
जब वक़्त पड़ा तब कोई नहीं
मतलब के हैं सब लोग यहाँ
दुनिया में किसी का कोई नहीं
जब बारी आई जाने की
और डेरा किया मसानों में
तब जाने वाले लाख मिले
पर जलने वाला कोई नहीं
==================
टीप : यह कविता मैंने
१७ जुलाई १९७९ को लिखी थी।
मेरी पहली प्रकाशित रचना।
तब मैं मात्र १९ बरस का था।
पढ़कर क्या सोचते हैं आप ?
======================
चीखती है लेखनी जब
वेदना और आह सुनकर
लोग कहते हैं कि मैं अब
गीत लिखने लग गया हूँ
अश्क आँखों से बहे
और होंठ मेरे खुल गए तो
लोग कहते हैं कि मैं अब
गीत गाने लग गया हूँ
देखकर नीरव ये आलम
तार दिल के झनझनाए
लोग कहते हैं कि मैं
संगीत में अब खो गया हूँ
बरसते नयनों को लखकर
बंद कर लीं मैंने पलकें
लोग कहते हैं कि मैं अब
खो गया हूँ, खो गया हूँ !
======================
छोड़िए रोना व्यथा का
वेदना में चीखना
दुश्मनी इनसे न करना
बेहतर है सीखना
=======================
दौड़ रहा बाहर पर भीतर है हीन
दंभ आसमां पर है लेकिन तू दीन
सबसे आगे रहने में है मशगूल
सुन भाई जाए न सारा सुख छीन
माना कि सबको है अपनी ही फिक्र
पर तू मत इतना हो अपने में लीन
सुन तो तू मिट्टी की, फूलों की भाषा
जल में क्यों प्यासी है सोच जरा मीन
सुख का हर पल जी ले हँसकर तू मीत
दुःख की रातों से तू मत हो ग़मगीन
सीमा हो धुंधली तब तय है तुम मानो
किरणों की होती है बारिश रंगीन.
=========================
जितनी गहरी वेदना, उतने गहरे गीत
मेघ तभी हैं बरसते, जब हो गहरी प्रीत
=================उठे कहाँ से देखिए, बरसे कहाँ वो मेघ
गरज-गरज कर कह गए, देख हमारा वेग
=================कजरारे चाहे दिखें, मन के हैं पर साफ़
प्यासी आँखें देखकर, करते हैं इन्साफ़
=================
बादल-बादल गीत पर, बदली-बदली चाल
गोरी पनघट जा रही, देखो मचा बवाल
=================
झूम-झूम कर बो रहा, वह धरती में धान
बरस-बरस बादल कहे, जय हो धन्य किसान
=============================
बदला मौसम बदल गया, बादल का बर्ताव
मन आया तब बरसना, बन गया देख स्वभाव
==================================