Sunday, September 21, 2008

विनोद कुमार शुक्ल / मंगलू तुम्हारा मंगल हो !

श्री विनोद कुमार शुक्ल मानवीय अस्मिता
और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति अत्यन्त
सजग सर्जक हैं। प्रकृति उनकी रचनाओं में
संवेदनशीलता के उपादान लेकर प्रस्तुत होती है।
स्वयं से कट कर और भटक कर मनुष्य
जिस अंधेरे से विदग्ध है, उसकी शांत-सहज
अभिव्यक्ति श्री शुक्ल की अन्यतम विशेषता है।
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पढ़िये शुक्ल जी की
एक प्रसिद्ध कविता
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मंगल ग्रह इस समय पृथ्वी के बहुत पास आ गया है
वहाँ किसी जीव के न होने का सन्नाटा
अब पृथ्वी के बहुत समीप है
कि पृथ्वी के पड़ोस में कोई नहीं
समय पड़ने पर पृथ्वी का कौन साथ देगा
पृथ्वी के सुख दुःख
उसके नष्ट होने
और समृद्ध होने का कौन साक्षी होगा

सुनो मेरे पड़ोसी
सबके अड़ोसी पड़ोसी
और पड़ोस के बच्चे
जो एक दूसरे की छतों में
कूदकर आते जाते हैं
मंगल ग्रह इस समय पृथ्वी के बहुत समीप है -
पृथ्वी के बच्चे कूदो
तुम्हारा मंगल हो
वायु, जल, नभ
धरती, समुद्र, तुम्हारा मंगल हो
मंगलू ! तुम्हारा मंगल हो
पृथ्वी से दूर अमंगल, मंगल हो।
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7 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बढिया रचना प्रेषित की है।आभार।

रंजू भाटिया said...

सुंदर ...इसको पढ़वाने का शुक्रिया

शैलेश भारतवासी said...

विनोद जी का अंदाज़ ही दुनिया में सबसे अलग है।

Abhishek Ojha said...

सुंदर रचना... आभार !

राज भाटिय़ा said...

बहुत ही सुन्दर लगी आप की यह रचना.
धन्यवाद

Udan Tashtari said...

सुंदर रचना पढ़वाने का शुक्रिया.

Dr. Chandra Kumar Jain said...

आभार आप सब का
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चन्द्रकुमार