Wednesday, March 4, 2009

निदा फाज़ली...देखा हुआ सा कुछ


निदा साहब को हफ़्ते भर से पढ़ते-पढ़ते
गुनगुनाने लगा ये लाईनें....आप भी
गुनगुना लें....

देखा हुआ सा कुछ है
तो सोचा हुआ सा कुछ
हर वक़्त मेरे साथ है
उलझा हुआ सा कुछ

होता है यूँ भी रास्ता
खुलता नहीं कहीं
जंगल सा फैल जाता है
खोया हुआ सा कुछ

साहिल की गीली रेत पर
बच्चों के खेल-सा
हर लम्हा मुझ में बनता
बिखरता हुआ सा कुछ

फ़ुरसत में आज घर को
सजाया कुछ इस तरह
हर शय से मुस्कुराता है
रोया हुआ सा कुछ

धुंधली-सी एक याद किसी
कब्र का दिया
और मेरे आस-पास
चमकता हुआ सा कुछ
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1 comment:

नीरज गोस्वामी said...

साहिल की गीली रेत पर
बच्चों के खेल-सा
हर लम्हा मुझ में बनता
बिखरता हुआ सा कुछ.
लाजवाब....अब निदा साहेब की रचना पर और क्या कहें...शुक्रिया आपका पढ़वाने के लिए.
नीरज