Saturday, August 30, 2008

सुना जाए सूनापन मन का...!

खिड़की बड़ी करो बेशक !

आकाश बड़ा कुछ अधिक दिखेगा

खान-पान-सम्मान मिले

विश्वास बड़ा कुछ अधिक दिखेगा

लेकिन मन के सूनेपन को

सुनने का जब वक़्त नहीं है

कैसे मानूँ जीने का

एहसास बड़ा कुछ अधिक दिखेगा !

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10 comments:

रंजू भाटिया said...

बहुत गहरे एहसास लिए हैं यह आपकी लिखी पंक्तियाँ ..बहुत पसंद आई

नीरज गोस्वामी said...

लेकिन मन के सूनेपन को
सुनने का जब वक़्त नहीं है
कैसे मानूँ जीने का
एहसास बड़ा कुछ अधिक दिखेगा !
ऐसी पंक्तियाँ कोई आप सा संवेदनशील कवि ही लिख सकता है....बहुत खूब.
नीरज

Dr. Amar Jyoti said...

'मन के सूनेपन' को पुकारती आपकी यह कविता
थोड़े से शब्दों में बहुत कुछ कह जाती है। बहुत ख़ूब!

शोभा said...

बहुत सुन्दर लिखा है आपने। सस्नेह

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाकई.... कैसे मानूं..?
बढ़िया भाव-चित्र..
बधाई.

अमिताभ मीत said...

लेकिन मन के सूनेपन को
सुनने का जब वक़्त नहीं है
कैसे मानूँ जीने का
एहसास बड़ा कुछ अधिक दिखेगा !

क्या बात है. सही है भाई ... बहुत ख़ूब है.

राज भाटिय़ा said...

बहुत ही गहरी बात कह दि आप ने कविता के रुप मे धन्यवाद

Dr. Chandra Kumar Jain said...

आप सब को ह्रदय से
धन्यवाद
चन्द्रकुमार.
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Satish Saxena said...

वाह ! बहुत खूब लिखा है आपने !

Dr. Chandra Kumar Jain said...

शुक्रिया सतीश भाई
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन