर कविता की.
चाहता हूँ
धुना जाए यह मन
कपास की तरह
कि पिरो सकूँ धागों में
जीवन के बिखरे फूलों को
बना सकूँ एक माला
नई अनुभूति की.

11 comments:

विजय गौड़ said...

बढिया है डा सहाब -
जीवन के बिखरे फूलों को
बना सकूँ एक माला.

रंजू भाटिया said...

धुना जाए यह मन
कपास की तरह
कि पिरो सकूँ धागों में
जीवन के बिखरे फूलों को
बना सकूँ एक माला
नई अनुभूति की.

सच में यही दिल करता है मेरा भी ..बहुत सुंदर लगे यह भाव ..

mehek said...

dil ki baat keh di aapki kavita ne,bahut bahut sundar.

jasvir saurana said...

bhut hi sundar rachana.badhai ho.

Abhishek Ojha said...

khubsurat khayaal hain !

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा.

Alpana Verma said...

kitni sundar abhivyakti ki hai!
jaane kitno ke dil ki baat kah di aap ne is kavita mein...

अमिताभ मीत said...

बहुत खूब डॉ साहब.
एक शेर याद आ गया :

मुझ को शाइर न कहो "मीर" की साहब मैं ने
दर्द-ओ-गम लाख किए जम'आ तो इक शेर कहा

राजेश अग्रवाल said...

आपकी अपनी रचनाओं को दाद देता हूं, साथ ही ब्लाग पर महान शायरों को एक जगह पर जिस तरह सहेजा जा रहा है,उस प्रक्रिया को भी चलने दें.

नीरज गोस्वामी said...

गज़ब का शब्द शिल्प जैन साहेब...जिन्दाबाद....वाह.
नीरज

Dr. Chandra Kumar Jain said...

खुले मन से आप सब ने
शुभकामनाएँ दीं...आभार.
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चन्द्रकुमार