Tuesday, March 10, 2009

विराट की एक जानदार ग़ज़ल


जो न करना था कर गया हूँ मैं
चलते-चलते ठहर गया हूँ मैं

फ़िर किसी रूप के दिल के भीतर
सीढ़ी-सीढ़ी उतर गया हूँ मैं

आज दर्पण में देखकर ख़ुद को
अपने आप से डर गया हूँ मैं

आख़री मील का जो पत्थर था
उससे आगे गुज़र गया हूँ मैं

अब समेटा न जा सकूँ शायद
पारा-पारा बिखर गया हूँ मैं

एक सूरत थी शीश पर जिसके
फूल की तरह बिखर गया हूँ मैं

सोहबतें करके गीत गज़लों की
बिगड़ना था, सुधर गया हूँ मैं

ओढ़ करके जतन से ज्यों की त्यों
अपनी चादर न धर गया हूँ मैं

कोई जाता नहीं जिधर भूले
सोचकर ही उधर गया हूँ मैं

मैं भी सिद्धार्थ हूँ घर छोड़ा तो
लौट कर फ़िर न घर गया हूँ मैं

मैं तो अपने लिखे में ज़िंदा हूँ
कौन कहता है मर गया हूँ मैं
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चंद्रसेन विराट की देशबंधु रायपुर में
10 मार्च को प्रकाशित ग़ज़ल...साभार

8 comments:

शोभा said...

आख़री मील का जो पत्थर था
उससे आगे गुज़र गया हूँ मैं

अब समेटा न जा सकूँ शायद
पारा-पारा बिखर गया हूँ मैं
सुन्दर प्रस्तुति। होली की शुभकामनाएँ।

अजित वडनेरकर said...

बहुत बढ़िया रचना....
विराट जी की हिन्दी के श्रेष्ठ ग़ज़लकार हैं...
होली की मुबारकबाद ...

नीरज गोस्वामी said...

ऐसे स्थापित ग़ज़लकार की बेहतरीन ग़ज़ल पढ़वाने का शुक्रिया जैन साहेब.
आपको होली की ढेरों रंग बिरंगी शुभ कामनाएं.
नीरज

समयचक्र said...

सुन्दर प्रस्तुति..
रंगों के पर्व होली के अवसर पर आपको और आपके परिवारजनों को हार्दिक शुभकामनाये

Unknown said...

सर जी बहुत सुन्दर । अच्छी लगी ये रचना । होली मुबारक

mehek said...

waah sunder

अमिताभ मीत said...

बहुत सुन्दर. बहुत शुक्रिया पढ़वाने का.

राज भाटिय़ा said...

अति सुंदर रचना
आपको और आपके परिवार को होली की रंग-बिरंगी ओर बहुत बधाई।
बुरा न मानो होली है। होली है जी होली है